विवेक कौल। देश की पहली महिला वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपना पहला बजट पेश करते हुए जो लेखा-जोखा सामने रखा उसके अनुसार सरकार 2019-20 में 27.86 लाख करोड़ रुपये खर्च करना चाहती है, लेकिन इस साल सरकार की कुल कमाई 20.82 लाख करोड़ रुपये रहने की ही उम्मीद है।

इसका मतलब यह हुआ कि सरकार का राजकोषीय घाटा करीब 7.04 लाख करोड़ रुपये यानी सकल घरेलू उत्पाद का 3.3 प्रतिशत रहेगा। सरकार की कमाई और खर्च के बीच का अंतर ही राजकोषीय घाटा है। ऊपरी तौर पर देखें तो 3.3 प्रतिशत का राजकोषीय घाटा सीमित दिखाई देता है, लेकिन जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, द डेविल इज इन द डिटेल तो इस वर्ष सरकार जितना टैक्स जुटाना चाहती है उससे यही लगता है कि वह कुछ ज्यादा ही आशान्वित है।

सरकार की उम्मीदेंं
इस साल सरकार आयकर से 5.69 लाख करोड़ रुपये जुटाने की आशा रखती है। यह पिछले वित्त वर्ष से 23.3 प्रतिशत अधिक है। सरकार इस साल तीन लाख करोड़ रुपये केंद्रीय उत्पाद शुल्क से जुटाने की उम्मीद कर रही है। यह भी पिछले साल से करीब 30 फीसद अधिक है। सीमा शुल्क से 1,55,904 करोड़ रुपये जुटाने की उम्मीद की गई है, लेकिन यह बीते बरस से करीब 32.2 फीसद ज्यादा है। सरकार को कंपनी कर और GST में करीब 15 प्रतिशत वृद्धि की उम्मीद है। इस उम्मीद के बीच इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि इस वित्त वर्ष की शुरुआत कुछ कमजोर रही है।

दोपहिया वाहनों और ट्रैक्टरों की बिक्री
अगर कारों, दोपहिया वाहनों और ट्रैक्टरों की बिक्री जैसे संकेतकों को देखें तो लगता है कि अर्थव्यवस्था पिछले साल से और भी ज्यादा कमजोर पड़ गई है। ऐसे में इन करों में सरकार के मन मुताबिक वृद्धि काफी मुश्किल लगती है। सरकार इस साल विनिवेश से 1.05 लाख करोड़ जुटाएगी। यह पिछले साल से करीब 31.3 फीसद अधिक है।

राष्ट्रीय निवेश कोष 
देखना यह है कि सरकार असल विनिवेश करती है या फिर एक सरकारी कंपनी को दूसरी सरकारी कंपनी को बेचती है? जनवरी 2018 में ओएनजीसी ने एचपीसीएल को 36,915 करोड़ रुपये देकर खरीदा। इसके लिए कंपनी को करीब 25,000 करोड़ रुपये उधार लेना पड़ा था। ऐसे विनिवेश का कोई अर्थ नहीं। असली विनिवेश तब होगा जब सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी कंपनियों को बेचेगी, लेकिन पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा होता नहीं दिखता। इसके बावजूद विनिवेश की प्रक्रिया में एक अच्छी चीज यह हुई है कि सरकार ने राष्ट्रीय निवेश कोष बनाने की बात की है। विनिवेश से जो पैसा आएगा वह इस कोष में जाएगा और उसका इस्तेमाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों पर खर्च करने के अलावा रेलवे में पूंजीगत व्यय के निवेश के लिए किया जाएगा।

श्रम कानून में सुधार की पहल
सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्यमों में 51 फीसद हिस्सेदारी की मौजूदा नीति को बदला जाएगा। अगर सरकार सही मायने में अपनी हिस्सेदारी निजी क्षेत्र को बेचती है तो यह एक अच्छा कदम होगा, लेकिन यदि इस बदलाव का इस्तेमाल भारतीय जीवन बीमा निगम को अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए करती है तो यह इस बदलाव का गलत इस्तेमाल होगा। जो भी हो, यह अच्छी बात है कि वित्त मंत्री ने श्रम कानून में सुधार की पहल की। यह जरूरी था। अपने यहां केंद्रीय सरकार के स्तर पर करीब 44 श्रम कानून हैं। अगर राज्यों के स्तर के श्रम कानूनों को गिना जाए तो करीब 200 श्रम कानून और हैं। इतने सारे श्रम कानून होने से कारोबारी एक स्तर के बाद और बड़े होने की कोशिश छोड़ देते है।

सरकार पर मजदूर संगठनों का दबाव
यही वजह है कि विनिर्माण कंपनियों में या तो 50 से कम लोग होते हैं या फिर 200 से अधिक। मोदी सरकार यह चाह रही है कि केंद्रीय श्रम कानूनों को चार श्रम कोड के एक सेट में डाल दिया जाए। यह एक अच्छा प्रस्ताव है, पर देखना यही है कि ऐसा हो पाता है या नहीं? ध्यान रहे कि 2015 में भी मोदी सरकार ऐसा कुछ करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन मजदूर संगठनों के दबाव में आगे नहीं बढ़ पाई। देश में रोजगार पैदा करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हैं। किसी भी देश में रोजगार तब पैदा होते हैं जब लघु उद्योग बड़े होते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हाल
सरकार ने इस साल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये के निवेश का निर्णय लिया है। पिछले दो सालों में सरकार इन बैंकों में करीब 2.06 लाख करोड़ रुपये डाल चुकी है। आखिर सरकार कब तक इन बैंकों में करदाताओं की कमाई डालती रहेगी? जरूरत तो यह है कि इन बैंकों में सरकार अपनी हिस्सेदारी 50 फीसद से कम करने को तैयार हो। इससे बैंक बाजार से पैसा उठा सकेंगे और करदाताओं का पैसा अधिक अहम कार्यों में लगाया जा सकेगा। वित्तमंत्री के पास अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक सुधार लाने का अच्छा मौका था जो उन्होंने लगभग गंवा दिया।


(इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक अर्थशास्त्री एवं स्तंभकार हैं)