संजय गुप्त

कारोबारी माहौल के लिहाज से दुनिया में भारत की स्थिति में आया सुधार मोदी सरकार की एक बड़ी सफलता है। यह सफलता इसका प्रतीक है कि आर्थिक सुधार सही दिशा में हैं और अब उनका असर भी दिखने लगा है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में देश की बागडोर संभाली थी तो नीतिगत पंगुता का सवाल सतह पर था और देश-विदेश के निवेशकों में गहरी निराशा का माहौल था। इस माहौल को दूर करना एक बड़ी चुनौती थी। मोदी सरकार ने इस चुनौती को स्वीकार किया और उसने एक के बाद एक कदमों के जरिये निवेशकों के मन में भरोसे का संचार करना आरंभ किया। इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि उनका लक्ष्य कारोबारी माहौल के हिसाब से अनुकूल देशों वाली सूची में भारत को पहले पचास देशों में लाना है। यह कठिन काम अब संभव नजर आने लगा है। विश्व बैैंक की कारोबारी सुगमता यानी ईज आफ डूइंग बिजनेस की कसौटी पर भारत की पिछले साल रैंकिंग 130 थी, जो अब सुधरकर सौ हो गई है। ध्यान रहे कि खराब रेटिंग की वजह से ही अक्सर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक-व्यापारिक जगत में ऐसे सवाल उभरते थे कि जो देश कई दशकों से विकास के लिए विदेशी निवेश हासिल करने के लिए आतुर है वह ऐसे उपाय क्यों नहीं कर पा रहा जिससे विदेशी निवेशक आकर्षित हों? क्यों उद्योग लगाने में इतनी अड़चनें हैं कि उद्यमी हताश-निराश हो जाते हैं? किसी भी तरह के निवेश की पहली आवश्यकता सुरक्षा का अहसास होती है। अगर निवेशक यह महसूस नहीं करेंगे कि उनका पूंजी निवेश सुरक्षित रहने वाला है तो वे आगे बढ़ने में हिचकिचाएंगे ही। निवेशक यह भी चाहते हैं कि उन्हें सरकारी झंझटों का सामना न करना पड़े और जटिल श्रम कानूनों से दो-चार न होना पड़े। इसके अलावा उन्हें कुशल एवं दक्ष लोगों की दरकार होती है।


ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में अगर कोई सरकार निवेश के अनुकूल नीतियों और नियम-कानून का ढांचा तैयार नहीं करती तो वह व्यापार-व्यवसाय को बढ़ावा देने वाला माहौल तैयार नहीं कर सकती। आज दुनिया में तमाम ऐसे देश हैं जो निवेश लाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। ऐसे देश विदेशी निवेश हासिल करने के साथ ही तेज गति से विकास करने में भी सफल हैैं। जब विकास की गति को तेजी मिलती है तो गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों को ऊपर लाने में तो मदद मिलती ही है, रोजगार के सवाल को हल करने में भी सहूलियत होती है। नि:संदेह भारत ने सुगम कारोबार के लिहाज से अपनी रैंकिंग में सुधार कर एक उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है, लेकिन मौजूदा रैैंकिंग अभी भी देश की आर्थिक संभावनाओं के अनुकूल नहीं है। शायद इसीलिए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि इस रैंकिंग को बहुत तेजी से सुधारा जा सकता है। यह गौर करने लायक है कि भारत सुधार के बावजूद जिन आधारों के कारण रैंकिंग में सौ तक ही पहुंच सका वे ज्यादातर राज्यों की व्यवस्थाओं से संबंधित हैं और उन पर केंद्र का दखल सीमित है। इसी कमी को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने आर्थिक विकास और कारोबारी सुगमता बेहतर करने के लिए राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया है। जो राज्य बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं उनसे अपेक्षा की गई है कि वे अपने से कमजोर राज्यों के साथ मिलकर काम करें। इसी के तहत अच्छी रैंकिंग वाले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों से कहा गया है कि वे निचली रैकिंग वाले राज्यों में नौकरशाही को सुधार के लिए मदद दें। बेहतर होगा कि कारोबारी माहौल ठीक करने के मामले में राज्य भी अपनी जिम्मेदारी समझें।
लगभग एक दशक पूर्व ही देश के हर राज्य की सरकार ने यह जान लिया था कि अगर लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना है तो उद्योगीकरण को बढ़ावा देना होगा। उन वामपंथी और समाजवादी सोच वाली राज्य सरकारों ने भी उद्योगीकरण की महत्ता समझी जो लोकलुभावन तौर-तरीकों पर ज्यादा ध्यान देती थीं। परिणाम यह है कि अब राज्यों के बीच अपनी औद्योगिक उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार की होड़ दिखने लगी है। पहले यह होड़ गुजरात और महाराष्ट्र सरीखे इक्का-दुक्का राज्यों के बीच ही थी, लेकिन अब निवेश को आकर्षित करने के लिए तमाम राज्य निवेशकों के सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित करते हैं। कई राज्यों ने तो ऐसे सम्मेलन विदेशों में भी आयोजित करने शुरू किए हैं। यह एक अच्छा संकेत है, लेकिन निवेश के अनुकूल माहौल तैयार करने के लिए राज्यों को अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। देश में जिन नेताओं को केंद्र और राज्यों में सत्ता का संचालन करने का अवसर मिला है उनमें शायद ही किसी की पृष्ठभूमि उद्योग-व्यापार की रही हो। यही बात विश्व स्तर पर भी लागू होती है। आज के ग्लोबलाइजेशन वाले माहौल में यह आवश्यक है कि नेताओं और नौकरशाहों में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने की सही समझ हो। तभी वे उन उपयुक्त नीतियों के निर्माण के साथ-साथ जरूरी व्यवस्थाएं कर सकेंगे जो उद्योग-व्यापार को गति देने में सहायक हों।
भारत के साथ विडंबना यह रही कि आजादी के लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस की सोच समाजवादी रही। इस सोच के चलते नेताओं से लेकर नौकरशाहों तक एक वर्ग ऐसा उभरा जो पैसा कमाने को संदेह की नजर से देखता था। इसी कारण ऐसे पेचीदे नियम-कानूनों का सिस्टम बना जो उद्योगपतियों की मुश्किलें बढ़ाता था। यह सिस्टम उद्यमियों एवं व्यापारियों के प्रति राजनेताओं और नौकरशाहों के अविश्वास का नतीजा था। मोदी ने इस कमी को पहचाना। पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक विकास को गति देने के लिए अनेक व्यवस्थाएं कीं और फिर प्रधानमंत्री के रूप में। यह उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि गुजरात की ख्याति तेजी से प्रगति करते भारतीय राज्य की बनी।
हालांकि प्रधानमंत्री बार-बार नौकरशाही को चेता रहे हैं कि आम आदमी पर भरोसा किया जाए, लेकिन नौकरशाही की सोच में अपेक्षित बदलाव नहीं दिख रहा है। इसी कारण आज भी तमाम जटिल नियम-कानून हैं जिनकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। ऐसे जटिल नियम-कानून औद्योगिक माहौल को बढ़ावा देने में बाधक साबित हो रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि श्रम कानूनों में सुधार अभी भी लंबित हैैं। हैरानी इस पर है कि इस बात से परिचित होने के बाद भी श्रम संबंधी कानूनों को बदला नहीं जा रहा है कि मौजूदा श्रम कानून अंतरराष्ट्रीय उत्पादकता की कसौटी पर खरे नहीं। अच्छा हो कि राजनीतिक दल यह समझें कि श्रम कानूनों के मामले में हीलाहवाली उद्योग-व्यापार जगत के साथ-साथ खुद श्रमिकों के भी हित में नहीं। पुराने तौर-तरीकों से छुटकारा एक मुश्किल काम अवश्य है, लेकिन प्रधानमंत्री के संकल्प को देखते हुए यह भरोसा किया जा सकता है कि ऐसा हो सकेगा। आज भारत के तमाम उद्योगपतियों के उपक्रम बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रूप ले चुके हैं। विदेशी निवेशकों की तुलना में उनका निवेश अपने देश में अधिक महत्वपूर्ण है। यह निवेश तभी होगा जब उद्यमियों की कदम-कदम पर राह रोकने वाले कानून और व्यवस्थाओं का जाल और तेजी से काटा जाएगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]