लखनऊ, सद्गुरु शरण। कोरोनाकाल में जमातियों, प्रवासियों और नेताओं के बवाल खूब दिखे। इस दौरान क्या किसी ने किसानों द्वारा बवाल किए जाने की भी कोई खबर सुनी? आपका जवाब होगा, बिल्कुल नहीं। आखिर ऐसा क्यों? क्या कोरोना के कारण पैदा हुए हालात से किसानों को कोई दिक्कत नहीं हो रही? क्या किसानों को कोरोना संक्रमण का खतरा नहीं है? क्या उनके बच्चे दूसरे शहरों में नहीं फंसे हैं? क्या लॉकडाउन के कारण किसानों को कोई परेशानी नहीं हो रही? किसानों के सामने भी वे सारी कठिनाइयां हैं जिनका सामना शहरी लोग कर रहे हैं।

क्या किसी शहर से ऐसी कहानी सुनने को मिली? : इसके बावजूद किसान शांत इसलिए हैं, क्योंकि संकटकाल में धैयपूर्वक एकजुट, सहयोगी और सहकारी रहना गांवों की जीवनशैली है। जब कोरोना का संकट गहराया तो ग्रामीणों ने हर बात के लिए सरकार का इंतजार नहीं किया। उन्होंने प्रधानमंत्री के संबोधन सुने और उसके आधार पर खुद अपने लिए अनुशासन तय कर लिया। पूर्वांचल के एक गांव में एक विधवा का इकलौटा बेटा अकल्पनीय कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने घर के दरवाजे पहुंचता है। पिछले कुछ दिन में उसने इतने कष्ट झेले थे कि घर पहुंचते ही वह मां के गले लगकर खूब रो लेना चाहता था, पर यह क्या? उसकी अशिक्षित मां उसके लिए घर का दरवाजा रोककर खड़ी थी। उसने महीनों बाद घर लौटे बेटे को अंदर आने से रोक दिया। उसने बेटे को समझाया कि उसका इस तरह गांव-घर में आना खतरनाक है, इसलिए उसे 14 दिन गांव के बाहर स्कूल में क्वारंटाइन रहना पड़ेगा। मां के व्यवहार से हतप्रभ बेटे का कोई तर्क नहीं चला और अंतत: उसे क्वारंटाइन होना पड़ा। क्या किसी शहर से ऐसी कहानी सुनने को मिली?

किसानों ने पंचायत भवन में खुद क्वारंटाइन सेंटर स्थापित कर लिए : शहरों से कनिकाओं और शाहिदों जैसे पढ़े-लिखे लोगों के किस्से जरूर सुनने को मिले जो अपनी बीमारी छिपाए रहे और दूसरों के लिए खतरा बन गए। किसानों ने प्रशासन की पहल या मदद का इंतजार किए बगैर गांव के बाहर पाठशाला या पंचायत भवन में खुद क्वारंटाइन सेंटर स्थापित कर लिए और महीनों बाद बेहद बदहाली में परदेस से घर लौटे बेटों को क्वारंटाइन करवाया। जिन गांवों में विद्यालय या पंचायत भवन नहीं थे, वहां गांव के बाहर मचान या अन्य उपक्रम करके लोगों को क्वारंटाइन किया गया। ऐसा नहीं कि गांवों में सब कुछ फूलप्रूफ रहा, पर इससे शायद ही कोई असहमत हो कि लाखों की संख्या में परदेसी कामगारों के लौटने के बाद भी गांवों में कोरोना संक्रमण के हालात शहरों जैसे बेकाबू नहीं हुए। किसी गांव से कोई ऐसी खबर भी नहीं आई कि परदेस से लौटे किसी व्यक्ति को आवास या भोजन की कठिनाई हुई हो। प्रदेश के ग्राम्य जीवन में तमाम कठिनाइयां हैं, पर कठिनाइयों का मिल-जुलकर मुकाबला ग्रामीण जीवनशैली का सौंदर्य है। कोरोनाकाल में यह सौंदर्य निखरकर सामने आया है। सरकार और प्रशासन को कृतज्ञ होना चाहिए कि ग्रामीणों-किसानों ने बगैर कोई मांग या हो-हल्ला किए कोरोना पर नियंत्रण की मुहिम में सरकार का बढ़- चढ़कर साथ दिया। आबादी के अनुपात में देखा जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण की दर अपेक्षाकृत नियंत्रित है।

टेक्नोलॉजी के रथ पर भाजपा : टेक्नोलॉजी इस्तेमाल में भाजपा अन्य दलों के मुकाबले हमेशा आगे रही, पर कोरोनाकाल में पार्टी ने टेक्नोलॉजी के बल पर अपने प्रतिद्वंद्वी दलों को हतोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यूपी में पिछले दो-ढाई महीने के दौरान जब अन्य दलों की सक्रियता सिर्फ ट्विटर तक सीमित रह गई, पर भाजपा अपनी सारी सांगठनिक और सार्वजनिक गतिविधियां संचार टेक्नोलॉजी की मदद से बखूबी संचालित कर रही है। प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और संगठन महामंत्री सुनील बंसल लगभग रोज संगठन की किसी न किसी इकाई के साथ वीडियो सम्मेलन करते हैं। शुरू में हिचकिचाने वाले कार्यकर्ता अब इसके अभ्यस्त हो चले हैं। आंतरिक बैठकों के बाद अब पार्टी ने वर्चुअल रैलियां भी शुरू कर दी हैं। संचार की दुनिया में ऐसे एप उपलब्ध हैं जिन पर असीमित व्यक्ति जुड़ जाते हैं। ऐसे साधनों के बल पर भाजपा यूपी में क्षेत्रीय रैलियां कर रही है। जाहिर है सपा, बसपा और कांग्रेस के लिए यह नई चुनौती है।

छपास के बहाने ही सही : कोरोना संकट ने समाज के कई चेहरे बेनकाब किए, पर अच्छी बात यह है कि इस कठिन दौर में अधिकतर लोग एक-दूसरे की सहायता करने को लालायित दिखे। आगरा, कानपुर, लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी और गोरखपुर जैसे शहरों की बात की जाए तो इन शहरों में जरूरतमंदों की सहायता करने की होड़ लग गई। बेशक इनमें तमाम लोग ऐसे थे जिनका मुख्य मकसद अगले दिन अखबार में अपनी फोटो छपवाना था, पर इसके लिए उन्हें खाना-पानी की व्यवस्था तो करनी ही पड़ी। इससे उन परदेसी श्रमिकों को बहुत राहत मिली जो तमाम कठिनाइयों से गुजरते हुए इन शहरों तक पहुंचे।

[स्थानीय संपादक, लखनऊ]