राजीव कुमार
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा केंद्र सरकार में नीतिगत मोर्चे पर एक अहम बदलाव आकार ले रहा है और वह यह है कि पिछले कुछ दशकों में भारतीय नीति-निर्माण प्रतिष्ठान पर विदेशी खासकर आंग्ल-अमेरिकन प्रभाव की जो रंगत चढ़ी थी, वह अब उतरती जा रही है। रघुराम राजन पहले ही विदा ले चुके हैं। अब अरविंद पानगड़िया भी समय से पहले अपना पद छोड़ने का एलान कर चुके हैं। वहीं लुटियन दिल्ली की अफवाहों की मानें तो आगे ऐसे और भी इस्तीफे हो सकते हैं। ऐसे में हमें शायद उनकी जगह पर ऐसे विशेषज्ञों की तैनाती देखने को मिल सकती है जो भारत की जमीनी हकीकत को कहीं बेहतर तरीके से समझते हों और जिनकी प्रतिबद्धता कार्यकाल पूरा होने तक टिककर काम करने की हो और जो बीच राह में जिम्मेदारियों को अधर में छोड़कर न चलते बनें। हालांकि 1991 के उदारीकरण के बाद देश में ‘विदेशी’ उत्पादों को लेकर भले ही रोमांच कुछ घटा हो, लेकिन मैकालेवादी मानसिकता से ग्रस्त नीति निर्माण प्रतिष्ठान को इस ग्रंथि से छुटकारा दिलाने में काफी लंबा वक्त लगा। इस बीच एक ऐसा शातिराना दुष्चक्र भरा दौर रहा है जिसमें घरेलू अकादमिक हलकों से निकले विशेषज्ञों को कमतर माना और उन्हें सरकार में उच्च पदों के योग्य नहीं समझा गया। इस दौरान ‘आयातित विशेषज्ञों’ की नियमित तौर पर आवक होती रही। इससे जुड़ी एक और समस्या अक्सर नजर आई कि देश में नीतियां बनाते हुए भी उन पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ और विश्व बैंक जैसे बहुस्तरीय संस्थानों या उन विश्वविद्यालयों का ही असर देखने को मिलता है जिनके प्रति उनकी अगाध श्रद्धा होती है। उनकी नीतिगत सलाह भी अमूमन सैद्धांतिक ज्यादा होती हैं जिनका भारत की धरातलीय वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। वहीं भारतीय तंत्र के भीतर भी ऐसे नीतिगत सलाहकार लगातार उपेक्षित महसूस करते हैं। परिणामस्वरूप वे समय से पहले ही पद छोड़ देते हैं। पश्चिमी विचारधारा का प्रभाव भी खासा घातक रहा है।
देश को मार्क्सवादी विचारधारा की नकल करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी है जिसे एमएन रॉय और बरास्ता ब्रिटेन उनके जैसे अन्य लोगों ने भारत पर थोपने का काम किया। इसकी वजह से दशकों तक हमारी नीतियां साम्यवादी कल्पनालोक के निरर्थक विचारों, समाजवादी लक्ष्यों, केंद्रीकृत नियोजन और निष्क्रिय नियमन की शिकार रहीं। एक सुसंस्कृत और सदियों पुरानी आध्यात्मिक परंपराओं वाले देश भारत में माक्र्सवादियों ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं पर प्रहार करने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। नतीजतन विकास रुक गया। निजी उद्यम पस्त पड़ते गए। साथ ही बेहद विस्तारित सरकारी ढांचे की छत्रछाया में ऐसा भ्रष्ट तंत्र विकसित हुआ जो गरीब हितों की बारी आने पर हद से हद जुबानी जमाखर्च में अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता। इसके एकदम उलट हमारे नेता नि:संदेह ऐसे ‘आयातित विशेषज्ञों’ से प्रभावित होकर उन्हीं नीतियों के प्रति आसक्त रहे जो आमतौर पर ब्रेटनवुड्स की जुड़वा संतानों या अन्य विदेशी संस्थाओं और जानकारों की देन रहीं। विश्व बैंक और आइएमएफ को ही ब्रेटनवुड्स की जुड़वा संतानें कहा जाता है। वर्ष 1991 के बाद यह सिलसिला और ज्यादा बढ़ गया जब आइएमएफ ने मुद्रा अवमूल्यन, राजकोषीय किफायत और निजीकरण के लिए बाध्य कर दिया भले ही तब ये सभी पहलू व्यावहारिक न लग रहे हों। कुछ लोग जो शायद भूल जाते हों कि ब्रेटनवुड्स के अंधानुकरण के कितने घातक नतीजे हो सकते हैं, वे जरा नब्बे के दशक के अंत में एशियाई वित्तीय संकट को याद करें। उसमें इंडोनेशिया, थाईलैंड और कोरिया में जनकल्याण के मोर्चे पर हुए नुकसान की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी सरकारों ने आइएमएफ के दबाव के आगे घुटने टेक दिए और नीतियों के मोर्चे पर पूरी तरह मात खा गए। केवल मलेशिया ही कुछ हद तक प्रतिरोध कर पाया और अपनी स्थिर विनिमय दरों को बरकरार रखते हुए एशियाई संकट से उपजी वित्तीय सुनामी में किसी तरह खुद को कुछ महफूज रखने में सफल हो पाया।
चीन हमेशा ब्रेटनवुड्स संस्थानों के वैश्विक अनुभवों को बेहद गौर से सुनता है, लेकिन वह अपनी जमीनी हकीकत और लक्ष्यों को ध्यान में रखकर ही सावधानीपूर्वक नीतियां बनाता है। हाल में पश्चिम-परस्त नीति विशेषज्ञों ने भारत में रीगन-थैचर शैली वाली ‘न्यूनतम सरकार’ की अवधारणा थोपने की कोशिशें की हैं। असल में यह निजीकरण का सैद्धांतिक नाम है जिसमें सरकार का अधिकांश काम निजी क्षेत्र द्वारा आउटसोर्स के जरिये होता है। वर्ष 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी इस सिद्धांत की नाकामी का जीता-जागता सुबूत है जिसने अमेरिका और बाद में यूरोप के वित्तीय तंत्र को तकरीबन लुंज-पुंज ही कर दिया। इस नाकामी के बाद भी शासन के इस सिद्धांत की हिमायत समझ से परे है। रीगन-थैचर सिद्धांत का मर्म यही है कि भारतीय राज्य यानी सरकार अपने नागरिकों को कानून-व्यवस्था, प्राथमिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएं देने में भी अक्षम है। ऐसे में इन सभी सेवाओं का जिम्मा निजी क्षेत्र के सुपुर्द कर देना चाहिए।
यानी जो इनका खर्च उठाने में सक्षम हैं, वे इनका अपने स्तर पर बंदोबस्त करें। इस मॉडल में तमाम खामियां हैं। यह विषमता बढ़ाने वाला है, क्योंकि इससे जरूरी सेवाओं के लिए गरीबों का वाजिब हक मारे जाने की आशंका काफी बलवती हो जाएगी। इससे भी बदतर बात है कि अभी भी यह बेलगाम आउटसोर्सिंग राज्य को ही ‘शोषक संस्था’ बनाने पर आमादा है जिसमें सार्वजनिक कल्याण की कीमत पर ‘लूटपाट’ को बढ़ावा देने की कोशिश जारी है। राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौते का भी सवाल है। भारत अभी विकास के जिस पड़ाव पर है, उसके लिए रीगन-थैचर-आइएमएफ मॉडल उपयुक्त नहीं है। भारत को प्रभावी प्रदर्शन करने वाली ‘विकासोन्मुखी सरकार’ की दरकार है जो अपनी जनता के लिए प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही अपने उद्यमों के लिए कानून-व्यवस्था, बुनियादी ढांचा भी मुहैया कराए ताकि वे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें।
मौजूदा सरकार क्रमबद्ध रूप से विकासशील राज्य की छवि बनाने की अनथक कोशिशों में जुटी है। जब यह रणनीति कारगर होगी तो भारत की वृद्धि को ऐसी निर्णायक दिशा देगी जिसमें वह स्थाई रूप से ऊंची वृद्धि के चक्र में दाखिल हो जाएगा। द इकॉनमिस्ट और द वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे पश्चिमी पत्र-पत्रिकाएं मोदी सरकार द्वारा किए गए ढांचागत सुधारों से सुशासन की ओर बढ़ते कदमों की थाह लेने में नाकाम रहे हैं। यहां तक कि सब्सिडी के प्रत्यक्ष भुगतान जिसमें रकम सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में जा रही है, उसे भी दिखावटी सुधार बता रहे हैं। खास मंशा से की गई ऐसी आलोचना पर ध्यान दिए बिना सरकार को अपने लक्ष्य पर सफर जारी रखना चाहिए। इस लिहाज से रीगन-थैचर परंपरा वाले विदेशी विशेषज्ञों की अभी कोई जरूरत नहीं है। वैश्विक उत्पादन तंत्र, विश्व बाजार और वित्तीय एवं तकनीकी प्रवाह से अपनी अर्थव्यवस्था को सफलतापूर्वक जोड़ने के लिए विकासशील राज्य बनना भारत के लिए जरूरी शर्त होगी। यह एकीकरण हमें अपनी शर्तों और भारत की जटिल जमीनी हकीकत को ध्यान में रखकर करना होगा।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं पहले इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक और नीति आयोग के नामित उपाध्यक्ष हैं ]