[ आर विक्रम सिंह ]: बंगाल के चुनावों में प्रचंड बहुमत से विजयी तृणमूल कांग्रेस का वैचारिक आधार क्या है? अल्पसंख्यकवाद, बाहरी का विरोध, बंगाली अस्मिता के तर्क लोकतंत्र की आड़ लिए खड़े हैं। वहां सेकुलरिज्म की परिभाषा बांग्लादेशियों की पक्षधर तथा शेष भारत अर्थात बहिरोगतो की विरोधी है। भारतीयता के पक्षधर हिंसा और प्रताड़ना के निशाने पर हैं। आयातित सांप्रदायिक शक्तियां राष्ट्रीयता के विचार मात्र पर आक्रामक हैं। बंगाल की सांप्रदायिक समस्या को जातियों, संप्रदायों और इस्लामीकरण के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। पूर्वी बंगाल मुख्यत: राजबंसी, नमोशूद्र, चंडाल, कोच आदि जातियों का निवास रहा है। यद्यपि यह समाज दुर्गा पूजा की संस्कृति का वाहक रहा है, फिर भी हिंदू समाज के नियंताओं ने इन्हेंं शूद्र एवं पंचम वर्ण में ही स्थान दिया। कमजोर राजाओं द्वारा शासित यह इलाका सुल्तानों की सेनाओं के कब्जे में आ गया। फिर यहां बहुत से पीरों-फकीरों ने डेरा जमाया और हिंदू धर्म के प्रभावी स्पर्श से बाहर इस समाज में अपनी धार्मिक विधियों की स्वीकार्यता बढ़ानी प्रारंभ की।

मतांतरण का सिलसिला चैतन्य महाप्रभु के काल में रुका

मतांतरण का सिलसिला चैतन्य महाप्रभु के काल में ही रुका। रिचर्ड ईटन ने अपनी पुस्तक-राइज ऑफ इस्लाम एंड बंगाल फ्रंटियर में स्पष्ट किया है कि कर से आय बढ़ाने के लिए मुगल शासन में वनों को काट कर कृषि क्षेत्र की वृद्धि के फलस्वरूप आबादी में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई और बंगाल जैसे सीमांत प्रदेश में आबादी का धार्मिक अनुपात तेजी से बदलने लगा। परिणाम यह हुआ कि जहां दिल्ली से लेकर बिहार तक बलात मतांतरण के अभियानों के बावजूद मुस्लिम आबादी 12-15 प्रतिशत तक ही पहुंच सकी, वहीं बंगाल में यह अनुपात कहीं अधिक बढ़ गया। यही आगे चलकर पाकिस्तान बनने का कारण बना। 

प्लासी युद्ध के बाद विकसित हुआ भद्रलोक

1757 के प्लासी युद्ध के बाद विकसित हुआ भद्रलोक उन सवर्णों का वारिस है, जिनके पूर्वज पूर्वी बंगाल के तीव्र इस्लामीकरण के गवाह रहे। आज बंगाल में वही नमोशूद्र, राजबंसी, मतुआ समाज सांप्रदायिक हिंसा के निशाने पर हैं, जो मध्यकालीन दौर में इस्लामीकरण की लहरों का मुकाबला करते रहे। ब्रिटिश काल में हुए 1945-46 के चुनावों में जिन्ना ने पाकिस्तान को चुनावी मुद्दा बनाया। संयुक्त बंगाल के उन चुनावों में बंगाल एसेंबली में 119 मुस्लिम सीटों में से मुस्लिम लीग को 113 सीटें मिलीं, जबकि तीन पश्चिमी राज्यों पंजाब, सिंध और फ्रंटियर में बंगाल की तुलना में कम सीटें मिलीं। आजादी के अंतिम दौर में कुछ नेताओं ने, जिनमें बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री सुहरावर्दी और कांग्रेस के शरतचंद्र बोस मुख्य थे, वायसराय एवं ब्रिटिश सरकार के सम्मुख भारत से अलग आजाद बंगाल का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। ब्रिटिश सरकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति को भी भारत को दो नहीं, बल्कि तीन देशों में आजाद होने की संभावना से अवगत करा दिया था। आजादी के उस राष्ट्रवादी दौर में भी बंगाल के ये नेता भारत से अलग अपने अस्तित्व के बारे में सोच सकते थे, यह तथ्य असहज करने वाला है। पंजाब की तरह आबादी का स्पष्ट स्थानांतरण बंगाल में नहीं हुआ। हिंदू शरणार्थी तो लगातार आ रहे थे, लेकिन पाकिस्तान बनवाने वाले पूर्वी पाकिस्तान जाने के बजाय भारत के नागरिक बने रहे।

सत्ता का जुनून राष्ट्रीय हितों को नेपथ्य में धकेल देता है

सत्ता का जुनून अपने यहां राष्ट्रीय हितों को नेपथ्य में धकेल देता है। दुनिया में भारत के अलावा और कहीं भी लोकतंत्र का विकास इस प्रकार नहीं हुआ कि वह क्षेत्रीयताओं का हित साधने लगे। परिणामस्वरूप राज्य तो सशक्त हुए, लेकिन केंद्र गठबंधनों के हवाले होने लगा। भारत एक सशक्त राष्ट्र बनने की दिशा में चलना छोड़कर भांति-भांति के संवैधानिक प्रयोगों की भूमि बनने लगा। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के आगमन से क्षेत्रीयता को चुनौती मिलने लगी। तबसे क्षेत्रीय शक्तियों और केंद्र में संघर्ष की स्थितियां बन रही हैं। असम तो स्थानीय समीकरणों को ध्वस्त कर राष्ट्रीय भूमिका की दिशा में बढ़ गया, लेकिन बंगाल अपनी राष्ट्रीय भूमिका को तिलांजलि दे रहा है। राज्य की सांप्रदायिक पक्षधरता के विरुद्ध केंद्र की असहाय स्थिति कष्ट दे रही है। राज्यों में संवैधानिक संकट के समाधान हेतु जो अनुच्छेद 356 का प्रविधान था भी, वह न्यायिक निर्णयों के क्रम में निष्प्रभावी हो चुका है। संघीय ढांचे को इतना सशक्त कर दिया गया है कि राज्य के सम्मुख केंद्र असहाय हो जा रहा है। 

चुनावों बाद बंगाल में प्रायोजित हिंसा

यदि बंगाल का चुनाव दो राष्ट्रीय दलों में हुआ होता तो क्या सांप्रदायिक शक्तियों का खुला समर्थन, बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं की पक्षधरता, बंगाली बनाम बाहरी मुद्दा बन सकता था? क्या राष्ट्रीय दलों के लिए समग्र राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करना संभव होता? समस्या क्षेत्रीयता की है, जो बड़ी बेशर्मी से भारत गणराज्य के विरुद्ध खड़ी है। चुनावों बाद बंगाल में प्रायोजित हिंसा का जैसा वातावरण बना है, वैसा ही माहौल जनवरी 1990 में कश्मीर घाटी में बना था। वहां राज्य परोक्ष रूप से चरमपंथी तत्वों का पक्षधर था। सवाल है कि जब राज्य की सत्ता और प्रशासन स्वयं अपने नागरिकों के एक वर्ग को आतंकित कर रहे हिंसक हमलावरों का साथ दे तो विकल्प क्या है? कश्मीर में पंडितों के पलायन का आतंकी लक्ष्य पूर्ण होने के बाद ही स्थिति संभली। विकल्प न तो कश्मीर में था न ही बंगाल में है। यह हमारे संविधान और केंद्र की शक्तियों की सीमाएं हैं। प्रतीत हो रहा है कि हिंसा से जूझ रहे समाजों को अपनी सुरक्षा की तैयारी स्वयं करनी पड़ेगी।

बंगाल कट्टरवादियों की शरणस्थली

बांग्लादेश में कट्टरता के विरुद्ध कानूनों के प्रभाव से कितने ही आतंकियों को मृत्युदंड दिया जा चुका है और यहां बंगाल कट्टरवादियों की शरणस्थली बनता जा रहा है। इसी सांप्रदायिक वर्चस्व के लिए सीएए और एनआरसी का जबरदस्त विरोध किया गया। राष्ट्र विरोधियों को बर्दाश्त करते रहना समाधान नहीं है। राष्ट्रवादी शक्तियों के लिए क्षुद्र सत्ता आकांक्षियों के षड्यंत्रों को ध्वस्त करना आवश्यक है।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )