ब्रजबिहारी। West Bengal Assembly Election 2021 अपने देश में साम्यवादी विचारधारा वाली कम्युनिस्ट पार्टयिों के किसी भी कार्यालय में शायद ही आपको महात्मा गांधी की तस्वीर मिले। मार्क्‍स के साथ वहां रूस के लेनिन और स्टानिल के साथ वेनेजुएला के चे ग्वेरा की बड़े-बड़े फोटो टंगी मिल जाएंगी। इतिहास गवाह है कि कम्युनिस्टों ने वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। बहरहाल, यह न तो 1942 है और न ही कम्युनिस्ट अब वैसे रह गए हैं। इसलिए उनको महात्मा गांधी अच्छे लगने लगे हैं। खासकर पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का मुकाबला करने के लिए उन्हें गांधी के रूप में एक ऐसा हथियार मिल गया है, जिसे वे चला सकते हैं।

दरअसल, लेनिन और स्टालिन के नाम पर वोट मांगने के दिन लद चुके हैं। खुद उनके ही देश में उनका कोई पुरसाहाल नहीं है तो भारतीय राजनीति में उन्हें कौन पूछेगा। बंगाल में ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्या और केरल में एके गोपालन और ईएमएस नंबूदरीपाद सरीखे बड़े नेताओं के नाम तो हैं, लेकिन कोई महामानव उनके पास नहीं है, जिसके सहारे वे भारतीय जनता पार्टी जैसे मजबूत विरोधी का सामना कर सकें। इसलिए, मुसीबत में उन्हें गांधी की याद आ रही है। उन्हें समझ में आया है कि गांधी जी के अंदर जनता को गोलबंद करने वाले मुद्दों को पहचानने की अद्भुत शक्ति थी। वे अपने काडर को दांडी मार्च के जरिये यह समझाते हैं कि कैसे नमक ने गरीब और निहत्थे भारतीयों को अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दुर्दमनीय ताक के आगे खड़ा कर दिया था।

कम्युनिस्टों ने कभी जिस गांधी को बुर्जुआ कहकर खारिज कर दिया था, अब उसी गांधी को गले लगाया जा रहा है, लेकिन कम्युनिस्टों को याद रखना चाहिए कि खुद गांधी उनकी विचारधारा के सख्त खिलाफ थे। अपनी पुस्तक मेरा जीवन ही मेरा संदेश है में उन्होंने विस्तार से कम्युनिस्टों के प्रति अपनी अरुचि का उल्लेख किया है। हालांकि गांधी तो अपने विरोधियों को भी गले लगाने के लिए तैयार रहते थे, इसलिए अछूत तो उनके लिए कोई नहीं था, लेकिन कम्युनिस्टों के लक्ष्य हासिल करने के हिंसक तौर-तरीकों से वे तनिक भी सहमत नहीं थे। वे स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि लक्ष्य कितना ही महान क्यों न हो, उसे प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने वालों का वे कभी साथ नहीं दे सकते। असत्य और हिंसा के जरिये स्थायी शांति स्थापित नहीं की जा सकती है। इस पुस्तक में साम्यवाद पर चर्चा करते हुए गांधी जी कहते हैं कि समाज में गैर-बराबरी है, लेकिन इसे खत्म करने के लिए हिंसा का रास्ता चुनना सही विकल्प नहीं है। यह अहिंसक रास्ते से ही हो सकता है।

गांधी के अनुसार पश्चिम का साम्यवाद और समाजवाद जिन अवधारणाओं पर आधारित हैं, वे हमसे अलग हैं। पश्चिम मनुष्य को मूलरूप से स्वार्थी मानता है, जबकि पूर्व यानी भारतीय विचारधारा इंसान की अच्छाई में विश्वास करती है। मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज पर ऐसे काम कर गुजरता है जो अकल्पनीय और अविश्वसनीय होते हैं। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है। इसी एक गुण के कारण हम जानवरों से अलग हैं। उत्साह, आवेश, उत्कंठा और उससे पैदा होने वाले मनोभाव हमारे अंदर जुनून पैदा करते हैं। जानवरों में भी आवेग होता है, लेकिन वह उनके निजी स्वार्थ तक सीमित होता है। महात्मा गांधी के शब्दों में, यही वजह है कि हमारे ऋषियों और संतों ने आत्मा के रहस्य को जानने के लिए अपने शरीर को असीम कष्ट दिए और प्राणों का उत्सर्ग भी कर दिया, किंतु पश्चिम की तरह हमारे यहां एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसने धरती के सुदूर व शीर्ष स्थानों की खोज में अपनी जान गंवाई हो। इसलिए हमारा साम्यवाद या समाजवाद अहिंसा व सहकार पर आधारित होना चाहिए।

विदेशी विचारधारा, विदेशी किताब और विदेशी नेताओं के नाम पर राजनीति कर रहे कम्युनिस्ट आज भले ही वोटरों को लुभाने के लिए बंगाल और केरल के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ गांधी का इस्तेमाल कर रहे हैं और उन्हें सेकुलरिज्म के चैंपियन के तौर पर पेश कर रहे हैं, लेकिन यह सब दिखावा है, क्योंकि कम्युनिस्ट कभी भारत को समझ ही नहीं पाए। उन्होंने हमेशा इस देश को विदेशी चश्मे से देखा। जातियों और उपजातियों से भरे इस देश को वे वर्गो में बांटकर समझते रहे। धर्म (रिलीजन नहीं) को सर्वोच्च मानने वाले समाज को वे नास्तिक बनाने में जुटे रहे। नतीजा क्या हुआ, यह सबके सामने हैं। अगर कम्युनिस्ट इस देश को ठीक से समझ पाए होते तो उनकी यह दुर्गति नहीं होती कि अब सिर्फ केरल में सत्ता बची है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वह भी कितने दिन बचती है। अब्बास सिद्दीकी जैसों से गठबंधन करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब केरल में भी उनकी जड़ें उखड़ जाएंगी।

आखिर क्या कारण है कि वर्ष 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों का न सिर्फ लगातार विस्तार होता रहा, बल्कि उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ती जा रही है, जबकि उसी साल कांग्रेस से अलग होकर जन्मी भारतीय कम्यनिस्ट पार्टी और फिर उससे टूटकर 1964 में बनी मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी लगातार सिकुड़ती जा रही है। एक समय में बंगाल और केरल के अलावा त्रिपुरा में उनकी सरकार थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह की 1989 की गठबंधन सरकार में उनकी अहम भूमिका थी, लेकिन उसके बाद उपलब्धि के नाम पर उसके पास सिफर के अलावा कुछ नहीं है। महात्मा गांधी का नाम जपने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। कम्युनिस्ट पार्टियों को पहले भारत और उसकी आत्मा को समझना होगा।