[हृदयनारायण दीक्षित]। दुराग्रह में सत्य-तथ्य नहीं होते। भारतीय राष्ट्र-राज्य प्रत्यक्ष तथ्य है। यहां संविधान की सत्ता है। संसदीय जनतंत्र है। संवैधानिक सत्ता संचालन के लिए कई संवैधानिक संस्थाएं हैं। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका है। सुसंगत विधि व्यवस्था है। विचार अभिव्यक्ति की विधि मर्यादित स्वतंत्रता है, लेकिन एक विचार समूह ऐसा है, जिसमें कानून तोड़ने की पक्षधरता है।

राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने पुणे के निकट भीमा कोरेगांव में जनवरी 2018 में घटित हिंसा को भड़काने के लिए स्टेन स्वामी, गौतम नवलखा, मिलिंद तेलतुंबडे आदि के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किया है। स्वामी की गिरफ्तारी बीते शुक्रवार को हुई। आरोप पत्र में स्वामी को भाकपा माओवादी संगठन का सक्रिय सदस्य बताया है। स्वामी पर माओवादी संगठन के लिए धन जुटाने का आरोप भी है। उसे भाकपा माओवादियों के फ्रंटल संगठन ‘आर्गनाइजेशन प्रासीक्यूटेड प्रिजर्नस सालीडेरिटी’ कमेटी का संयोजक भी बताया गया है। स्वामी के पास तमाम माओवादी दस्तावेज, साहित्य और प्रचार सामग्री मिली है।

दुर्भावना प्रायोजित बताने का छिड़ा हुआ है अभियान

गौतम नवलखा के संपर्क आइएसआइ से भी बताए गए हैं। इन सभी पर राजद्रोह, गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम एवं भारतीय दंड विधान की धाराओं में आरोप पत्र दाखिल हुआ है। इसके अनुसार भीमा कोरेगांव की हिंसा को एलगार परिषद के कार्यक्रम द्वारा भड़काया गया था। जांच में भाकपा माओवादियों को भारत के बाहर से हथियारों की आपूर्ति का तथ्य भी मिला है। बावजूद इसके अपने दुराग्रहों के चलते गिरफ्तारी और आरोप पत्र को मानवाधिकार विरोधी एवं दुर्भावना प्रायोजित बताने का अभियान छिड़ा हुआ है, जिसने दुराग्रह की सभी हदें तोड़ दी हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की जांच पर उठाए गए सवाल 

राष्ट्रीय सुरक्षा और हिंसा के प्रश्नों पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए, पर कुछ लोग ऐसा ही कर रहे हैं। इस मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की जांच पर वरिष्ठ कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे आपत्ति जता चुके हैं। एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर तंज कस चुके हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले की विवेचना राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंपने पर आपत्ति नहीं की। पवार ने यह भी कहा था कि केंद्र का इस तरह राज्य से स्वयं जांच लेना गलत है। उन्होंने आरोपों की गंभीरता न देखकर अपना दुराग्रह ही दर्शाया। हालांकि राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने गंभीर जानकारियां जुटाई हैं, लेकिन पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज ने स्वामी की गिरफ्तारी को अमानवीय बताया है। उसने आरोप पत्र को षड़यंत्र और साजिश बताया है। वाम विचार के ऐसे ही अन्य समर्थकों ने भी अपना दुराग्रह प्रदर्शित किया है। अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने स्वामी को भला आदमी बताते हुए कहा कि उन्हें आरोपित करना ठीक नहीं। कई संगठनों- नेताओं ने भी आरोप पत्र को गलत बताया। रामचंद्र गुहा, योगेंद्र यादव और प्रीतीश नंदी भी गिरफ्तारी का विरोध कर रहे हैं।

संवैधानिक अधिकारों का करते हैं उपभोग

भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध शोर मचाने वाले समूह की आदत नई नहीं है। वे न्यायालयों पर विश्वास नहीं करते। जांच एजेंसियों का मजाक बनाते हैं। हिंसक गतिविधियों की ढाल बनते हैं। अभियुक्तों का महिमंडनन करते हैं। इतना ही नहीं, पुलिस विवेचना के पहले ही अपना फैसला सुना देते हैं। वे अभियुक्त को जमानत न मिलने पर अभियोजन और न्यायालय को कोसते हैं। कोर्ट से उनके अनुसार फैसला नहीं आता तो वे उसकी भी निंदा करते हैं। मानवाधिकारों की उनकी धारणा खतरनाक है। वे हिंसक गतिविधियों में लिप्त लोगों के मानवाधिकारों के झंडाबरदार हैं। वे माओवादियों द्वारा मारे गए लोगों और पुलिस जनों के मानवाधिकारों की चर्चा भूले से भी नहीं करते। संवैधानिक अधिकारों का उपभोग करते हैं, फिर भी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को तहस-नहस करते रहते हैं। कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा नहीं करते। भीमा कोरेगांव मामले में अदालती कार्रवाई की प्रतीक्षा उन्हें मान्य नहीं। वे घर बैठे क्लीन चिट दे रहे हैं। 

प्रोफेसर जीएन साईंबाबा पर माओवादियों से संबंध रखने के थे आरोप

दिल्ली दंगों के मामले में भी वे यही आचरण कर रहे थे। नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शनों को लेकर भी उनकी यही राय थी। हिंसक हथियारबंद माओवादी भारतीय राष्ट्र राज्य से काफी लंबे समय से युद्धरत हैं। इसमें सैकड़ों पुलिस जवान और निर्दोष नागरिक मारे गए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा पर माओवादियों से संबंध रखने के आरोप थे। उनकी पक्षधरता में भी इन्हीं तत्वों ने संवैधानिक मर्यादाएं तोड़ी थीं। बाद में साईंबाबा को सेशन कोर्ट ने दोषी पाया था। कोर्ट ने कहा था कि ऐसे लोगों के लिए आजीवन कारावास की सजा काफी नहीं है, लेकिन वह उन पर लगाए गए आरोपों के तहत ही सजा ही देने के लिए विवश है। उस फैसले पर भी इस तबके का आचरण निंदनीय ही था। वे संविधान, कानून, न्यायालय और पुलिस सबको अपने दुराग्रह से खारिज कर रहे थे। उनकी मान्यताएं खतरनाक हैं। वे स्वयं ही विवेचक होते हैं और स्वयं ही न्यायालय और न्यायाधीश।

हिंसक गतिविधियों को ठहराते हैं सही

हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले वाले लोग कभी शिक्षक बनकर अपना एजेंडा चलाते हैं तो कभी कला साधक, साहित्यकार होकर, पर उनका मुख्य काम हिंसा भड़काना ही रहता है। संविधान तंत्र को कमजोर करना उनका एजेंडा है। वे हिंसा के औचित्य की व्याख्या और हिंसक गतिविधियों को सही ठहराते हैं। नागरिक अधिकारों के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहित करना राष्ट्रहित विरोधी है। ऐसे नागरिक कार्यकर्ताओं के बयान पूरे संवैधानिक ढांचे के विरुद्ध हैं। उन्होंने आरोप पत्र दायर होते ही पूरे मुकदमे को आधारहीन बता डाला। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी हिंसा भड़काने की साजिश और षड़यंत्र पर पर्दा डालते हुए इस गिरफ्तारी को असहमति की आवाज दबाने वाला बताया।

संसदीय जनतंत्र में सबको अपने ढंग से अपना पक्ष रखने की स्वतंत्रता है, लेकिन राजव्यवस्था बयानबाजी से ही नहीं चलती। संवैधानिक संस्थाओं को तहस-नहस करके राजनीति नहीं की जाती। आखिर पुलिस, जांच और अदालती फैसले की प्रतीक्षा न करने का क्या औचित्य है? संवैधानिक संस्थाएं अपना काम कर रही हैं। यहां प्रत्येक स्तर पर अपनी बात कहने की स्वतंत्रता सबको है, लेकिन न्यायिक फैसले के पहले ही मुकदमे को झूठा बताने और न्यायिक व्यवस्था को न मानने की लत संविधान विरोधी है? अपने बयानों से संस्थाओं के प्रति निष्ठा घटाना देश की संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध अहितकारी परिवेश बनाना है। इस विचार के दिन अब लद चुके हैं। देश छद्म मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और छद्म जनवादियों के झांसे में नहीं आएगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]