[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: लोग अक्सर गांव से शहर इसलिए पलायन करते हैं कि वे वहां सुकून की जिंदगी बिता सकेंगे। उन्हें वहां सड़क, अस्पताल और बिजली आदि की सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन बरसात शहरों को नर्क बना दे रही है। सड़कों पर पानी भर जाता है, बिजली कट जाती है, आवागमन ठप हो जाता है, घरों में पानी भर जाता है। शहरों की यह दुर्गति वास्तव में हमारी ही बनाई हुई है। हमने बाढ़ से छुटकारा पाने के प्रयास में ऐसे काम किए हैं जिनसे बाढ़ की विभीषिका और बढ़ गई है। इन दिनों केरल की बाढ़ चर्चा में है। इसके पहले देश के दूसरे हिस्से बाढ़ के कारण चर्चा में थे। नदियों में बाढ़ का एक बड़ा कारण यह है कि हमने नदियों को खड़ी दीवारों के बीच में कैद कर लिया है जैसे लखनऊ में गोमती और मुंबई में मीठी नदी को।

सामान्य परिस्थिति में जब तक नदी का स्तर दीवारों से कम रहता है तब तक नदी पानी को बहा ले जाती है और शहर बाढ़ से प्रभावित नही होता, लेकिन जब बाढ़ ज्यादा तीव्र हो जाए तब नदी को फैलने की जगह ही नहीं मिलती। सामान्यत: नदी के किनारों में एक कोण होता है। यह काफी कुछ अंग्रेजी के वी अक्षर जैसा होता है। जैसे-जैसे नदी का जलस्तर बढ़ता है वैसे-वैसे नदी का क्षेत्रफल भी बढ़ता जाता है और नदी की पानी को बहा ले जाने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। हमने दीवार बनाकर नदी के पानी के फैलने के अवसर को कम कर दिया है। नदी का पानी जब दीवार से ऊपर उठता है तो वह चारों तरफ फैल जाता है जैसे कुछ दिन पूर्व मीठी नदी का पानी मुंबई के अगल-बगल के इलाकों में फैल गया था।

हमारी नीति है कि पहाड़ी क्षेत्र के पानी को टिहरी जैसी झीलों में रोक लिया जाए। भीमगोड़ा जैसे बैराज से बरसाती पानी को निकालकर सिंचाई के लिए उपयोग कर लिया जाए। इन कोशिशों का सीधा फायदा यह है कि सामान्य वर्ष में नदी में पानी कम हो जाता है और हमें बाढ़ से छुटकारा मिल जाता है, लेकिन इसी कार्य का दीर्घकाल में दुष्प्रभाव पड़ता है। कई वर्षों के सामान्य बहाव में नदी पहाड़ से गाद लाकर अपने मैदानी इलाके में जमा करती रहती है। फिर पांच-दस साल बाद एक महाबाढ़ आती है जिस समय ज्यादा बहाव होने से पिछले पांच-दस साल में जमा की गई गाद को नदी अपने साथ एक झटके में बहाकर समुद्र तक ले जाती है। इस महाबाढ़ से नदी का पेटा पुन: साफ हो जाता है और अगले पांच-दस वर्षों में बाढ़ कम आती है।

अब हमने टिहरी और भीमगोड़ा के माध्यम से महाबाढ़ को रोक लिया। इस प्रकार नदी की जिस गाद को स्वाभाविक रूप से समुद्र तक बहाकर ले जाने का जो कार्य था वह अब रुक गया है। अब हर वर्ष गाद नदी के पेटे में जमा होती रहती है। नदी के पेटे का तल बढ़ता जाता है और सामान्य वर्ष में भी बाढ़ विकराल रूप धारण कर लेती है। हर वर्ष महाबाढ़ जैसी परिस्थिति बन जाती है। यदि नदी का पेटा खाली हो गया होता तो जान-माल का नुकसान नही होता, लेकिन हमने महाबाढ़ को रोकने में नदी के पेटे को ऊंचा कर दिया और सामान्य बाढ़ को भी और भयावह बना दिया है।

नदियों के किनारे बंधे बनाने का भी ऐसा ही प्रभाव होता है। जब तक नदी में पानी सामान्य रहता है तब तक बंधे टिके रहते हैं और नदी का पानी नहीं उफनाता, लेकिन नदी ऊपर से लाई हुई गाद को बंधों के बीच में जमा करती रहती है। धीरे-धीरे नदी का पेटा ऊंचा होता जाता है और नदी आसपास की जमीन के ऊपर बहने लगती है। जब बारिश ज्यादा होती है तो बंधे टूट जाते हैं और नदी कहर बरपाती है। इस प्रकार मीठी नदी जैसी दीवारों, टिहरी जैसी झीलों, भीमगोड़ा जैसे बैराजों और बिहार के बंधों से हमने सामान्य बाढ़ पर कुछ हद तक ही काबू पाया है।

इस बीच हमने भारी वर्षा में नदी पर पड़ने वाले प्रभाव को नहीं समझा है। हमारी इसी अनदेखी के चलते बाढ़ और ज्यादा विनाशकारी साबित होती जा रही है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो चार-पांच वर्ष में हम किसी भी संभावित नुकसान को बचा लेते हैं, लेकिन उससे ज्यादा नुकसान बाढ़ वाले वर्ष में हो जाता है। सामान्य बाढ़ को रोकने का एक और आर्थिक नुकसान होता है।

आज देश के लगभग हर एक इलाके में भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। हम पानी निकाल ज्यादा रहे हैं, जबकि उसका पुनर्भरण यानी रीचार्ज कम हो रहा है। जब नदी का पानी सामान्य बाढ़ में फैलता था तो उससे भूमिगत जल का पुनर्भरण होता था। नदी को दीवारों, बांधों और बंधों के बीच में रोककर हमने उस जल के पुनर्भरण को रोक दिया है। जिस समय महाबाढ़ आती है उस समय निश्चित रूप से पानी का पुनर्भरण होता है, लेकिन एक वर्ष में बाढ़ के फैलाव से जो लाभ होता है वह कम होता है। मेरे एक मित्र के नवजात शिशु की छोटी बीमारी को रोकने के लिए डॉक्टरों ने ज्यादा कड़ी एंटीबायोटिक दवाएं दीं। गलत उपचार में बच्चे की मौत हो गई। इसी प्रकार गलत तरीका अपनाने से सामान्य बाढ़ को बचाने के चक्कर में हमने नदी को ज्यादा कड़ी दवाई दे दी है।

जरूरत है कि हम बाढ़ के सार्थक पक्ष विशेषकर भूमिगत जल के पुनर्भरण का सही आकलन करें और देखें कि इस लाभ की तुलना में नुकसान कितना हुआ है। नदियों के प्राकृतिक रूप के साथ छेड़छाड़ करने की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इन दिनों उत्तराखंड में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों पर विष्णुगाड पीपलकोटी और सिंगोली भटवाड़ी परियोजनाओं के विरोध में प्रख्यात पर्यावरणविद स्वामी सानंद आमरण अनशन पर बैठे हैं। ऐसे ही जो लोग शहरी जिंदगी को सुरक्षित रखना चाहते हैं उन्हें टिहरी जैसे बांधों को हटाने के लिए अनशन करने पर विचार करना चाहिए जिससे हमारी नदियां अपने नैसर्गिक रूप में प्रवाहमान हों और देश को बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाया जा सके।

वर्ष 1998 में मुझे गोरखपुर में आई बाढ़ का अध्ययन करने का अवसर मिला था। उस समय लोगों ने बताया था कि पूर्व में नदी का पानी लगभग हर वर्ष बाढ़ का रूप लेता था और खेतों के ऊपर एक पतली चादर की तरह बहता था। धान की ऐसी प्रजातियां थीं जो जलस्तर के साथ-साथ बढ़ती जाती थीं और उस बाढ़ में भी धान पैदा हो जाता था। बस्तियों को ऊंचे स्थानों पर बसाया जाता था जिससे बाढ़ में नुकसान न हो। हमें बाढ़ के साथ जीने की कला अपनानी होगी। शहरी नदियों को देवों से मुक्त करना होगा, वर्षा की निकासी को खोलना होगा। अन्यथा जिस प्रकार शिशु को छोटी बीमारी से छुटकारा देने के लिए कड़ी एंटीबायोटिक देकर उसकी मृत्यु हो गई उसी प्रकार छोटी बाढ़ से बचने के चक्कर में हम भयानक बाढ़ और बड़े नुकसान झेल रहे हैं।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]