[ गोपाल कृष्ण गांधी ]: भीख। भिक्षा। दो शब्द, एक अर्थ। फिर भी कितना फर्क! भिखारी। भिक्षु। फिर वही बात! दो नाम, दो संज्ञाएं। मतलब एक ही, लेकिन एक तिरस्कार पाता है, दूसरा आदर। भारत में बौद्ध भिक्षुओं की संख्या नगण्य है। गया, सांची में, पूर्वोत्तर में सिक्किम, दार्जीलिंग, कलिमपोंग में दिख जाएंगे और पुनीतात्मा दलाई लामा की धर्मशाला में भी, लेकिन साधारणत: वैसे नहीं। पर जब और जहां भी दिखेंगे, भिक्षु आदर पाएंगे, सत्कार भी। और... औपचारिक भिक्षा तो अवश्य ही। किसी दुकान के सामने भिक्षु खड़ा हो तो उसे कुछ न कुछ दिए बिना दुकानदार नहीं रहेगा। भिखारी की बात कुछ और होती है।

भिखारी को घृणा से देखा जाता है

भिखारी जब हाथ में टूटे टीन का डिब्बा लिए दो-चार सिक्के ठनठनाता सामने आता है तो वह घृणा से देखा जाता है। भिखारी से हम दूर रहना चाहेंगे। अगर हम साइकिल, मोटरसाइकिल या फिर मोटर गाड़ी में सवार हैं और सड़क की लाल बत्ती पर रुके हुए हैं तो दो खयाल आए बिना नहीं रहते हैं। कब बत्ती लाल से हरी होगी? और सामने भिखारी जो है, वह आगे वाली गाड़ियों से ही चिपका रहे। मुझ तक न पहुंचे..। और जब वह आ जाता है, बिल्कुल करीब, बिल्कुल सामने और कहता है-रहम करें साहिब, बच्चे भूखे हैं...तेरे बच्चे फलें-फूलें... तो...उफ्फ! कुछ न कुछ देना ही पड़ता है और फिर इस बात का खयाल रखते हुए कि सिक्का टिन में डालते-डालते अंगुली उसकी अंगुलियों को न लगे।

भिखारी को आते देखकर दानियों के खुल जाते हैं हाथ, धनवान के नहीं

इतना जरूर है कि हममें कई ऐसे भी हैं जो खुले दिल से बटुआ खोलकर सिक्के क्या, नोट तक डाल देते हैं, भिखारी के हाथ में। ऐसी बात नहीं कि ऐसे लोग धनवान होते हैं। नहीं, वे दानी होते हैं। धनवान लोग जो एसी गाड़ियों में बैठे होते हैं, वे बाज दफे खिड़की खोलते तक नहीं हैं, भिखारी को आते देखकर। वे अपने मोबाइल फोन पर और भी गंभीरता से बात करने लग जाते हैं। एक वजह तो यह होती है कि ऐसे साहिबों की जेबों में डेबिट, क्रेडिट कार्ड होते हैं, रुपये, सिक्के नहीं। पर असली वजह तो यही होती है कि कौन जेब से बटुआ निकालकर नोट देने की जहमत उठाए। और यह वर्ग ये तर्क भी रखे हुए है कि भिखारी लोग तकदीर के मारे नहीं, आदत के मारे हैं। काम नहीं करना चाहते और फिर वे आजाद नहीं... कोई दबंग, गुंडा या माफिया उनको इस काम पर लगाए हुए है। इनकी कमाई को वह उठा लेता है।

जब भिखारी पर आई दया

इस खयाल में सत्य भी है, लेकिन इस सत्य से ज्यादा आलस है। मैंने यह भी देखा है कि साहिब भिखारी से आंख नहीं मिला रहे हैं और उनका ड्राइवर रहम करते हुए भिखारी को कुछ कम-ज्यादा दे देता है। गरीबी की अपनी रस्में होती हैं, अपना रसायन। अमीरी की अपनी रस्में, अपना रसायन। मैं अपनी खुद की बात पर आता हूं। मेरी गिनती गाड़ीनुमा, ड्राइवरनुमा लोगों में है। कुछ साल पहले की, दिल्ली की बात है। जनवरी का महीना था। सूरज ढल चुका था। मैं दफ्तर से घर जाते हुए गाड़ी में सवार था। घर पहुंचने ही वाला था कि अंधेरे में एक लड़का दिखा। आठ-नौ साल का। जिस्म में कमीज नहीं। सख्त ठंड में ठिठुर रहा था। मैंने ड्राइवर को रुकने को कहा। खिड़की उठाकर पूछा- बच्चा, इस सर्दी में, रात को... यूं? वह कुछ बोला नहीं, दांतों को पीसता हुआ ठिठुरता रहा। उसको पैसे देने का मतलब नहीं था। मेरे पहने हुए गरम कपड़े उसको कहां फिट होने को थे? उसके लिए बहुत बड़े थे। खुश इत्तेफाकी से एक शॉल थी मेरे पास। मैंने उसको वह दे दी। उसने फौरन ओढ़ी। पर कुछ न बोला, खड़ा रहा। कांपता रहा।

भिखारियों का कारोबार

मेरा घर बिल्कुल करीब था तो मैंने सोचा घर जाकर इसके लिए अपने बच्चों के गरम कपड़ों में से दो-चार लाकर उसको दिए देता हूं। पत्नी और बच्चों की इजाजत से जब मैं वैसे कपड़ों को लेते हुए लौटा तो देखता हूं कि वही लड़का फिर वस्त्रहीन वैसे का वैसा वहीं खड़ा है। मेरी दी हुई शॉल गायब। मुझे देखते ही भागा...गायब। मेरे ड्राइवर ने कहा, सर, इसके उस्ताद ने शॉल उड़ा ली है। बेईमान होते हैं...। टंगे हुए लंबे चेहरे और हाथ में टंगे हुए उन्हीं कपड़ों को लिए लौट आया। घरवाली बोली, अफसोस न कीजिए... इरादा नेक था। कहीं न कहीं उस भिखारी बच्चे को आपका इरादा मदद करेगा...। मन बहलाव था वह। पर मन शांत जरूर हुआ।

भीख वाले के साथ दूसरा अनुभव

वर्षों बीत गए। फिर दूसरा अनुभव हुआ, भीख का। हम अन्य शहर में थे। जाड़ा नहीं वहां। गर्मी, उमस, लेकिन वही अंधेरा। मैं कुछ खरीदारी किए घर लौट रहा था पैदल, पसीने से तर। अचानक एक जवान आदमी मेरे सामने आ रुका। मैं भी रुका। अंग्रेजी में बहुत शालीनता से बोला- सर, आय एम हंग्री.. टू इडली। मैं जल्दी में था। इस तरह रोका जाना भाया नहीं। सिर हिलाते हुए चलता गया। पीछे से फिर आवाज आई- सर...। मैंने अनसुना कर दिया। एक क्षण उसे फिर देखा। उसका चेहरा, उसका अंदाज... मुझे तीर जैसी आंखों से देख रहा था। घर पहुंचने पर अपने पर जो गुस्सा आया, उसे क्या बयान करूं? थे मेरी जेब में दस रुपये के दो-चार नोट। क्यों न दिया मैंने उसे? कोई वजह नहीं। बस नहीं दिया। खाना खाया न गया ठीक से। क्या हुआ? पत्नी ने पूछा। मैंने बताया, उसने खामोशी से सुना। स्त्री की खामोशी में वेद भरे होते हैं। उपनिषद। और हां, जातक की कथाएं भी।

भिक्षा के नाम पर याद आए बुद्ध

याद आई मुझे वह तस्वीर, वही भित्ति, अजंता की, जिसमें बुद्ध स्वयं भिक्षा मांग रहे हैं... अपनी पत्नी यशोधरा से, और अपने पुत्र राहुल से। वे कपिलवस्तु पधारे हैं और अपने त्याजे राजमहल के सामने खड़े हैं। भिक्षा-पात्र उठाए। कैसी भीख? क्या गुजर रहा है उनके मन में? यशोधरा और राहुल के मन में? कौन जाने? क्योंकि मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा पढ़ चुका हूं, मैं मानता हूं कि कहीं न कहीं गौतम यशोधरा से कह रहे हैं-तुमको कहे बिना, रात को, नीरव रात को, छोड़कर मैं जब गया... तब सुबह उठने पर तुमको कितना सदमा कितना दुख हुआ, मैं जानता हूं।

भीख क्षमा के लिए भी मांगी जाती है सिर्फ सिक्कों के लिए नहीं

भीख सिर्फ सिक्कों के लिए नहीं मांगी जाती। वह संवेदना के लिए, क्षमा के लिए भी मांगी जाती है। हम सब, दरअसल, कहीं न कहीं भिखारी हैं। क्योंकि हम जाने-अनजाने में गुनहगार हैं। दुख पहुंचा चुके हैं, किसी न किसी को। फायदा ले चुके हैं, किसी न किसी से, उसके लिए शुक्रिया कहे बगैर..। हम सब कर्जदार हैं। बड़ी कंपनियां उधार मांगती हैं, बैंकों से। एयरलाइंस कर्ज मांगती हैं। भीख नहीं कहलाती हैं ये मांगें, पर क्या बहुत फर्क है भीख में और कर्ज में? भिखारी वे नहीं, हम सब हैं। जिंदगी की चौड़ी सड़क पर, तकदीर की लाल बत्ती पर रुके हुए, हम सब हाथ फैलाए हुए हैं। और भिक्षा कभी मिलती है, कभी नहीं। भिखारी-भिखारन को जब भी देखें, जहां भी देखें, तब उनको कुछ दें या न दें, लेकिन उनमें, उन भिखारियों में हम खुद को जरूर देखें और खुद में उनको।

( लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं और वर्तमान में अध्यापक हैं )