[ प्रदीप सिंह ]: बिहार को राजनीति से और राजनीति को बिहार से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसे बिहार में आज राजनीति ही खतरे में है। राजनीति खतरे में यानी लोकतंत्र खतरे में। बिहार में प्रतिस्पर्धी राजनीति और राजनीतिक विरोध की सतत जलने वाली ज्वाला बुझ रही है। वैसे इस मामले में बिहार अकेला नहीं है। उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा हाइबरनेशन में हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल बंद गली का आखिरी मकान जैसा बन गया है। हैं तो और भी राज्य, पर राज्य को छोड़िए राष्ट्रीय स्तर पर हाल इससे भी बुरा है।

कांग्रेस कई साल से एक ही गियर में चल रही है, दूसरा गियर लगाना आता ही नहीं

कांग्रेस पिछले कई साल से एक ही गियर में चल रही है। उसके ड्राइवर (नेहरू-गांधी परिवार) को दूसरा गियर लगाना आता ही नहीं। जो वामपंथी दल कभी यह कहते थे कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, उनकी बंदूक ही खो गई है। वे डाक टिकट के आकार में पहुंच गए हैं। बाकी दलों का हाल भी बुरा ही है। आजकल विपक्षी दलों और नेताओं की सक्रियता दो जगह दिखती है। एक, सोशल मीडिया पर और दूसरे, चुनाव के समय। चुनाव आ गया है, पर कोरोना ने सुविधा दे दी है कि चुनाव भी सोशल मीडिया से ही लड़ सकते हैं। इसलिए ज्यादा कष्ट नहीं है।

नीतीश का सुशासन और राजनीतिक नैतिकता का आभामंडल क्षीण हो गया, वह चिंतित नहीं हैं

बात बिहार की हो रही है तो नीतीश कुमार का चर्चा के केंद्र में होना लाजिमी है। नीतीश कुमार पंद्रह साल से मुख्यमंत्री हैं, पर अब वह अपने अतीत की छाया भर दिखते हैं। उनका सुशासन और राजनीतिक नैतिकता का आभामंडल क्षीण हो गया है, पर वह चिंतित नहीं हैं, क्योंकि-कउन बात क डर बा, अब त मोदी जी क संग बा। इसमें एक ही शर्त है कि बिहार के राजा वही रहें। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को कालपात्र में दबा दिया है। इससे क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा की आग और प्रबल हो गई है। वह बिहार की जनता को भी समझ गए हैं।

बिहार में भाजपा डरी हुई है

भाजपा बिहार की जनता को लालू यादव के जंगलराज का डर नहीं दिखा पाती, पर नीतीश जी इस विधा के कुशल कलाकार हैं। पंद्रह साल राज करने के बाद भी लालू का डर दिखाने की उनकी क्षमता अक्षुण्ण है। उनके लिए राजनीतिक खतरा सिर्फ भाजपा हो सकती है, पर भाजपाई इस आशंका से डरे रहते हैं कि जदयू कहीं फिर से राजद के पास न चली जाए। बिहार में भाजपा डरी हुई है। इसलिए नहीं कि उसके सामने कोई खतरा है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की चुनाव में जीत और फिर से सरकार बनवाने में सबसे ज्यादा मदद और मेहनत तो तेजस्वी यादव ही कर रहे हैं।

राजद के परंपरागत मतदाता-यादव और मुसलमान बड़ी दुविधा में हैं

तेजस्वी को लगता है कि माता-पिता की धन-संपदा की ही तरह पार्टी भी उनकी पैतृक संपत्ति है। इसलिए वह उसे दोनों हाथों से लुटा रहे हैं। राजद के परंपरागत मतदाता-यादव और मुसलमान बड़ी दुविधा में हैं। उन्हेंं समझ में नहीं आ रहा है कि वे करें तो करें क्या? नया पुल बनाया नहीं और पुराना कब ढह जाएगा, कहना मुश्किल है। वैसे भी बिहार में आजकल पुल नदी पर बना हो या राजनीति में, बड़ी जल्दी-जल्दी गिर रहे हैं।

बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनाव हारने का डर नहीं, समस्या सीटों के बंटवारे के फॉर्मूले की है

किसी भी राज्य में और खासतौर से बिहार में पहली बार हो रहा है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनाव हारने का कोई डर नहीं है। समस्या केवल सीटों के बंटवारे के फॉर्मूले की है। सत्ता के बंटवारे का फॉर्मूला तो तय है। इसलिए सीट बंटवारे का फॉर्मूला प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। अब यह मानकर चलने में कोई हर्ज नहीं है कि जो काम तरुण गोगोई, शीला दीक्षित, डॉ. रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान नहीं कर पाए, वह नीतीश कुमार कर सकते हैं। उनकी तुलना अब आगे ज्योति बसु से ही होगी।

नीतीश कुमार के विजय रथ को भाजपा ही रोक सकती है

नीतीश कुमार के इस विजय रथ को भाजपा ही रोक सकती है, पर भाजपा बिहार नहीं बंगाल, असम और केरल की तरफ देख रही है। उस बड़ी लड़ाई के लिए वह बिहार की छोटी लड़ाई नीतीश कुमार से हारने के लिए तैयार बैठी है। बात केवल इतनी ही नहीं है। बिहार में भाजपा की समस्याएं और भी हैं। उसकी राज्य इकाई जदयू की बगलबच्चा बन गई है। 12 साल उप मुख्यमंत्री रहने के बावजूद सुशील मोदी नेता नहीं बन पाए। इसमें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का 24 साला योगदान है। राज्य भाजपा के किसी नेता को नीतीश कुमार के सामने खड़ा होने ही नहीं दिया गया। सारे मामले नीतीश कुमार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच तय होते रहे। आपसी विवाद होने पर राज्य इकाई के अस्तित्व को ही पार्टी नकारती रही। सो बिहार भाजपा नीतीश कुमार के सामने दंडवत हो गई।

भाजपा को अकेले लड़कर हारने का दर्द अभी गया नहीं

भाजपा की दूसरी समस्या है, साल 2015 के विधानसभा चुनाव की हार। अकेले लड़कर हारने का दर्द अभी गया नहीं है। उसी दर्द को याद करके पार्टी ने लोकसभा में जदयू को बराबर सीटें दे दीं। सीट बंटवारे में भाजपा को ज्यादा सीटें लेने की बात करने वालों से कहा गया कि यह मत भूलिए कि 2014 के बाद हम 2015 का चुनाव हारे भी हैं। क्या इसी तर्क से इस बार भाजपा को ज्यादा सीट नहीं लेना चाहिए? क्योंकि 2015 के बाद 2019 में वह शानदार तरीके से चुनाव जीती भी है, पर ऐसा कुछ होना नहीं है। बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में दोयम दर्जे की पार्टी बनी रहने के लिए भाजपा अभिशप्त है।

नीतीश और भाजपा बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत

कमजोर नीतीश कुमार और आत्मविश्वास की कमजोरी का शिकार बिहार भाजपा मिलकर बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत हैं। यह खुश होने की बात या दुखी होने की, आप तय करें। इन दिनों एक गीत-‘बंबई में का बा’ बड़ा लोकप्रिय हो रहा है। उसी तर्ज पर कहें तो बिहार में का बा, लालू के जंगल राज क अबहिंयो डर बा, नीतीश के विकास क भरम बा। बिहार में का बा, भाजपा के मन में कमजोरी क भरम बा। बिहार में का बा, विपक्ष खतम बा। बिहार में का बा, मतदाता क मरन बा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )