पटना, आलोक मिश्र। वर्तमान लोकतंत्र की असली तस्वीर देखनी हो तो बिहार चुनाव पर नजर डाल लीजिए। आमने-सामने की लड़ाई से पहले यहां आपस में ही तलवारें खिंची हैं, जो पहले चरण का नामांकन शुरू होने के बाद भी अभी तक म्यानों में नहीं गई हैं। जीतने से पहले सीटें छीनने की होड़ में अपने ही बेगाने बने हुए हैं। ऊपरी तौर पर सब ठीक है, का नारा और भीतर से मुंह फुलौव्वल जारी है। जनता बेचारी टकटकी लगाए दिल्ली और पटना की ओर ताक रही है कि कब आपसी एकता बनेगी और कब आमने-सामने की जंग शुरू होगी।

चुनाव से पहले तक एनडीए यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और महागठबंधन दोनों के ही पाले दुरुस्त दिखाई दे रहे थे। लेकिन चुनाव की घोषणा होते ही आपस में ही सिर-फुटौव्वल शुरू हो गया। सबकी अपनी-अपनी आकांक्षाएं हैं, जिससे पीछे हटने को कोई तैयार नहीं। एनडीए में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान उलझे समीकरण बने हुए हैं। कभी 143 सीटों पर लड़ने की बात करते हैं, तो कभी माने हुए नजर आते हैं। कभी 36 सीटें मिलने की बात सामने आती है तो कभी आंकड़ा 20 पर टिका नजर आता है। बहरहाल, उनका फूला मुंह अभी तक सामान्य होता नजर नहीं आ रहा। दिन भर उनके मानने की बात सामने आती है और रात में खबर लीक होती है कि चिराग 143 सीटों पर लड़ने के लिए सूची फाइनल कर रहे हैं। बहरहाल, चार दिन से सूची फाइनल हो रही है, लेकिन न अभी तक सूची बाहर आई है और न ही एनडीए से मिलने वाली सीटें ही सामने आई हैं।

नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच खटास दूर कर आपसी एकता बनाए रखने के लिए बेचारी भाजपा दिल्ली-पटना के चक्कर लगाने में ही हलकान है। एक सधता है तो दूसरा बिगड़ जाता है और दूसरा सधता है तो पहला छिटक जाता है। कभी सीटों की संख्या तो कभी मनचाही सीट न मिलने के कारण मामला उलझ जाता है।

इधर चुनाव की घोषणा से पहले महागठबंधन में आपसी एकता की सूत्रधार बनी घूम रही थी कांग्रेस। छोटे सहयोगी सीटों के लिए उसी का मुंह ताक रहे थे, लेकिन अब हाल यह है कि जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा सरीखे दल साथ छोड़ चुके हैं और पिछली बार 41 सीटों पर लड़ी कांग्रेस 72 से कम मानने को तैयार नहीं है, जबकि राजद 58 से ज्यादा सीट देने पर राजी नहीं। मामला अब सोनिया-लालू के दरबार में पहुंच गया है।

तीन दिन से कोई भी एक इंच न आगे बढ़ा है और न पीछे हटा है। इनकी लड़ाई देख जो भाकपा (माले) राजद की पसंद थी, महागठबंधन से अलग होने की घोषणा कर 30 सीटों पर लड़ने को तैयार बैठी है। आज सुलझ जाएगा, कल सुलझ जाएगा का राग यहां भी अलापा जा रहा है। बात करने पर चाहे राजद हो या कांग्रेस आपसी गठबंधन के प्रति आश्वस्त नजर आते हैं, लेकिन फार्मूला बहरहाल बनता नहीं दिख रहा। शुक्रवार को फिर हवा उड़ी कि कांग्रेस को 68 और वामपंथियों को (माले, सीपीआइए सीपीएम) को 30 सीट देने पर सहमति बन रही है।

बड़ों की इस लड़ाई के बीच हम यानी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा व वीआइपी यानी विकासशील इंसान पार्टी जैसे दलों की तरफ कोई देख ही नहीं रहा। बीच-बीच में वीआइपी के मुकेश सहनी 25 सीटों पर अपनी नाव तैरा देते हैं। हम का हाल यह है कि उसका कार्यकर्ता ही अपने नेता जीतन राम मांझी को अधिक उम्र का बता उनकी सीट पर अपना दावा ठोक रहा है। दोस्ती के बीच ठनी वक्ती दुश्मनी निचले स्तर तक पहुंच चुकी है। अधिकांश दल बिना सीट बंटवारे के ही अपने प्रत्याशी फाइनल कर रहे हैं।

एनडीए और महागठबंधन में चल रहे इस घटनाक्रम से इतर अन्य छोटे-छोटे दल, छोटे-छोटे गुटों में बदलते जा रहे हैं। रालोसपा, बसपा से हाथ मिला चुकी है और जनअधिकार पार्टी के राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव तकरीबन रोज किसी न किसी को अपने साथ मिला रहे हैं। उन्होंने भी अब अपना प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक एलायंस बना लिया है। उनकी निगाहें लोजपा पर भी टिकी हैं और रालोसपा पर भी। साथ लाने के लिए वे कोई भी घोषणा करने से परहेज नहीं कर रहे। वे चिराग व रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा, दोनों को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार ठहरा चुके हैं। इन सबसे अलग आम जनता राजनीतिक दलों की इस आपसी टकराहट पर टकटकी लगाए है।

स्थानीय संपादक, बिहार