[ प्रदीप सिंह ]: मुझे देश के उन स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महान अफसरों की तलाश है जो एक भारत विरोधी संपादक के घर एक राज्य की पुलिस के जाने को मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनतंत्र पर खतरा बता रहे थे। महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं को पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर हत्या उनके लिए सामान्य बात है। इस घटना पर उनका रवैया ऐसा है, जैसे जो हुआ ठीक हुआ। आतंकियों को बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा आधी रात को खुलवाने वाले बुद्धिजीवी और कांग्रेसी वकील कान में तेल डालकर सोते रहे।

उद्धव की खीझ निकली बुलंदशहर में दो साधुओं की हत्या पर

उद्धव ने साधुओं की हत्या के मामले में मजबूरी में कार्रवाई की। उनकी खीझ निकली बुलंदशहर में दो साधुओं की हत्या पर। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन किया, क्योंकि योगी ने पालघर की घटना पर उनसे बात की थी।

रंजिश में हत्या और पुलिस की निगरानी में दो साधुओं और ड्राइवर की हत्या में क्या फर्क

एक बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री सामान्य ज्ञान की यह बात समझने में असमर्थ रहा कि रंजिश में हत्या और पुलिस की निगरानी में कई सौ लोगों द्वारा दो साधुओं और उनके ड्राइवर की हत्या में क्या फर्क है? जनतंत्र के किसी पहरुए ने अभी तक पालघर की घटना को मॉब लिंचिंग नहीं बताया और न ही असहिष्णुता का ढोल पीटा। इस मॉब लिंचिंग पर तीखे सवाल पूछने वाले अर्नब गोस्वामी से मुंबई पुलिस ने 12 घंटे पूछताछ अवश्य की। अर्नब के खिलाफ कांग्रेसियों का देशव्यापी आर्तनाद तो सुनाई दिया, पर साधुओं की हत्या पर सन्नाटा रहा।

अर्नब गोस्वामी से पुलिसिया पूछताछ

अर्नब से पुलिसिया पूछताछ पर यह भी कहा जा रहा कि भाई पुलिस है, किसी से भी पूछताछ कर सकती है। बात तो ठीक है, लेकिन दो तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को हिदायत दी थी कि तीन हफ्ते तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी। 12 घंटे थाने में बैठाकर रखना उत्पीड़न नहीं है, यह कहने वाले याद रखें कि किसी दिन यही बयान उनके खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है।

अर्नब पर हमला करने वाले कांग्रेसी जमानत पर छूट गए

दूसरा, अर्नब शिकायतकर्ता हैं। उन पर हमला हुआ था। उन पर हमला करने वाले कांग्रेसी दो दिन में जमानत पर छूट गए, क्योंकि मुंबई पुलिस ने उनकी जमानत का विरोध नहीं किया। करती भी कैसे, हमलावर सोनिया जी के कार्यकर्ता थे और उद्धव ठाकरे की सरकार उन्हीं की कृपा से चल रही है। सत्ता कृपा से मिली हो तो उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। नेताओं की याद्दाश्त अक्सर कमजोर होती है। सो उद्धव ठाकरे की भी है। वह भूल गए कि उनके दिंवगत पिता बाला साहब ठाकरे का सोनिया के बारे में क्या विचार था, पर बाला साहब की राजनीति सोनिया की कृपा की मोहताज नहीं थी।

सोनिया के कारण अर्नब के खिलाफ कई एफआइआर दर्ज 

अर्नब के खिलाफ जो डेढ़-दो सौ एफआइआर दर्ज हुई हैं वे इसीलिए दर्ज हुईं कि सोनिया जी का नाम लेने की हिम्मत की। जो सोनिया जी का नाम लेगा उसकी हिम्मत तोड़ना और सबक सिखाना जरूरी है। वास्तव में दरबारी कांग्रेसियों की आंखें सोनिया जी की विराटता देखने की इतनी आदी हो चुकी हैं कि उन्हें सूक्ष्म दिखता ही नहीं। उन्हें सोनिया के जन्म के देश और शादी से पूर्व का नाम लेना नाकाबिले बर्दाश्त लगता है।

अर्नब ने वह किया जो पहले किसी ने नहीं किया

अर्नब ने वह किया जो पहले किसी ने नहीं किया। उन्होंने इस तिलिस्म को तोड़ दिया कि ‘परिवार’ के बारे में कोई कुछ व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं कर सकता। आप इस देश के प्रधानमंत्री को गाली दीजिए। संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के बारे में कुछ भी बोलिए, वह सब संविधान से मिली वाणी स्वतंत्रता के दायरे में आता है। आप चाहें तो इस देश के खिलाफ भी बोल सकते हैं। इसे आपका मौलिक अधिकार माना जाएगा, जिसे कोई नहीं छीन सकता, पर कांग्रेस की नजर में भारतीय संविधान का एक अलिखित अनुच्छेद है जो लिखे हुए संविधान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है और वह यह कि ‘परिवार’ संवैधानिक व्यवस्थाओं और कानून से ऊपर है।

आज की पत्रकारिता में कोई यह नहीं कह सकता कि उसकी कमीज दूसरे से ज्यादा सफेद है

आज जिस तरह की पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता हो रही है उसमें कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसकी कमीज दूसरे से ज्यादा सफेद है। कोई लुटियन मीडिया की बात करता है तो कोई गोदी मीडिया की। अपना-अपना एजेंडा चलाने का समय चला गया। अब अपना-अपना एजेंडा बेचने का समय है। पत्रकारिता का प्रमाण पत्र बांटने का धंधा तेजी पर है। क्षण भर में घोषणा हो जाती है कि फलां को तो मैं पत्रकार मानता ही नहीं। समर्थन-विरोध की एक मुहिम चल पड़ती है। मुहिम चलाने वाले कभी अपने गिरेबां में नहीं झांकते। फल के ठेले पर भगवा झंडा लगाने वाले दलित के खिलाफ तो आप मुकदमा दायर कर सकते हैं, लेकिन मीडिया की इन दुकानों का क्या?

कांग्रेस में नेहरू के बाद की पीढ़ियों में आया बदलाव 

कांग्रेस में नेहरू के बाद की पीढ़ियों में एक बदलाव आया है। नेहरू को अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं थी। इसे रोकने के लिए 1951 में संविधान में पहला संशोधन हुआ। बदलाव यह आया है कि परिवार को छोड़कर पार्टी की नीतियों या उसके बाकी नेताओं की आलोचना से अब कोई एतराज नहीं है। ऐसा करने वाले पत्रकारों को पद्मश्री ही नहीं और भी बहुत कुछ मिल सकता है। इससे दो काम होते हैं। एक परिवार के स्वामिभक्त उसका रक्षा कवच बने रहते हैं।

निष्पक्ष पत्रकार होने का दावा

दूसरे निष्पक्ष पत्रकार होने का उनका दावा भी बना रहता है कि देखिए हमने तो कांग्रेस सरकार की भी आलोचना की थी। उसके बाद कोई परिवार की आलोचना करे तो यह हरावल दस्ता उस पर टूट पड़ता है। उसे संघी बताया जाएगा। उससे बात न बने तो भक्त और गोदी मीडिया वाला बता दो और उससे भी बात न बने तो घोषित कर दो कि वह तो पत्रकार है ही नहीं। उसके बाद कांग्रेसी सरकारें और नेता उस पर टूट पड़ेंगे।

अर्नब से हिसाब-किताब बराबर करना

जो वर्ग अर्नब के खिलाफ उद्धव ठाकरे सरकार की पुलिसिया कार्रवाई से खुश हो रहा वह विरोधी विचारधारा वाली सत्ता का मार्ग सुगम कर रहा, एक नजीर पेश कर रहा। इस वर्ग में अभी तो पुलिस के घर पहुंचने पर ही हाहाकार है। जब थाने बुलाया जाएगा तो 12 घंटे ही पूछताछ होगी, यह जरूरी तो नहीं। यह वर्ग अर्नब से हिसाब-किताब बराबर करने या उन्हें गिराने के चक्कर में पूरे मीडिया जगत के लिए खतरे को घर के दरवाजे पर ले आया है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )