[ बद्री नारायण ]: बंगाल के इस बार के विधानसभा चुनाव हमारी बनी-बनाई अवधारणा पर पानी फेरने का काम कर रहे हैं। बंगाल चुनावों को लेकर जो खबरें आ रही हैं, उनसे कई लोग अचंभित हैं। यह अचंभा शायद दो कारणों से हो रहा है। एक तो हममें से कइयों के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि बंगाल में जहां पुनर्जागरण की प्रक्रिया संपन्न हो चुकी है, जहां वामपंथी संस्कृति का इतना प्रभाव रहा है और जहां तृणमूल कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता के दायरे में राजनीति की, वहां हिंदुत्व का ऐसा उभार देखने को मिलेगा। अचंभे का दूसरा कारण समाज के हाशिये के वे वर्ग हैं, जो भगवा रंग में रंगते दिख रहे हैं। आम तौर पर इन वर्गों को हम दलित, पिछड़े एवं जनजातीय समूहों के रूप में जानते हैं। ये लंबे समय से बंगाल में वामपंथी एवं कांग्रेसी संस्कृति के प्रभाव में रहे हैं, लेकिन अब उनकी सोच बदल रही है। वस्तुत: बंगाल की राजनीति में हिंदुत्व का प्रभाव तब महसूस हुआ, जब चुनावी राजनीति में भाजपा का बढ़ता असर साफ दिखाई देने लगा। दरअसल चुनाव तो इसका एकमात्र लक्षण है। इसका प्रसार आधार तल पर पहले ही होने लगा था।

संघ बंगाल में कई दशकों से बिना किसी शोरगुल के अपना प्रसार कर रहा था

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले कई दशकों से चुपचाप बिना किसी शोरगुल के बंगाल के समाज के केंद्र से अलग परिधियों में अपना प्रसार कर रहा था। उसे पता था कि बंगाल के भ्रदलोक तक नीचे से चलकर पहुंचा जा सकता है। इसीलिए कोलकाता से दूर-दूरस्थ बंगाल और खासकर बांग्लादेश की सीमा पर बसे गांवों, बंगाल के जंगल-झाड़ के क्षेत्रों तथा समुद्री किनारों पर बसे मछुआरों के बीच उसने अपना सेवा कार्य काफी पहले से ही शुरू कर दिया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से तो नहीं, किंतु कई अलग-अलग नामों से संघ के अनेक संगठन इन क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। सीमा पर बसे गांवों में काम करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक अलहदा संगठन है, जिसे सीमा जागरण मंच के नाम से जानते हैं। वनवासी कल्याण केंद्र तथा अन्य संघ समर्थित संगठनों के कार्यों से अनेक लघु समूहों एवं सीमांत के सामाजिक समुदायों में हिंदुत्व की चेतना का प्रसार काफी पहले ही होने लगा था। बंगाल के कई पत्रकार इन प्रक्रियाओं को कभी-कभी देख तो रहे थे, किंतु इसके प्रसार की गति का अनुमान उनमें से शायद ही किसी को रहा हो। जैसा कि प्राय: होता है कि चुनावी जनतंत्र कई बार ढकी-छुपी चल रही प्रक्रियाओं को उभार देता है। इस बार भी ऐसा ही होता दिख रहा है।

बंगाल में हिंदुत्व का बढ़ता प्रभाव

बंगाल में सामाजिक तल पर हो रहे परिवर्तनों को भाजपा की चुनावी गोलबंदियों ने जय श्री राम के उद्घोष में बदल दिया है। इसे हम ‘सामाजिक भाव’ में परिवर्तन मान सकते हैं। यहां यह जिक्र करने की जरूरत है कि बंगाल में भाजपा के प्रमुख दिलीप घोष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं। इस प्रकार सहज ही बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों और भाजपा के प्रसार के अंत:संबंधों को समझा जा सकता है। बंगाल में हाशिये के सामाजिक समूहों में हिंदुत्व का बढ़ता प्रभाव कई राजनीतिक-चुनावी विशेषज्ञों को चकित कर रहा है। बंगाल के इस चुनाव में वहां के मतुआ समुदाय को खुद से जोड़ने के लिए भाजपा के प्रयासों पर भी चर्चा जारी है। मतुआ को नामशूद्र भी कहा जाता है। न केवल मतुआ, बल्कि राजवंशियों के एक बड़े धड़े में भी हिंदुत्व के प्रति झुकाव देखा जा रहा है।

संघ के लंबे समय से सेवा कार्य अनुसूचित जाति के विभिन्न समुदायों में चल रहे हैं

वस्तुत: लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक उप संगठनों के सेवा कार्य अनुसूचित जाति के विभिन्न समुदायों में चल रहे हैं। प्राय: दलित, गरीब, आदिवासी शब्द सामने आते ही हम उनमें प्रतिरोधी, विद्रोही या फिर धर्मनिरपेक्ष तत्वों को खोजने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि वे भी हमारे समाज के अन्य तबकों की तरह ही धार्मिक आकांक्षा, सम्मान, सहयोग की चाह से भरे होते हैं। खोना-पाना एवं लाभ-हानि का हिसाब-किताब उन्हेंं भी समझ आता है। उनमें भी जनतंत्र एवं विकास के भाव ने नई चाह पैदा की है। बंगाल के नाम शूद्र समुदाय को पूर्ण नागरिकता भी चाहिए। उनके धर्म स्थानों एवं उनके देवताओं को महत्व भी चाहिए। उन्हेंं राजनीति एवं सत्ता में हिस्सेदारी तो चाहिए ही, हिंदू के रूप में अगर उन्हेंं सामाजिक सम्मान दिया जाता है तो वह उन्हेंं प्रीतिकर ही लगता है। संघ के सेवा कार्य यथा स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य कैंपों के लाभ उन्हेंं समझ में आते हैं।

हिंदुत्व की चेतना बंगाल में उभार पर

जनतंत्र प्रतिद्वंद्विताएं पैदा करता है। संभव है ये प्रतिद्वंद्विताएं हाशिये के समूहों की एक पक्षीय गोलबंदी न होने दें, किंतु उनका बहुलांश जिधर भी जाएगा, चुनाव में विजय का रथ उधर ही मुड़ सकता है। बंगाल चुनाव के इन आश्चर्यों के बारे में अगर विचार करें तो हिंदुत्व की गोलबंदी और राजनीति की ये परियोजनाएं हिंदी क्षेत्र के अन्य राज्यों में पहले से चल रही हैं। इनका चुनावी असर भी देखा जाता रहा है, किंतु बंगाल में यह सब होना शायद कइयों को एक असंभव के संभव होने जैसा लग रहा है, लेकिन ये असंभव बंगाल के समाज में दशकों से धीरे-धीरे घटित हो रहे थे। बंगाल के भद्रलोक प्रभावित राजनीतिक विमर्श में जो जातियां मुखर नहीं रहीं, वे अब मुखर हो चली हैं। बंगाल का मध्यवर्ग जिसे प्रगतिशील माना जाता रहा है, उसका भी एक तबका विभिन्न कारणों से भाजपा के प्रभाव में है। एक प्रखर हिंदुत्व की चेतना बंगाल में उभार पर है। जैसे उत्तर प्रदेश में गैर मुस्लिम समुदायों की एक महागोलबंदी पिछले चुनावों में हुई थी, वैसी ही गोलबंदी कुछ खास अर्थों में बंगाल में भी होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। अब थोड़े ही दिन बचे हैं। देखना है कि हिंदुत्व की चेतना इन चुनावों में क्या गुल खिलाती है?

( लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )