[पंकज चतुर्वेदी]। इसे महज बहाना ही अधिक माना जाना चाहिए कि बरसात का नब्बे साल का रिकार्ड टूट गया, इसलिए सिलिकान सिटी के रूप में मशहूर बेंगलुरु डूब गया। बेंगलुरु दुनिया के उन शहरों में शुमार है, जिस पर केपटाउन की तरह 'शून्य जल' की आशंका वाली तलवार लटकी हुई है। बेंगलुरु में इस मौसम में ही कम से कम तीन बार शहर की सड़कों पर भारी सैलाब देखा गया। बीते रविवार की रात रिकार्ड 131.6 मिमी बारिश हुई, जिसे एक दिन में इस शहर की अब तक की तीसरी सबसे अधिक बारिश कहा गया। इससे सारा शहर जलमग्न हो गया, सड़कों पर नाव चलने लगीं। बहुमंजिला इमारतों में पहली मंजिल तक पानी था। जिन लोगों को दफ्तर जाना जरूरी था, वे ट्रैक्टर का सहारा लेने को विवश हुए। महंगी कारें सड़कों पर उतराने लगीं। चूंकि जलभराव था इसलिए बिजली भी गुल और पेयजल से लेकर खाने तक का संकट हो गया।

एक समय बेंगलुरु में जल निधियों का ऐसा जाल हुआ करता था कि लगातार सात दिन भी बरसात हो तो कहीं जल जमाव की नौबत न आए, लेकिन समय के साथ शहर की झीलों पर बस्तियां बस गईं और जो बचीं, उनमें कूड़ा-करकट भर दिया गया। किसी नगर के नैसर्गिक पर्यावास से छेड़छाड़ करने का नुकसान समाज को किस तरह भुगतना पड़ता है, बेंगलुरु इसकी ताजा बानगी है। अकेले बेंगलुरु ही नहीं, चेन्नई हो या मुंबई, अब हर साल थोड़ी सी बरसात में ये महानगर त्राहि-त्राहि करते दिखते हैं। आम तौर पर हर जगह बरसात के आधिक्य और सीवेज सिस्टम पर ठीकरा फोड़ा जाता है, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि ये सभी शहर ऐसी नदियों, तालाबों और झीलों की नैसर्गिक सौगात से संपन्न रहे हैं, जो हर तरह की बरसात को अपने में समा लेने में सक्षम थे। हमने अपने लोभ में इन जल निधियों को खत्म कर दिया। इसके ही दुष्परिणाम हमें भुगतने पड़ रहे हैं।

बेंगलुरु की नालियों और सीवरों की क्षमता महज 80 मिमी बारिश झेलने की है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि शहर की जल निधियों की क्षमता भी इतनी ही है। इस महानगर की सबसे व्यस्त सड़क होसूर रोड के पानी से लबालब होने का खामियाजा कई आइटी कंपनियों और बीपीओ को भुगतना पड़ा। आवागमन बंद था, सो वहां काम ठप हो गया। असल में होसूर रोड पर आई कयामत का कारण इस सड़क पर स्थित सभी सात झीलों का लबालब होकर उफन आना था। बेंगलुरु हो या अन्य महानगर, उनके तालाब सदियों पुराने तालाब-शिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे। बीते दो दशकों के दौरान बेंगलुरु के तालाबों में मिट्टी भरकर कालोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों में पानी की आवक और निकासी को भी पक्के निर्माणों से रोक दिया गया। इस शहर के 43 तालाब देखते ही देखते मैदानों और फिर दुकानों-मकानों में तब्दील हो गए और आज बाढ़ का असर वहां ही ज्यादा होता है, जहां ये तालाब थे। कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चल्लाघट्टा झील को सुखाया गया, तो कांतीरव स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया। अशोक नगर के फुटबाल स्टेडियम की जगह तालाब हुआ करता था। इसी तरह आज जहां साईं हाकी स्टेडियम हैं, वहां अक्कीतम्मा झील थी। अगासना तालाब अब गायत्री देवी पार्क बन गया है।

बेंगलुरु जैसी कहानी मुंबई की भी है। मुंबई में बाढ़ का असली कारण महानगर की चार नदियों- मीठी, दहिसर, ओशिवारा और पोइसर को सीवर में बदल देना है। ये नदियां महज बरसात के पानी को समेटकर सहजता से समुद्र तक पहुंचाने का काम ही नहीं करती थीं, बल्कि उनके तट पर बसे मैंग्रोव वनों के चलते बाढ़ बस्ती तक नहीं जा पाती थी।

हैदराबाद में मशहूर हुसैन सागर के साथ–साथ उस्मान सागर, हिमायत सागर, सिंगानूर,मंजीरा और अक्कमपल्ली तालाब के चारों तरफ अतिक्रमण हुए और पानी की जगह मलबे और गंदगी ने ली। इससे बरसात का पानी अब गली-मुहल्लों में भरने लगा।

चेन्नई में बाढ़ शहर के बीच से गुजरती दो नदियों–अद्यार एवं कुवम और ब्रिटिश सरकार द्वारा बनवाई चार सौ किमी लंबी नहर के कूड़े से भरने और अतिक्रमण के कारण ही आती है। यहां भी नदी के किनारों को मिट्टी से पाटकर बड़े-बड़े माल खड़े कर दिए गए। हमें यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन के दौर में अनियमित और चरम बरसात एक आम बात होगी और इसके लिए अब महानगरों को तैयार रहना होगा। उनके पुराने सीवर सिस्टम में सुधार से भी ज्यादा जरुरी है कि हर तालाब, नदी या झील के जलग्रहण क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त किया जाए। झीलों को उथला बना रही गाद को निकाला जाए। कहने को तो कर्नाटक सरकार ने बाकायदा झील विकास प्राधिकरण का गठन कर रखा है, लेकिन इस संस्था के पास झीलों में हो रहे अतिक्रमण या फिर विकास के नाम पर उन्हें उजाड़ने से रोकने की कोई ठोस योजना नहीं है।

पिछले अनुभव यही कड़वा सच उजागर करते हैं कि हजारों तालाबों का जीर्णोद्धार सरकार की बदौलत होने से रहा। कर्नाटक सरकार अब जन सहयोग के भरोसे 60 प्रतिशत तालाबों की सफाई की योजना बना रही है। अब यदि महानगरों को अपने वैभव को डूबने से बचाना है तो लोगों को ही अपने नगरों के बचे-खुचे सरेावरों-छोटी नदियों के संरक्षण के लिए आगे आना होगा। ऐसे कई उदाहरण दूरस्थ अंचलों में देखने को मिले हैं, जहां ग्रामीणों ने अपने संसाधनों से ही अपने भविष्य के लिए प्रकृति की जल निधियों की देखभाल का जिम्मा उठाया। यह काम अब हर छोटे-बड़े नगरों-महानगरों को करना होगा, अन्यथा उन्हें वैसे ही हालात से जूझना होगा, जिससे आज बेंगलुरु जूझ रहा है।

(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)