जागरण संपादकीय: अनिश्चितता से घिरा बांग्लादेश, मुहम्मद यूनुस की बात का कितना होगा असर
बांग्लादेश की आजादी में भारत की एक बड़ी भूमिका थी। 1971 में भारत के दखल के चलते ही बांग्लादेश का निर्माण हुआ। निर्माण के बाद भी वहां ऐसे लोग सक्रिय बने रहे जो पाकिस्तानपरस्त थे। शेख हसीना से न केवल अमेरिका और यूरोपीय देश खफा थे बल्कि चीन भी उन्हें पसंद नहीं कर रहा था। भारत को महत्व देने की उनकी नीति चीन को रास नहीं आ रही थी।
संजय गुप्त। इसी वर्ष जनवरी में जब शेख हसीना लगातार चौथी बार बांग्लादेश की सत्ता में आईं थीं तो किसी को यह अनुमान नहीं था कि उनके खिलाफ ऐसा माहौल बन जाएगा कि उन्हें देश छोड़ना पड़ जाएगा, लेकिन उन्हें ऐसा करना पड़ा। चूंकि उन्होंने उस चुनाव में जीत हासिल की थी, जिसका प्रमुख विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया था, इसलिए उनमें उनके प्रति नाराजगी तो थी, लेकिन यह नहीं दिख रहा था कि जनता का बड़ा वर्ग भी उनके विरुद्ध हो जाएगा। उनके खिलाफ जो आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ, उसे विपक्षी दलों और कट्टरपंथी तत्वों के साथ-साथ कुछ विदेशी शक्तियों ने भी हवा दी। इनमें अमेरिका प्रमुख है। अमेरिकी राजदूत विपक्षी नेताओं से लगातार मिल रहे थे। अमेरिका इससे नाराज था कि शेख हसीना ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं कराए। वह उन्हें एक निरंकुश शासक के तौर पर देख रहा था। अपनी इस छवि के लिए शेख हसीना खुद भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ अपने आलोचकों के खिलाफ भी सख्ती बरती। शायद वह निरंकुश रवैये के कारण ही अपने खिलाफ बन रहे हालात को भांप नहीं सकीं। लगता है कि भारत भी वहां की बिगड़ती स्थिति को समय रहते नही समझ सका। जो भी हो, यदि बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के गठन के बाद वहां के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को भी इस्तीफा देने के लिए बाध्य होना पड़ा तो इसी कारण, क्योंकि वह शेख हसीना के समर्थक माने जाते थे। भीड़ ने उनका घेराव करके एक तरह से उनका जबरन इस्तीफा ले लिया। बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक के प्रमुख को भी पद छोड़ने को मजबूर किया गया। यह ठीक नहीं, क्योंकि जहां कहीं भीड़तंत्र हावी हो जाता है, वहां लोकतंत्र के लिए स्थान नहीं बचता।
हालांकि शेख हसीना ने अपने दूर के रिश्तेदार को सेना प्रुमख बनाया था, लेकिन जब उनके खिलाफ आंदोलन तेज हुआ तो सेना ने भी एक तरह से हाथ खड़े कर दिए। उसने उन्हें सुरक्षित बाहर निकलने का अवसर भर दिया और वह भी इस अल्टीमेटम के साथ कि उनके पास 45 मिनट से ज्यादा का समय नहीं है। शेख हसीना ने भले ही बांग्लादेश के प्रधानमंत्री के तौर पर निरंकुशता दिखाई हो, लेकिन उनके सत्ता में रहते भारत और बांग्लादेश के संबंध लगातार प्रगाढ़ होते रहे। उन्होंने न केवल बांग्लादेश में भारत विरोधी तत्वों पर लगाम लगाए रखी, बल्कि पूर्वोत्तर के उग्रवादी एवं अलगाववादी संगठनों को खत्म करने का भी काम किया। इसके विपरीत उनकी विरोधी खालिदा जिया ने जब भी बांग्लादेश की कमान संभाली तो भारत के बांग्लादेश से संबंध बिगड़े। खालिदा जिया ने ऐसे दलों और संगठनों को संरक्षण दिया, जो भारत विरोध के लिए जाने जाते हैं और जिनका संबंध पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी से है।
बांग्लादेश की आजादी में भारत की एक बड़ी भूमिका थी। 1971 में भारत के दखल के चलते ही बांग्लादेश का निर्माण हुआ। बांग्लादेश के निर्माण के बाद भी वहां ऐसे लोग सक्रिय बने रहे, जो पाकिस्तानपरस्त थे। शेख हसीना से न केवल अमेरिका और यूरोपीय देश खफा थे, बल्कि चीन भी उन्हें पसंद नहीं कर रहा था। भारत को महत्व देने की उनकी नीति चीन को रास नहीं आ रही थी। अभी हाल में उन्हें चीन का अपना दौरा अधूरा छोड़कर लौटना पड़ा था। यह वही समय था, जब बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन जोर पकड़ रहा था। यह आंदोलन छात्रों की ओर से शुरू किया गया था। ये छात्र बांग्लादेश की आजादी में शामिल परिवारों के आश्रितों को मिले 30 प्रतिशत आरक्षण को खत्म करने की मांग कर रहे थे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आरक्षण में भारी कटौती कर दी, लेकिन शेख हसीना के खिलाफ छिड़ा आंदोलन शांत नहीं हुआ। इस आंदोलन ने जिस तरह उन्हें हटाने की मुहिम छेड़ दी, उससे यही स्पष्ट होता है कि उसका उद्देश्य आरक्षण को खत्म कराना नहीं, बल्कि सत्ता परिवर्तन करना था।
बांग्लादेश में तख्तापलट का इतिहास रहा है। शेख हसीना के पिता शेख मुजीब और उनके परिवार के कई सदस्यों की हत्या ऐसे ही एक तख्तापलट में सेना की ओर से की गई थी। बांग्लादेश की सेना कई बार देश की सत्ता संभाल चुकी है। इस बार अच्छी बात यह हुई कि उसने सत्ता की बागडोर सीधे अपने हाथ में नहीं रखी। अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ मुहम्मद यूनुस ने शपथ ले ली है। उनके नेतृत्व वाली सरकार में कट्टरपंथियों का दबदबा तो नहीं दिख रहा है, लेकिन कहना कठिन है कि आगे क्या होगा? चूंकि यूनुस नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, इसलिए पश्चिमी देशों में उनकी अच्छी पकड़ है। उनकी शेख हसीना से कभी नहीं बनी। शेख हसीना सरकार के समय उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें एक समय नजरबंद भी किया गया। यूनुस की तरह अन्य अनेक प्रभावशाली लोग भी शेख हसीना को पसंद नहीं करते थे और इसी कारण वे उन तत्वों का साथ खड़े हो गए, जो उन्हें सत्ता से हटाना चाहते थे।
दुर्भाग्य की बात यह रही कि शेख हसीना के विरोधियों ने हिंदुओं एवं अन्य अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों की कोई परवाह नहीं की। इसी कारण हिंदुओं पर अब भी हमले हो रहे हैं। चूंकि शेख हसीना ने भारत में शरण ली है, इसलिए उनके विरोधी यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि वह भारत के इशारे पर चलती थीं। इन स्थितियों में भारत के लिए अनिश्चितता से घिरे बांग्लादेश में अपने हित सुरक्षित रखना कठिन हो सकता है। यदि बांग्लादेश चीन के पाले में चला गया तो भारत की चुनौती और बढ़ जाएगी। यह ध्यान रहे कि नेपाल, मालदीव और म्यांमार में चीन का प्रभाव पहले से है और पाकिस्तान तो एक तरह से उसकी जेब में ही है।
प्रधानमंत्री मोदी ने बांग्लादेश में अंतरिम सरकार की कमान संभालने वाले मुहम्मद यूनुस को बधाई देते हुए यह अपेक्षा जताई है कि वह हिंदुओं पर हमलों के सिलसिले पर लगाम लगाएंगे। खुद यूनुस ने कहा है कि यदि हिंसा नहीं रुकी तो उनके लिए देश का नेतृत्व करना मुश्किल हो जाएगा। देखना है कि उनकी बात का कितना असर पड़ता है। उनके पास कोई राजनीतिक या प्रशासनिक अनुभव नहीं है और इस समय बांग्लादेश गंभीर चुनौतियों से घिरा है। यह जितना भारत के हित में है, उतना ही बांग्लादेश के भी कि दोनो देशों के संबंध मित्रवत बने रहें। यह तभी संभव हो पाएगा, जब बांग्लादेश की नई सरकार भारत को अपने हितैषी के रूप में देखेगी।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]