सीबीपी श्रीवास्तव। Fundamental Rights In India आदि गुरु शंकराचार्य से संबंधित केरल में अवस्थित लगभग बारह सौ वर्ष पुराने एडनीर शैव मठ के प्रमुख श्रीश्री शंकराचार्य तोतकाचार्य केशवानंद भारती का निधन वैसे तो एक आध्यात्मिक गुरु का निधन है, लेकिन संविधान के विकास की दृष्टि से यह नाम भारत की राजनीतिक-संवैधानिक प्रणाली में सबसे लोकप्रिय नामों में से एक है।

वर्ष 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में न्यायालय द्वारा संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत की व्याख्या के बाद संविधान के दार्शनिक सिद्धांतों, संकल्पनाओं और उसके व्यावहारिक पक्षों को देखने-समझने का एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ। इसने न केवल संविधान की समझ को एक नया आयाम दिया, बल्कि अधिकारों के संरक्षण की नैतिकता को ठोस आधार भी प्रदान किया। सबसे बड़ी बात यह है कि इस नई व्याख्या ने भारत के लोकतंत्र में नागरिकों के अधिकारों तथा राज्य के प्राधिकार के बीच एक संतुलन स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संविधान का बुनियादी ढांचा पदावली का प्रयोग हालांकि सबसे पहले अधिवक्ता एमके नांबियार ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967 मामले में किया था, लेकिन इसकी विस्तृत व्याख्या केशवानंद भारती मामले में की गई। इस सिद्धांत के अनुसार, संसद मौलिक स्वतंत्रताओं में संशोधन या रूपांतरण नहीं कर सकती, न ही उनका विरूपण कर सकती है और न ही उन्हें र्निबधित कर सकती है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस सिद्धांत ने लोकतंत्र में मूल अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के संरक्षण की नैतिकता की रक्षा में योगदान दिया है। बुनियादी ढांचे का सिद्धांत भारत में न्यायिक पुनíवलोकन के विधिशास्त्र के विकास के मार्ग में भी मील का एक पत्थर सिद्ध हुआ है।

हालांकि भारत में न्यायिक पूर्वावलोकन की संकल्पना अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरित है, लेकिन जहां अमेरिका में न्यायिक शक्तियां न्यायपालिका को दी गई हैं, वहीं भारत में ऐसी समस्त शक्तियां संविधान में निहित हैं, जो न्यायालय पर भी संवैधानिक बाध्यता डालती हैं। भारत में स्वाधीनता के पूर्व पुनíवलोकन की शक्ति भारत शासन अधिनियम 1935 की धारा 200 में परिसंघीय न्यायालय को प्राप्त थी। संविधान के प्रारंभ के बाद ये शक्तियां अनुच्छेद 135 के तहत उच्चतम न्यायालय को सौंप दी गई हैं। दूसरी ओर, अमेरिका के संविधान के अनुच्छेद छह में उच्चतम न्यायालय को संविधान के संरक्षण का अधिकार है जिसके आधार पर उसने एक बहुचर्चित मामले मार्बरी बनाम मैडिसन में कांग्रेस द्वारा बनाई गई एक विधि को असंवैधानिक कहा था। भारत में यह शक्ति उच्चतम और उच्च दोनों ही न्यायालयों को प्राप्त है तथा इस संबंध में अनुच्छेद 13, 32, 137, 136, 226 और 227 महत्वपूर्ण हैं। इसी आधार पर भारत में भी विधियों की संवैधानिक वैधता का परीक्षण किया जाता है। इस विषय पर विवाद का प्रश्न यह था कि क्या संशोधन विधियों की भी संवैधानिक वैधता का परीक्षण अधिकारों को आधार बनाकर किया जा सकता है?

बुनियादी ढांचे के सिद्धांत का विकास 1951 से ही आरंभ हो गया था, जब शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ मामले में पहले संशोधन अधिनियम को अधिकारों से संगत होने के आधार पर चुनौती दी गई थी। कई अवसरों पर यह देखा गया है कि सरकारें न्यायालय के फैसले से संतुष्ट नहीं होतीं और किसी विधि का निर्माण कर वे ऐसे फैसले को निरस्त कर देती हैं। यही स्थिति गोलकनाथ मामले के बाद हुई। वर्ष 1971 में संविधान के 24वें संशोधन अधिनियम द्वारा एक ओर न्यायालय के फैसले को निरस्त किया गया और दूसरी ओर अनुच्छेद 13 में खंड चार जोड़ कर यह प्रावधान किया गया कि अधिकारों से असंगत होने के आधार पर संशोधन विधियों का पूर्वावलोकन नहीं किया जाएगा। केशवानंद भारती मामले की पृष्ठभूमि के निर्माण में सबसे बड़ा योगदान 29वें संविधान संशोधन अधिनियम 1972 ने दिया, जिसके आधार पर केरल भूमि सुधार अधिनियम 1973 के तहत एडनीर मठ की भूमि अधिगृहीत की गई। न्यायालय ने इस मामले में पुन: अपने फैसले को बदलते हुए दो मुख्य बातें कहीं। पहली यह कि संविधान में संशोधन करने की शक्ति तथा विधि बनाने की शक्ति एक-दूसरे से अलग हैं। दूसरी यह कि हालांकि संवैधानिक शक्ति अत्यंत व्यापक है, लेकिन इसे संविधान के बुनियादी ढांचे से मर्यादित किया जाएगा। इस ढांचे में संविधान में रखी गई मौलिक स्वतंत्रताओं से संबंधित सिद्धांत शामिल किए गए, जैसे संविधान की सर्वोच्चता, पंथनिरपेक्ष एवं परिसंघीय चरित्र, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक पुनíवलोकन आदि।

जहां तक इस सिद्धांत की उपयोगिता का प्रश्न है, कई क्षेत्रों में इसकी भूमिका देखी जा सकती है। यह मूल अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं का संरक्षण कर मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए भी उत्तरदायी है। दूसरी ओर, समानता के सिद्धांत को वरीयता देकर यह सभी वर्गो के शोषण से उनकी रक्षा करने का भी कार्य करता है। इस कारण यह लैंगिक समानता लाने में योगदान देने वाले कारकों में से एक है। समानता और स्वतंत्रता दो ऐसी संकल्पनाएं हैं, जिन्हें भारत के संविधान में शीर्ष पर रखा गया है, क्योंकि इनके संरक्षण से बंधुत्व और न्याय सुनिश्चित कर संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं।

बुनियादी ढांचे ने उपयोगितावाद और कर्तव्यवाद जैसे सिद्धांतों को दृढ़ता प्रदान की है। राज्य की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर इसने निष्पक्षता के प्राकृतिक सिद्धांत का भी संरक्षण किया है। भारतीय संविधान में न्याय का अर्थ निष्पक्षता है। संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत ने संवैधानिक विषयों को गहनता प्रदान करते हुए उन्हें नई दृष्टि दी है। राज्य और नागरिक, दोनों के द्वारा संविधान की मूल बातों का पालन करना ही स्वामी केशवानंद भारती को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

[अध्यक्ष, सेंटर फॉर अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली]