नई दिल्ली [ प्रो. मक्खन लाल ]। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जिसका कोई अतीत न हो। अतीत अच्छा और बुरा दोनों किस्म का होता है। इतिहास, इतिहास होता है और उसमें शुद्ध या अशुद्ध जैसी कोई बात नहीं होती। शायद भारत ही इस मामले में इकलौता देश है जहां ऐतिहासिक अतीत के साथ बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ कर उसे सुविधाजनक तरीके से पेश किया जाता है। प्राचीन भारत के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक इतिहास को गलत तरीके से पेश करने और विधि, राजनीति एवं विज्ञान के क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों को नकारने की लगातार कोशिशें हुई हैं। जब बात मध्यकालीन भारत की आती है तो उसे भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दौर बताने और तत्कालीन शासकों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों को छिपाने की भरसक कोशिश की जाती है। इसी कड़ी में एक कथित सेक्युलर ‘विद्वान’ तो यह साबित करने में जुट गए कि वैदिक काल में हिंदू विशेषकर ब्राह्मण गोमांस खाते थे। इसके लिए उन्होंने ऋग्वेद के तमाम स्नोतों का उल्लेख भी किया, लेकिन अगर वह समग्र विश्लेषण की जहमत उठाते तो उन्हें वहां गाय के बजाय भैंस का उल्लेख मिलता।

भारत और भारतीयों को लेकर बाबर की सोच आकर्षक नहीं

कालांतर में उन्होंने यह दलील भी रखी कि बाबर ने अयोध्या में राम मंदिर का विध्वंस नहीं कराया और न ही उसके स्थान पर वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। यह भी साबित करने की कोशिश की गई कि बाबर भारत और भारतीयों से प्रेम करने वाला बहुत ही सहिष्णु शासक था। उसने कभी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया और वह गाजी नहीं, बल्कि पंथनिरपेक्ष शासक था। ऐसे में खुद बाबर की क्या सोच थी, इसका जायजा लेने के लिए उसकी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ से बेहतर कोई और दस्तावेज नहीं हो सकता। बाबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद कई लोगों ने किया है। मैैं 1921 में एएस बेवरिज की ओर से अंग्रेजी में प्रकाशित ‘बाबरनामा’ की सहायता ले रहा हूं। इसमें भारत और भारतीयों को लेकर बाबर की सोच कुछ इस तरह झलकती है, ‘‘हिंदुस्तानी मूर्तिपूजक हैं। यहां आकर्षण के लिए कम ही चीजें हैं। यहां के लोग दिखने में आकर्षक नहीं हैं। सामाजिक मेलजोल बहुत कम है। हस्तशिल्प और काश्तकारी में सौंदर्य नहीं। यहां न तो अच्छे घोड़े हैं और न बढ़िया नस्ल के कुत्ते। अंगूर, खरबूजे या आला दर्जे का कोई फल भी यहां नहीं होता। बर्फ और ठंडे पानी का नामोनिशान नहीं। बाजार में अच्छी किस्म की रोटी नहीं। गर्म पानी से नहाने का चलन नहीं। किसान और निचले तबके के लोग अधनंगे ही घूमते हैं।’’

‘1527 में हिंदुओं और मूर्तिपूजकों से जंग लड़ी और मैं गाजी बन गया’

मार्च 1527 में मेवात और आसपास के इलाकों में हुई लड़ाई के बाद उसने लिखा, ‘‘सभी हिंदुओं का कत्लेआम कर दिया गया है, उनकी लाशों के पहाड़ बन गए हैं और हर एक पहाड़ी से खून का फव्वारा फूट रहा है। अल्लाह के आदेश को पूरा करना होगा।’’ उसने यह 29 मार्च, 1527 को लिखा। उसने आगे लिखा, ‘‘इस्लाम की खातिर मैं जंगलों में इधर-उधर भटका, हिंदुओं और मूर्तिपूजकों से जंग लड़ी और अल्लाह का शुक्र है कि मैं गाजी बन गया।’’ जो लोग बाबर को धर्मांध नहीं मानते उन्हें खुद बाबर द्वारा लिखी इन बातों को पढ़ना चाहिए। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशों से इसका संकेत भी मिलता है। इसमें एक खास तौर से उल्लेखनीय है। इसका सार है, ‘‘जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।’’

बाबर के न्याय का दायरा जन्नत तक पहुंचा

इसकी व्याख्या इस रूप में है, चूंकि न्याय राजा का प्रमुख गुण होता है तो बाबर के न्याय का दायरा इस दुनिया की सीमाओं को तोड़ते हुए जन्नत तक पहुंच गया। दूसरे संदेश में उस मीर बकी का जिक्र है जिसे मस्जिद निर्माण का जिम्मा सौंपा गया। चूंकि उसे फरिश्तों के लिए माकूल जगह के तौर पर तैयार किया जाना था तो कुछ खास हिदायतें भी थीं। मसलन इसकी पर्याप्त ऊंचाई, विशुद्ध धार्मिक परिवेश, असाधारण रूप से साफ-सफाई और इसे खूबसूरत बनाने का खास ख्याल रखने के निर्देश मिले। फिर एक जगह 935 की संख्या का उल्लेख है। यहां कुरान के धार्मिक उपदेश का संदर्भ देते हुए कवि का कहना है कि किसी इंसान के अच्छे कर्म उसकी मौत के बाद भी याद किए जाते हैं और यह मस्जिद ऐसी ही एक मिसाल है।

1528 में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया

निश्चित तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि 1528 में अयोध्या के आसपास अपने पड़ाव के दौरान ही बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया होगा जब वह भगवान राम की भव्यता और दिव्यता से प्रभावित हुआ होगा। चूंकि वह मोहम्मद का सच्चा अनुयायी था तो अन्य धर्मों को लेकर उसका रवैया असहिष्णु था। ऐसे में उसने मंदिर के स्थान पर मस्जिद निर्माण का फैसला किया। 935 हिजरी संवत में जाकर मस्जिद का निर्माण पूरा हुआ। जो लोग इससे इन्कार करते हैं कि राम मंदिर के विध्वंस का आदेश बाबर ने नहीं दिया था वे यह भी दलील देते हैं कि बाबरनामा में इसका कोई जिक्र नहीं। हालांकि वे इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि 934 से 935 हिजरी संवत के बीच बाबरनामा में तमाम झोल रहे हैं।

बाबरनामा में 2 अप्रैल से लेकर 18 सितंबर, 1528 के बीच की घटनाओं का उल्लेख नहीं

बाबरनामा के सभी साक्ष्यों में 2 अप्रैल से लेकर 18 सितंबर, 1528 के बीच की घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। हालांकि यह अनजाने में हुआ या जानबूझकर, इसकी जानकारी किसी भी स्नोत से नहीं मिलती। यह अंतराल शायद बाबर की हस्ताक्षरित पांडुलिपि गुम होने के कारण आया जिसके पन्ने खराब मौसम और तूफान की भेंट चढ़ गए थे। ऐसे एक वाकये का जिक्र बाबर ने खुद बाबरनामा में किया है। उसने लिखा, ‘उस रात घड़ी पांच पहर से आगे बढ़ चुकी थी, तरावीह की इबादत पूरी हो गई थी, तभी बरसात के मौसम में एकाएक बादल फटने पर आमादा हो गया जिसके तेज असर में लगभग सभी तंबू उखड़ गए। इससे पहले कि मैं कागज और अन्य चीजों को सहेजकर रखता तभी मेरे तंबू का दरवाजा उखड़कर मेरे सिर पर आ लगा। खुदा के खैर से मैं बच गया, लेकिन कागज और अन्य सामान पूरी तरह पानी में भीग गए थे।’

बाबर को भारत और भारतीयों से कोई लगाव नहीं था

हालांकि इन साढ़े पांच महीनों के दौरान बाबर के कई जगहों पर उलझने से तमाम अन्य निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं। इनमें जौनपुर, चौसा और बक्सर का रण हो या फिर राणा सांगा के बेटे विक्रमजीत के साथ वार्ता। इसी दौरान चारबाग की स्थापना के आदेश की भी बात है तो चालीस दिन लंबी चली उसकी बीमारी की भी। यह भी कि उसने दूलपुर का दौरा किया, अक्सरी को वापस बुलाया, काबुल में पारिवारिक मामलों को संभालने के लिए ख्वाजा-दोस्त-ए-खावंद को वहां भेजा और काफी हद तक अस्थिर काबुल राज्य को संभालने में ही उलझा रहा। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि 2 अप्रैल से 18 सितंबर, 1528 के बीच बाबर पूर्वी उत्तर प्रदेश में अयोध्या या फिर उसके आसपास के इलाकों में ही था। बाबरनामा के विवरण से साफ है कि बाबर को भारत और भारतीयों से कोई लगाव नहीं था। मेवात इलाके में कुछ लड़ाइयां जीतने के बाद उसने खुद को गाजी यानी अल्लाह की लड़ाई लड़ने वाला योद्धा घोषित किया और अयोध्या में राम मंदिर विध्वंस के दौरान वह अयोध्या के आसपास ही था।

[ लेखक इतिहासकार एवं दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ हेरीटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट के संस्थापक निदेशक हैैं ]