[ विनोद बंसल ]: भारत के मनीषियों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम बहुत आदरपूर्वक लिया जाता है। उनके 195वें जन्मोत्सव के अवसर पर हमें यह देखना होगा कि अपने समाज को आगे ले जाने के लिए उन्होंने जो स्वप्न देखा था वह किस स्तर तक साकार हुआ है और यदि नहीं हुआ है तो उसे पूरा करने के लिए और क्या प्रयास करने होंगे। वर्ष प्रतिपदा के पावन दिवस पर 10 अप्रैल, वर्ष 1875 को महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अब तक देश के धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक व राष्ट्रीय विषयों पर अपनी गहरी पैठ बनाई है। इसके द्वारा अविद्या के अंधकार को दूर कर विद्या के प्रसार, अंधविश्वासों, आडंबरों, मिथ्याचरण, बाल विवाह, बेमेल विवाह, सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक असमानता इत्यादि पर प्रहार करते हुए हिंदी, संस्कृत व देवनागरी के साथ गुरुकुलों का विकास, वेदों का सरलीकरण व सुलभीकरण, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा का प्रसार आदि कार्यों में वैश्विक स्तर पर प्रशंसनीय कार्य हुए हैं।

योगदर्शन में वर्णित अष्टांग योग यथा यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि जिनसे मनुष्य ज्ञानवान होकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, के प्रचार-प्रसार की दिशा में भरसक प्रयास किए हैं जिनके अपेक्षित परिणाम भी आए हैं। ये समाज और देश में बड़े परिवर्तनों के सूत्रधार बने हैं।

स्वामी श्रद्धानंद की प्रेरणा, संकल्प और संघर्ष के कारण आर्य समाज ने जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया वह था हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना। इस शुद्धिकरण के अंतर्गत विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा तलवार के बल पर जबरन या छल-कपट से धर्मांतरित हुए हिंदुओं को अपनी मूल मुख्य राष्ट्रीय धारा यानी हिंदू धर्म में सहर्ष सम्मानजनक रूप से वापसी का कार्य किया जाता है। इस शुद्धि आंदोलन के फलस्वरूप लाखों मतांतरिंत हिंदुओं ने घर वापसी कर सुख का अनुभव किया। स्वामी श्रद्धानंद, पंडित लेखराम तथा महाशय राजपाल आदि महान पुरुष तो इसी कारण इस्लामिक जिहादियों के कोप का भाजन बन हिंदू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान भी हो गए।

महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज मात्र कुछ वर्षों बाद ही अपनी हीरक जयंती मनाएगा। इसमें लक्ष्य होगा यज्ञ, हवन, वेद, उपनिषद आदि सत्य ग्र्रंथों का पठन-पाठन, ईश्वर भक्ति, राष्ट्रभक्ति, मातृ-पितृ भक्ति, संस्कार, सदाचार, समर्पण व सेवा इत्यादि का भाव घर-घर और जन-जन में जगाकर स्वस्थ, सुखी व समृद्ध समाज जीवन का विस्तार करना।

इस कड़ी में अंतिम लक्ष्य है ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम’ अर्थात संपूर्ण विश्व को आर्य यानी श्रेष्ठ बनाना। यह समय इसका विश्लेषण करने का है बीते 144 वर्षों में हम महर्षि के सपनों को पूरा करने की दिशा में कितनी प्रगति कर पाए हैं। या जो अपूर्णता बचीं हैं उन्हें कैसे पूर्ण करें कि अगले छह वर्ष बाद आने वाली 150वीं जयंती तक हमारे लक्ष्य हमें हासिल हो जाएं। इसके लिए किसी और पर निर्भर होने या परिस्थितियों को दोष देने की अपेक्षा सभी आर्यजनों को स्वयं से कुछ प्रश्न ईमानदारी से अपने अंतर्मन की गहराइयों से पूछने पड़ेंगे। उन प्रश्नों का उत्तर भी स्वयं को ही खोजकर आत्मावलोकन करना है जिससे हम संगठन, समाज व राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ बनाते हुए विश्व भर को आर्य बनाने के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

इस दिशा में हमें कुछ ऐसे प्रश्न पूछने होंगे। जैसे लगभग सभी आर्य समाज मंदिरों में तो दैनिक यज्ञ व वेद-पाठ होते हैं, किंतु क्या सभी आर्य समाजियों के घरों में भी ऐसा होता है। आर्य समाजी तो नियमित यज्ञ-हवन-सत्संगों में जाते हैं, किंतु क्या हमारे स्वयं के परिजन, मित्र, पड़ोसी और रिश्तेदार भी इनमें सहभागी होते हैं? क्या हमने उनको साथ ले जाने के लिए कुछ सार्थक प्रयास किए हैं? अपने सत्संगों व प्रवचनों में सत्य विद्या के प्रसार हेतु हिंदू समाज में व्यापक रूप से प्रचलित आस्था के केंद्र मूर्ति पूजा का विरोध कर उन्हें स्वयं से काटने का प्रयत्न तो बहुत किया, किंतु क्या उन्हें प्रेम व आग्रहपूर्वक आमंत्रित कर उनके अंदर यज्ञ, हवन, वेद, उपनिषदों इत्यादि के सच्चे ज्ञान के प्रति जिज्ञासा, आकर्षण व निष्ठा पैदा करने का सार्थक प्रयास भी किया है?

आर्य समाज के जो 10 नियम हैं, उनमें से हमें कितने याद हैं, कितने जीवन में धारण किए हैं और उनमें से कितने अन्य लोगों में भी प्रवर्तित करने का प्रयास किया है? जो लोग पूर्व में आर्य समाज से जुड़े थे या कभी हमारे कार्यक्रमों में सहभागी रहे, किंतु अभी निष्क्रिय हैं, क्या हम अभी भी उन लोगों के संपर्क में हैं? यदि नहीं, तो उन्हें अपनी मुख्य धारा में लाने के लिए क्या कोई सार्थक पहल कर रहे हैं?

इनके अलावा हमें कई और प्रश्नों पर मंथन करना होगा। मसलन हमें यह भी देखना होगा कि हमारी विविध गतिविधियों में समाज के कौन-कौन से वर्ग कितने सक्रिय हैं। इनमें बाल, युवा और वृद्धों के साथ ही लैंगिक पैमाने पर भी पड़ताल करनी होगी। इस बीच यह बात भी गांठ बांधनी होगी कि जब तक नई पौध नहीं लगाएंगे, एक समय के बाद फलों से वंचित रह जाएंगे। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम अपनी इस मुहिम को यथासंभव समावेशी बनाकर कैसे अधिक से अधिक लोगों को इससे जोड़ सकते हैं।

हमें यह भी देखना होगा कि सामाजिक कार्यों में हमने कितने नए लोगों को जोड़ा और कितने पुराने लोग हमसे बिछड़ते गए। इस बीच कितने युवा हमारे अभियान में शामिल हुए और हमने कितने बच्चों को संस्कारों से दीक्षित किया। क्या हम निरंतर रूप से ऐसे आकलन कर पा रहे हैं। गंभीरता के साथ इसका चिंतन करने के बाद ही हम आसानी से पता लगा सकते हैं कि हमारे अभियान की भविष्य में आखिर क्या नियति होगी?

यह आकलन केवल इन्हीं मापदंडों तक ही सीमित नहीं रह सकता। हमें यह भी देखना होगा कि अपने विविध कार्यक्रमों में कितने कार्यक्रम ज्ञान, कितने भक्ति, कितने शक्ति व कितने राष्ट्रधर्म को समर्पित करके आयोजित किए गए? कितने लोगों ने उनमें रुचि दिखाई और कितनों ने उन पर अमल किया? किसी आयोजन की समाप्ति के साथ ही हमारा दायित्व पूरा नहीं होता, बल्कि एक नई जिम्मेदारी शुरू होती है। ऐसे में देखना होगा कि आर्य समाज के कार्यक्रम को हमने कभी मंदिरों से बाहर निकालकर, अभावग्रस्त सेवा बस्तियों, पार्कों और सार्वजनिक स्थलों में करने का प्रयास कर नए कार्यकर्ताओं का सृजन भी किया अथवा नहीं?

बदलते दौर में तकनीक ने हमें अपना दास बना लिया है और इसमें व्यक्तिगत संपर्क की कड़ी लगभग टूटती जा रही है। ऐसे में हमें इस कड़ी को और मजबूत बनाकर अपने अभियान को नया क्षितिज प्रदान करना होगा तभी हम अपनी हीरक जयंती हर्ष और उल्लास के साथ मना पाएंगे और अपने लक्ष्यों के करीब पहुंचेंगे।

[ लेखक आर्य समाज से जुड़े हैं ]