विकास सारस्वत: इन दिनों बीबीसी की ओर से गुजरात दंगों पर प्रसारित की गई डाक्यूमेंट्री खासी चर्चा में है। भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित इस डाक्यूमेंट्री में ब्रिटेन के भूतपूर्व विदेश मंत्री जैक स्ट्रा के हवाले से दावा किया गया है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दंगाइयों को रोकने का प्रयास न कर उन्हें हिंसा करने की छूट दी, जिसके चलते बड़ी संख्या में मुस्लिमों की जान गई। गुजरात दंगा निश्चित ही भयावह त्रासदी थी, परंतु इसकी शुरुआत एक मुस्लिम भीड़ द्वारा अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों से भरी रेल की एक बोगी को जलाने के कारण हुई, जिसे ‘गोधरा कांड’ से जाना जाता है। डाक्यूमेंट्री की मंशा इसी बात से स्पष्ट होती है कि साबरमती एक्सप्रेस जलाए जाने को रेल में लगी आग बताकर मात्र एक वाक्य में ऐसे निपटा दिया गया, मानो आग स्वयं लगी हो या फिर आग लगाने वालों के बारे में बीबीसी को कोई जानकारी न हो। ध्यान रहे गोधरा कांड में 31 लोगों को सजा सुनाई गई है, जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा है।

प्रधानमंत्री मोदी पर लगाए गए आरोप वही सड़ा गला प्रलाप हैं, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय की एसआइटी की सघन और विस्तृत जांच में पूरी तरह बेबुनियाद पाया गया था। यह गौरतलब है कि मोदी के प्रति राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के बजाय शत्रु जैसा बर्ताव करने वाले संप्रग द्वारा पैंतरेबाज एनजीओ लाबी, अनुकूल नौकरशाही और द्वेषपूर्ण मीडिया के सहयोग के बावजूद यदि जांच में कुछ नहीं मिल सका तो एक दूसरे देश के पास ऐसे कौन से संसाधन थे, जो वह और गहन जांच कर लेता? इससे भी बड़ी बात यह है कि बीबीसी की रिपोर्ट उन स्ट्रा की बात को आधार बनाती है, जिन्होंने इराक पर युद्ध की जमीन तैयार करने के लिए ‘वीपंस आफ मास डिस्ट्रक्शन’ नामक वह बदनाम दस्तावेज तैयार कराया, जो कालांतर में झूठ का पुलिंदा निकला। ब्रिटेन में इराक युद्ध की जांच से जुड़ी चिल्काट रिपोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और स्ट्रा को झूठा कथानक गढ़ कर इराक पर गैर जरूरी युद्ध थोपने का दोषी पाया था।

यह ध्यान देने वाली बात है कि इराक युद्ध और उसके बाद से चले आ रहे गृहयुद्ध में अब तक तीन लाख लोग मारे जा चुके हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं कि तीन लाख लोगों की हत्या में भागीदार स्ट्रा भारत के प्रधानमंत्री पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं? भारत में राजनीतिक विशेषज्ञों को यह अच्छी तरह पता है कि गुजरात दंगों पर बने एकपक्षीय विमर्श और मोदी पर लगे झूठे आरोपों से उद्वेलित जनमानस ने मोदी को राजनीति के शीर्ष पर बैठाने में मदद की है। कई मायनों में मोदी का प्रधानमंत्री बनना पंथनिरपेक्षता के नाम पर लंबे समय से चल रहे छल और मक्कारी के प्रति जन विद्रोह था। इस परिप्रेक्ष्य में यह मानना कठिन है कि 2002 को भारतीय विमर्श में दोबारा लाने का प्रयास मोदी का कुछ राजनीतिक नुकसान कर पाएगा। इसीलिए अनुमान लगाया जा रहा है कि बीबीसी डाक्यूमेंट्री जहां एक ओर मोदी को वैश्विक वामपंथ के निशाने पर लाने की शरारत भरी कवायद है, वहीं दूसरी ओर यह ब्रिटेन की अंदरूनी राजनीति को भी साधने का प्रयास है।

ब्रिटेन में वाम झुकाव वाली लेबर पार्टी बढ़ती मुस्लिम आबादी को अहम वोट बैंक की तरह देखती है। स्वयं स्ट्रा के संसदीय क्षेत्र ब्लैकबर्न में मुस्लिम वोट करीब 30 प्रतिशत हैं। मोदी पर लगे झूठे आरोपों का प्रतिकार करने की बाध्यता भारतीय मूल के कंजरवेटिव प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को मुस्लिम वोटरों के बीच कठघरे में खड़ा कर सकती है। साथ ही संभावित भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौते पर सुनक के लिए हस्ताक्षर करने में असहजता की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। इस पूरे प्रयोजन में बीबीसी का सहयोग कतई आश्चर्यजनक नहीं है। अपने धुर वामपंथी चरित्र की वजह से बीबीसी स्वयं ब्रिटेन में विश्वसनीयता खो चुका है। ब्रिटेन की लोकप्रिय प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर बीबीसी को बोल्शेविक ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन कहती थीं। थैचर ने कहा था कि उन्होंने तीन चुनाव लेबर पार्टी के विरुद्ध नहीं, बल्कि बीबीसी के विरुद्ध लड़े हैं। मौजूदा विवाद में भी लार्ड डालर पोपट, लार्ड रामी रेंजर और स्वयं प्रधानमंत्री सुनक समेत ब्रिटेन के कई राजनीतिज्ञों ने बीबीसी की तीखी आलोचना की है।

चाहे 1965 और 1971 का भारत-पाक युद्ध हो या खालिस्तानी आतंकवाद या फिर हाल में लेस्टर दंगे, बीबीसी का प्रसारण स्पष्ट रूप से भारत और हिंदू विरोधी रहा है। 2015 में बनी बीबीसी डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डाटर’ भी विवादों में रही थी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रसारण के लिए बनी इस डाक्यूमेंट्री से वह अंश शातिर तरीके से हटाए गए, जो भारत के अनुपात में पश्चिमी देशों में महिला यौन उत्पीड़न के अधिक आंकड़ों को उद्धृत करते थे। इसी तरह 2008 के मुंबई हमले के हमलावरों को केवल ‘गनमैन’ कहने से नाराज एमजे अकबर ने चैनल के कार्यक्रमों में भाग लेने से मना कर दिया था। अलेस्डर पिंकर्टन ने अपने शोधपत्र ‘ए न्यू काइंड आफ इंपीरियलिज्म’ में दर्शाया है कि भारत के प्रति बीबीसी का रवैया सदैव एक नवउपनिवेशवादी ताकत जैसा रहा है। पिंकर्टन ने 1970 में इंदिरा सरकार द्वारा बीबीसी पर लगाए गए प्रतिबंध के कारणों पर सहानुभूतिपूर्वक चर्चा की है।

हालांकि प्रेस स्वतंत्रता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए किसी मीडिया संगठन या कार्यक्रम पर प्रतिबंध उचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन बीबीसी की डाक्यूमेंट्री पर विपक्ष का उत्साह और उन्मत्त प्रतिक्रिया भारतीय न्याय व्यवस्था पर उनका अविश्वास ही जताती है। वास्तव में यह पश्चिमपरस्ती और मानसिक पराधीनता को भी दर्शाती है। 1984 में सिखों के कत्लेआम से लेकर कश्मीर में हिंदू नरसंहार तक भारत ने तमाम त्रासदियां झेली हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केवल गुजरात दंगों में समुचित न्यायिक कार्रवाई हुई है। नरोदा पाटिया को छोड़कर सभी मुकदमों का निस्तारण हो चुका है। दंगों में प्रधानमंत्री का नाम बार-बार न्यायालयों में घसीटे जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी है। ऐसे में गुजरात दंगों के घाव हरे रखना और प्रधानमंत्री को घेरने का प्रयास सस्ती राजनीति से अधिक कुछ नहीं है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)