[ आशुतोष झा ]: अब जबकि आधे से ज्यादा सीटों पर मतदान समाप्त हो गया है तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान लोकसभा चुनाव हाल के इतिहास में शायद सबसे तीखे चुनाव साबित होने जा रहे हैैं। आम चुनावों का नतीजा कई दलों का अस्तित्व तय करेगा और कईयों की दिशा, लेकिन फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि चुनाव प्रक्रिया विवादों से कब बाहर निकलेगी? स्वतंत्रता के बाद 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव होने जा रहा है और आज एक तरफ जहां पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा हो रही है वहीं दूसरी तरफ कुछ राजनीतिक दल एवं नेता जांची-परखी ईवीएम पर सवाल उठा रहे हैैं। क्या इस सबकी इजाजत दी जानी चाहिए?

ईवीएम पर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हर विधानसभा में एक के बजाय पांच बूथ पर ईवीएम और वीवीपैट का मिलान किया जाए ताकि किसी को कोई संशय न रहे कि किसी तरह की गड़बड़ी हुई है। इसके कारण इस बार नतीजे आने में थोड़ी देर हो सकती है, लेकिन भरोसा पैदा करने के लिए यह जरूरी है। मुश्किल यह है कि इस पर भी कुछ विपक्षी दल सहमत नहीं। कुछ तो ईवीएम को बदनाम करने में जुटे हैैं। वे ऐसे आरोप तो लगाते हैैं कि कोई भी बटन दबाओ, वोट भाजपा को जाता है, लेकिन इसके पक्ष में सुबूत देने से इन्कार करते हैैं। कहना कठिन है कि चुनाव आयोग ईवीएम को बदनाम करने के अभियान से कैसे निपटेगा? वैसे उसके सामने एक अन्य चुनौती आचार संहिता के उल्लंघन की भी है। यह चुनौती सबसे अधिक पश्चिम बंगाल में देखने को मिल रही है।

अभी हाल में चुनाव आयोग की ओर से पश्चिम बंगाल में नियुक्त विशेष पर्यवेक्षक अजय नायक ने कहा कि बंगाल दस पंद्रह साल पहले वाले बिहार की याद दिलाता है। इसका मतलब है कि वहां मतदाताओं को डराने-धमकाने और फर्जी वोट डालने-डलवाने का काम होता है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह बयान पसंद नहीं आया और उन्होंने चुनाव आयोग से कहा कि नायक को हटाया जाए। उनकी नाराजगी अपनी जगह है, लेकिन क्या वह यह बता सकती हैं कि नायक ने जो कुछ कहा उसमें क्या गलत था? क्या यह सच नहीं है कि आज के दिन पश्चिम बंगाल अकेला ऐसा राज्य है जहां वोटर तो दूर, चुनाव कर्मचारी भी डरे हुए हैं। क्या किसी राज्य सरकार के लिए यह शर्म की बात नहीं कि चुनाव कर्मचारी प्रदर्शन कर कहें कि जब तक केंद्रीय सुरक्षाबल नहीं दिए जाएंगे वे चुनावी ड्यूटी पर नहीं जाएंगे? बंगाल में ऐसी मांग कई स्थानों पर की गई। ये चुनाव अधिकारी और कर्मचारी स्थानीय निवासी हैं, फिर भी उन्हें स्थानीय पुलिस पर भरोसा नहीं।

क्या यह संदेह अतार्किक है कि स्थानीय पुलिस बल और नौकरशाही सत्ता के सामने बेबस है? डेढ़ दो महीने पहले कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के मामले में जो हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। समझना कठिन है कि प्रदेश सरकार ने सारधा और रोजवैली चिटफंड घोटाले की जांच में छेड़छाड़ के आरोपी राजीव कुमार के साथ खड़े होना जरूरी क्योें समझा? उन्हें सीबीआइ की पूछताछ से बचाने की कोशिश में मुख्यमंत्री तक ने तीन दिन तक धरना दिया।

बंगाल में केंद्रीय सुरक्षाबलों की तैनाती के बाद तृणमूल कांग्रेस की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि वे बूथ के अंदर घुस रहे हैं और भाजपा को वोट देने के लिए दबाव बना रहे हैं। इन आरोपों पर यकीन करना कठिन है, क्योंकि वहां से खबरें तो यही आ रही हैैं कि तृणमूल कार्यकर्ताओं की मनमानी से अन्य दलों के कार्यकर्ता और समर्थक त्रस्त हैैं। कहीं-कहीं तो विरोधी दलों के प्रत्याशी भी परेशान हैैं।

पश्चिम बंगाल में मत फीसद भी कुछ कहता है। वहां 75 से 82 फीसद तक मतदान होता आ रहा है। एक तरफ अपनी सुरक्षा को लेकर डरे हुए चुनाव कर्मी और दूसरी ओर भारी मतदान। क्या यह विरोधाभासी नहीं है? सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के नेता लोगों को ऐसी सीधी धमकी दे रहे हैैं कि अगर वोट नहीं दिया तो सरकार की ओर से मिल रही सारी सुविधाएं खत्म कर दी जाएंगी। याद रहे कि लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज से बंगाल तीसरा सबसे बड़ा राज्य है और अगर वहां चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता स्थापित नहीं हुई तो परिणाम खतरनाक होगा। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है।

आजादी के पहले सबसे अधिक जागरूक रहने वाले बंगाल का यह दुर्भाग्य है कि वहां दशकों से यही हो रहा है। एक तरह से यह राजनीतिक विरासत के रूप में सत्ताधारी दल को मिलता आ रहा है। पहले जो काम वामपंथी दल करते थे वही अब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैैं। यही कारण है कि प्रदेश का बड़ा युवा वर्ग भी राजनीति को एक रोजगार की तरह देखने लगा है। वह चुनाव को रोजी-रोटी का साधन मान बैठा है। बंगाल में जिसे ‘क्लब कल्चर’ कहते हैं वही राजनीति का हथियार बनता जा रहा है।

एक आंदोलन की शक्ल में आईं ममता बनर्जी अगर इस राजनीतिक संस्कृति को खत्म करने के कदम उठातीं तो उनका कद बढ़ता, लेकिन अफसोस कि ऐसा हुआ नहीं। सभी को याद होगा कि पिछले साल हुए पंचायत चुनाव में सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों के खिलाफ किस तरह लगभग एक तिहाई सीटों पर कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं उतरा। जहां उतरा वहां मतपेटियां लूट ली गईं या फिर तालाबों में फेंक दी गईं। क्या इसी वजह से यह मांग होती है कि चुनाव ईवीएम से नहीं बैलट पेपर से कराए जाएं? आश्चर्य की बात यह है कि पश्चिम बंगाल से ऐसी खबरों का प्रसार भी बाधित होता है।

बंगाल जैसी स्थिति केरल की भी है। इन दोनों राज्यों से राजनीतिक दलों की मनमानी और राजनीतिर्क ंहसा की खबरें मुश्किल से ही सुर्खियां बनती हैैं। पश्चिम बंगाल में साफ-सुथरे चुनाव कराने में आ रही बाधा के चलते चुनाव आयोग के सामने खुद को साबित करने की चुनौती है। क्या उसके लिए यह रोना रोना उचित है कि उसके पास पर्याप्त अधिकार नहीं है? क्या चुनाव में निष्पक्षता और भयमुक्त वातावरण सुनिश्चित करने के लिए उसे आलोचना के भय से मुक्त होकर काम नहीं करना चाहिए?

आखिर ऐसा क्यों है कि 70 साल के चुनाव आयोग के इतिहास में आज भी टीएन शेषन, लिंगदोह और उनके प्रतिनिधि केजे राव के बाद कोई नाम लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ पाया है? टीएन शेषन और लिंगदोह के पास भी उतनी ही शक्ति थी जितनी आज के चुनाव आयुक्त के पास है, लेकिन उनकी वैसी धमक नहीं दिख रही है जैसी दिखनी चाहिए। ऐसा क्यों है, इस पर चुनाव आयोग को विचार करना चाहिए।

( लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं )