[सुषमा रामचंद्रन]। यह एक विडंबना ही है कि हमारे देश में लोगों को बैंकों से उनके वाजिब लाभ दिलाने के लिए भी अदालत को दखल देना पड़ता है। हालिया मामला एक जनहित याचिका का है, जो मनीलाइफ फाउंडेशन नामक एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी। इस याचिका में यह शिकायत की गई थी कि रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर घटाए जाने पर भी बैंक और वित्तीय संस्थाएं ब्याज दरों में कमी लाने में सुस्त रवैया अपनाती हैं और इस तरह फ्लोटिंग रेट पर कर्ज लेने वाले ग्राहकों को दर में कमी का लाभ देने में देरी की जाती है।

रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर रिजर्व बैंक विभिन्न बैंकों को उधार देता है। इस शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक से जवाब पेश करने के लिए कहा है। यहां पर कहना होगा कि जो लोग न्यायिक सक्रियता (ज्युडिशियल एक्टिविज्म) को चिंतित रहते हैं, उन्हें अपने रवैये पर गौर करना चाहिए, क्योंकि इस मामले में साफ है कि कार्यकारी तंत्र आम आदमी के हितों का समुचित संरक्षण नहीं कर पा रहा है। ऐसे में शिकायत निवारण का एकमात्र सहारा कोर्ट ही नजर आता है।

दरअसल मुख्य मसला (जैसा याचिकाकर्ताओं ने रेखांकित भी किया) यह है कि कर्ज की ब्याज दरों में कटौती का लाभ उन लोगों तक समय पर नहीं पहुंचता है, जो पहले ही आवास निर्माण या क्रय हेतु, शिक्षा के लिए अथवा कार, फ्रिज या अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद के लिए कर्ज लेते हैं। इसके बजाय ब्याज दरों में कमी का लाभ सिर्फ नए कर्जदारों को दिया जाता है। साफ है कि बैंक नए ग्राहकों को लुभाने के लिए तो निचली ब्याज दरों का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन यही लाभ अपने मौजूदा ग्राहकों को देने के प्रति उनका कोई रुझान नहीं लगता, जो कि पहले ही उनसे कर्ज ले चुके होते हैं।

यहां पर यह समझना होगा कि फ्लोटिंग ब्याज दरों की अवधारणा का आशय यही है कि रेपो दर में कमी या वृद्धि के आधार पर इनमें भी कटौती या बढ़ोतरी की जा सकती है और ऐसा होना भी चाहिए। आखिर कर्ज लेते समय इस ब्याज दर का विकल्प चुनने वाले लोग एक तरह से जोखिम भी लेते हैं, क्योंकि दरें ऊपर भी जा सकती हैं और ऐसे में उन्हें अधिक ब्याज चुकाना पड़ता है, लेकिन जब फ्लोटिंग ब्याज दर पर कर्ज लेने का यह दांव उनके पक्ष में जाता है यानी दर में कटौती होती है तो उन्हें वाजिब रियायत भी तो मिलनी चाहिए।

रिजर्व बैंक खुद भी इस मामले को लेकर फिक्रमंद है और उसने बैंकों की कर्ज दरों में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए पिछले साल एक कमेटी भी गठित की थी। इसके पूर्व रिजर्व बैंक ने वर्ष 2016 में बेस रेट के कांसेप्ट से अलग लैंडिंग रेट एक नया फॉर्मूला मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड बेस्ड लैंडिंग रेट्स (एमसीएलआर) प्रस्तावित किया था। ऐसा इसलिए किया गया था, क्योंकि कई बैंक रिजर्व बैंक की ओर से नीतिगत ब्याज दरों में की गई कटौती की तुलना में ब्याज दरों में कटौती अपने हिसाब से और वह भी देरी से करते थे।

एमसीएलआर व्यवस्था के तहत बैंकों से यह उम्मीद की गई थी कि वे रेपो दर में बदलाव होते ही अपनी ब्याज दरें भी परिवर्तित करेंगे। अलबत्ता ऐसा नहीं हुआ और संभवत: इसी वजह से रिजर्व बैंक ने एक कमेटी गठित की, जिसने इस साल की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें भी इस बात की पुष्टि की गई कि नीतिगत ब्याज दरों में कटौती का लाभ ग्राहकों तक तुरंत नहीं पहुंचाया जाता। फ्लोटिंग ब्याज दर व्यवस्था में नए कर्जदारों के मामले में तो यह हस्तांतरण काफी तेजी से होता है, लेकिन मौजूदा कर्जदारों के लिए प्रक्रिया काफी धीमी गति से आगे बढ़ती है।

लेकिन यह रिपोर्ट मिलने के बावजूद देश के केंद्रीय बैंक ने ऐसे बैंकों के खिलाफ कोई पुख्ता कदम उठाने की पहल नहीं की जो मौजूदा ग्राहकों तक नीतिगत ब्याज दर में कटौती का लाभ पहुंचाने में सुस्ती बरतते हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि बैंकों की ग्राहकों के प्रति इस भेदभावपूर्ण कार्यप्रणाली के खिलाफ न्यायपालिका की चौखट पर दस्तक दी गई। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संभावित कार्रवाई को भांपते हुए आखिरकार रिजर्व बैंक ने आश्वासन दिया है कि वह बैंकों को यह निर्देश देने को तैयार है कि कि वे नीतिगत ब्याज दरों में कटौती होते ही अपने यहां भी ब्याज दरें कम करें। रिजर्व बैंक को इस बारे में भी पुख्ता जवाब पेश करना चाहिए कि उसने यह सुनिश्चित करने के लिए क्या किया है, जिससे तमाम क्षेत्रों में ग्राहकों के हितों की अनदेखी न हो।

इसके अलावा केंद्रीय बैंक के समक्ष यह भी प्रस्ताव है कि ऐसा कोई कोष बनाया जाए, जिसमें फ्लोटिंग ब्याज दर व्यवस्था के तहत मौजूदा ग्राहकों से ब्याज के रूप में अधिक वसूली गई राशि का संग्रह हो। सुझाव यही है कि कोष में जमा राशि का इस्तेमाल आधिक्य के रूप में वसूली गई राशि को कर्जदारों के खातों में वापस जमा करने के लिए किया जाए। बैंकों के लिए भी यही उचित होगा कि वे ब्याज दरों में बदलाव में देरी के चलते जमा हुए अतिरिक्त लाभों को अपने ग्राहकों को हस्तांतरित कर दें।

गौरतलब है कि पिछले अध्ययनों ने यह भी दर्शाया है कि जब ब्याज दरें बढ़ती हैं तो बैंक फिक्स्ड डिपॉजिट्स के धारकों को इस बढ़ोतरी का लाभ पहुंचाने में भी इसी तरह सुस्त रहते हैं। कर्ज की ब्याज दरों में बढ़ोतरी को तो तुरंत ग्राहकों तक हस्तांतरित कर दिया जाता है, लेकिन सावधि जमा के धारकों को लाभ देने में देरी की जाती है। इससे खासकर उन लोगों पर असर पड़ता है जो बैंक में अपनी जमाओं से प्राप्त होने वाली आय से ही गुजारा करते हैं। आज भी दीर्घकालीन लिहाज से बैंकों में अपनी रकम जमा रखना ही सबसे सुरक्षित विकल्प समझा जाता है। बुजुर्ग व्यक्ति व पेंशनर्स अमूमन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा सावधि जमा की दरों में बढ़ोतरी की आस लगाए रहते हैं। ऐसे परिदृश्य में यह अजीब लगता है कि बैंक ग्राहकों को उनका वाजिब लाभ तुरंत देने के लिए तैयार नहीं।

दूसरे शब्दों में कहें तो ब्याज दरों के मामले में बैंक मुनाफाखोरी में लगे हैं। तकरीबन पांच दशक पहले तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसी मुख्य उद्देश्य को लेकर किया गया था कि ग्राहकों का हित सर्वोपरि है और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि अर्थव्यवस्था के प्राथमिक सेक्टरों के लिए कर्ज पहले मुहैया हों, लेकिन अब आलम यह है कि बैंकों द्वारा ग्राहकों को कम पैसा वापस किया जा रहा है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि बैंक ऑपरेशंस को मेंटेन रखने के लिए आय जरूरी है। ऐसा ही एक मसला ग्राहक द्वारा अपने खाते में न्यूनतम बैलेंस न रखने पर बेतुके चार्जेस लगाने का है।

आपको यह जानकर शायद हैरत होगी कि बैंकों ने पिछले साल सिर्फ इसी मद के प्रभार से 5000 करोड़ रुपये कमाए। बहरहाल यह तो कहना होगा बैंकिंग नियामक संस्था ने अब तक ऐसे कोई बड़े कदम नहीं उठाए हैं, जिससे आम आदमी को मदद मिल सके। अब समय आ गया है कि रिजर्व बैंक दखल दे और यह सुनिश्चित करे कि बैंक तमाम श्रेणी के ग्राहकों को लाभ पहुंचाने की सुसंगत नीतियों को अपनाएं। यदि अब भी ऐसा नहीं किया जाता तो लोगों के पास अदालत का दरवाजा खटखटाने के सिवा कोई चारा नहीं रहेगा ताकि अदालती फरमान के जरिये ही सही, यह सुनिश्चित हो सके कि बैंकिंग व्यवस्था में किसी भी तरह के ग्राहक से अन्याय न हो।

[वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक]