नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। हीरा व्यापारी नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक के जरिये जो धोखाधड़ी की उसे 11 हजार करोड़ रुपये का घोटाला बताया जा रहा है। यह राशि बैैंक के कुल बाजार पूंजीकरण के एक तिहाई के बराबर और बैैंक के एक साल के मुनाफे का दस गुना है। इसी कारण यह घोटाला बैैंकों की गिरती साख पर बट्टा लगाने और आम आदमी के भरोसे को डिगाने वाला है। सरकारी क्षेत्र के बैैंकों में घपले-घोटाले कोई नई बात नहीं हैैं। छोटे-मोटे घोटाले न जाने कब से हो रहे हैैं, लेकिन पीएनबी का यह घोटाला जितना बड़ा है उतना ही गंभीर भी। इसने मोदी सरकार के सामने यह चुनौती खड़ी कर दी है कि वह इससे पार पाए-न केवल वित्तीय, बल्कि राजनीतिक तौर पर। मोदी सरकार को अन्य सवालों के साथ इस सवाल से भी दो-चार होना पड़ रहा है कि करीब चार साल के अपने कार्यकाल में वह बैैंकों में जरूरी सुधार क्यों नहीं लागू कर सकी? मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद से ही यह कह रही है कि संप्रग शासन में जो तमाम अनाप-शनाप कर्ज बांटे गए वे एनपीए में तब्दील हो चुके हैैं और उसके कारण ही बैैंक संकट में हैं। संसद के बजट सत्र में यह आरोप खुद प्रधानमंत्री ने कांग्रेसी नेताओं पर मढ़ा था।

बैैंक फंसे कर्ज को वसूल पाने में नाकाम

एक आंकड़े के अनुसार बैैंकों का कुल फंसा कर्ज यानी एनपीए करीब आठ लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। चिंता की बात यह है कि इसके बढ़ने की ही आशंका है। चूंकि बैैंक फंसे कर्ज वसूल पाने में नाकाम हैैं इसलिए उन्हें इस कर्ज को बट्टे खाते में डालना पड़ रहा है। इससे उनकी वित्तीय हालत बिगड़ रही है और सरकार को सरकारी कोष के पैसे यानी आम जनता की गाढ़ी कमाई उन्हें बतौर पूंजी उपलब्ध करानी पड़ रही है ताकि उनकी माली हालत सुधर जाए, लेकिन आखिर यह सिलसिला कब तक कायम रहेगा? क्या सरकार यह दावा करने की स्थिति में है कि अगले दो सालों में बैैंकों को दो लाख 11 हजार करोड़ रुपये की पूंजी मुहैया कराने के बाद उनका एनपीए नहीं बढ़ेगा? सरकार को यह अहसास होना चाहिए कि उसकी ओर से उठाए गए कदमों के बाद भी बैैंकों में वांछित सुधार नहीं आ पाया है। इसी का ताजा प्रमाण पीएनबी घोटाला है। भले ही सरकारी बैैंक शेयर बाजार में सूचीबद्ध होने के साथ रिजर्व बैैंक से निर्देशित होते हों, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली अभी भी पारदर्शिता एवं जवाबदेही से परे और घोटालेबाजों के लिए मददगार है।

कर्ज देने में सतर्कता भी नहीं बरत रहे हैं बैैंक 

यदि बैैंक सरकार और रिजर्व बैैंक के नियम-निर्देशों की उपेक्षा कर रहे हैैं तो इसका मतलब है कि कहीं कोई बड़ी गड़बड़ी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहले की तरह अभी भी बैैंकों के चेयरमैन और निदेशक रसूखदार लोग ही बन रहे हैैं? क्या कारपोरेट गवर्नेंस के नाम पर केवल साज-सज्जा में तब्दीली हो रही है? अगर रिस्क मैनेजमेंट के नाम पर खानापूरी नहीं की गई होती तो यह हो ही नहीं सकता था कि बैैंकों का एनपीए बढ़ता रहता। अब तो यह भी लगता है कि सरकारी बैैंक बैैंकिंग के उन तौर-तरीकों से कन्नी काट रहे हैैं जिनसे घपले-घोटालों से बचा जा सके। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि बैैंक पहुंच और प्रभाव वालों को कर्ज देने में न्यूनतम सतर्कता भी नहीं बरत रहे हैं। उलटे यह दिख रहा है कि लॉबिंग और जोड़तोड़ के जरिये अपात्र एवं संदिग्ध लोग कर्ज हासिल करने में सक्षम हैैं। यह शायद कर्ज लेने वालों की वित्तीय क्षमता का उचित आकलन न किए जाने का ही नतीजा है कि उनमें से कई भारी-भरकम कर्ज लेकर विलफुल डिफॉल्टर बन जा रहे हैैं।

पीएनबी घोटाले ने सरकारी बैंकों के ऑडिट सिस्टम की भी पोल खोल दी

चिंता की बात यह है कि नया दीवालिया कानून भी फंसे कर्जों की वसूली में अपेक्षित सहायक नहीं हो पा रहा है। यह जनता के साथ धोखा है कि पूंजीपतियों या कारपोरेट समूह को दिए जाने वाले कर्ज की वसूली न हो पाए तो उसकी भरपाई बेलआउट पैकेज यानी करदाताओं के पैसे से की जाए। एनपीए के मामले में निजी क्षेत्र के बैंक अपेक्षाकृत कम समस्याग्रस्त हैैं। आखिर निजी क्षेत्र के बैंकों जैसी सतर्कता सरकारी बैंक क्यों नहीं बरत सकते? नीरव मोदी से जुड़े घोटाले में सामने आया है कि पीएनबी के जिस अधिकारी ने उसकी मदद की वह एक ही शाखा में लंबे समय से तैनात था। यह हैरत की बात है कि वह इतने वर्षों तक नीरव मोदी के पक्ष में फर्जी तरीके से लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) जारी करता रहा और किसी ऑडिट में इसे पकड़ा नहीं जा सका। किसी ने इसकी भी सुधि नहीं ली कि एलओयू के जरिये इतना पैसा जा तो रहा है, लेकिन आ क्यों नहीं रहा है? इस घोटाले ने सरकारी बैंकों के ऑडिट सिस्टम की भी पोल खोल दी है। लगता है कि ऑडिट सिस्टम एक किस्म का फर्जीवाड़ा ही है।

बैैंक के चेयरमैन, निदेशकों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं?

मोदी सरकार ने पीएनबी घोटाला उजागर होने के बाद लगभग आधा दर्जन एजेंसियों को सक्रिय कर दिया है जो नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और धोखाधड़ी में शामिल अन्य लोगों पर शिंकजा कस रही हैैं। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि पीएनबी के 18 अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। इनमें से जिन दो को गिरफ्तार किया गया है उनमें एक डिप्टी मैनेजर और दूसरा साधारण कर्मचारी है। आखिर बैैंक के चेयरमैन, निदेशकों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं? यह अजीब है कि जब सरकारी तंत्र में किसी घपले-घोटाले में जनता के करोड़ों-अरबों रुपये इधर-उधर होते हैैं तो निचले स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करके इतिश्री कर ली जाती है। आम तौर पर बड़े अफसर और उन्हें नियुक्त करने वाले शीर्षस्थ लोगों का कुछ भी नहीं होता। यह स्थिति तब बदल जाती है कि जब निजी क्षेत्र की किसी कंपनी में कोई घोटाला या हादसा होता है तब राजनीतिक माहौल अपने पक्ष में करने के लिए उसके मालिक, चेयरमैन, निदेशक आदि की गिरफ्तारी में देर नहीं की जाती? यह बात और है कि प्राय: उनके मामले भी रफा-दफा हो जाते हैैं। सरकारों के ऐसे तौर-तरीके घपले-घोटाले और अव्यवस्था को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैैं।

मोदी सरकार ने बैंकिंग सुधार के कड़े कदम नहीं उठाए 

पीएनबी घोटाले को लेकर अभी बहुत कुछ सामने आना शेष है, लेकिन उसके पहले ही आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई है। आज जरूरत इसकी है कि सत्तापक्ष के साथ विपक्ष इस पर ध्यान दे कि बैैंकिंग सिस्टम प्राथमिकता के आधार पर दुरुस्त हो। बैंकिग व्यवस्था में सुधार की सलाह देने वाली संसदीय समितियों में पक्ष-विपक्ष के नेता शामिल रहते हैैं। ऐसे नेता यह नहीं कह सकते कि सरकार या विपक्ष में रहते समय उन्हें भ्रष्ट बैैंकिंग सिस्टम की जानकारी नहीं हो सकी, लेकिन जब बात सुधार के कड़े कदमों की आती है तो वे कन्नी काट लेते हैं। पीएनबी घोटाले से यह साफ हो गया कि न तो संप्रग सरकार के समय बैंकिंग सुधार के कड़े कदम उठाए गए और न ही बीते चार साल में राजग सरकार के दौरान। बैैंकों के बगैर देश का काम नहीं चल सकता। उन्हें कुप्रबंधन से मुक्त करके उचित निगरानी प्रक्रिया से लैस करना ही होगा। किसी भी देश के विकास के लिए जिस वित्तीय ढांचे की जरूरत होती है वह बैैंक ही उपलब्ध कराते हैैं। चूंकि वही एक तरह से धन की देख-रेख करते हैैं इसलिए उनका ढांचा पारदर्शी और भरोसेमंद होना ही चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]