[ प्रो. मक्खन लाल ]: लंबी प्रतीक्षा के बाद अयोध्या विवाद पर उच्चतम न्यायालय का फैसला आ गया। इसे सभी ने जिस तरह शांतचित्त होकर स्वीकार किया वह सराहनीय है। अच्छा तो यह होता कि इस विवाद पर अदालती निर्णय की नौबत न आती और दोनों पक्ष मिलकर इस मसले को सुलझा लेते। अगर ऐसा होता तो शायद किसी के मन में कोई मलाल न रहता। ऐसा नहीं हो सका, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि अदालती फैसले पर करीब-करीब सभी ने कहा कि हमें वह मान्य है। एक स्वतंत्र एवं जीवंत प्रजातंत्र में सभी को अपनी राय रखने का हक है, लेकिन संविधान द्वारा स्थापित सर्वोच्च वैधानिक निर्णय का सम्मान भी सबकी जिम्मेदारी है।

पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों से सुप्रीम कोर्ट को मिली मदद

एक इतिहासकार होने के नाते मैंने इस विवाद पर सदैव निगाह रखी। मैैं तब चकित हुआ जब इसमें कुछ वामपंथी कहे-माने जाने वाले इतिहासकार और पुरातत्वविद् एक पक्ष में खड़े हो गए। विवाद को बढ़ाने में उन इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की बड़ी भूमिका रही जिन्हें हमने अपने विद्यार्थी जीवन में बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा था। इन इतिहासकारों एवं पुरातत्वविदों में जो जीवित हैैं उन्हें और जो उनके मत को सही मानते रहे उन्हें 9 नवंबर को उच्चतम न्यायालय की ओर से दिए गए निर्णय को अवश्य पढ़ना चाहिए। उन्हें यह जानकर हैरत होगी कि यह निर्णय एक बड़ी हद तक पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित है।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों पर 200 पृष्ठों में दी विवेचना

शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों पर करीब दो सौ पृष्ठों में (पृष्ठ 507 से 706; पैरा 447 से 598) अपनी विवेचना दी है। विवेचना के इन बिंदुओं का जिक्र भी जरूरी है। ये बिंदु हैैं 1- पुरातात्विक रिपोर्ट 2- विवादित संरचना की प्रकृति, उपयोग एवं मौखिक साक्ष्य 3-विवादित ढांचे की तस्वीरें 4-विष्णु हरि शिलालेख 5- विश्वास और उसका आधार, यात्रा वृतांत, गजेटियर और पुस्तकें, 6- इतिहासकारों की रिपोर्ट। इन्हें पढ़कर पता चलता है कि जब इतिहासकार और पुरातत्वविद अपने विवेक को छोड़कर संकीर्ण राजनीति से प्रेरित होकर काम करते हैं तो उनका अपना और विषय का हश्र क्या होता है?

माकपा की पुस्तक ने तो राम के जन्म पर ही सवाल खड़े कर दिए

हमें इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की भूमिका पर विचार करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहासकारों की ओर से प्रकाशित डॉक्यूमेंट: ‘द पॉलिटिकल अब्यूज ऑफहिस्ट्री’ नामक पुस्तिका देखनी होगी। यह पुस्तिका माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी और मार्क्सवादी पत्रिका सोशल साइंटिस्ट के अतिरिक्त अन्यत्र भी प्रकाशित की गई थी। इसमें उन समस्त बातों का जिक्र है जिनसे राम, रामजन्मभूमि और राम मंदिर का सरोकार था। तीन भागों में विभाजित इस पुस्तिका के पहले भाग में पारंपरिक हिंदू साहित्य और शास्त्रों में राम, राम के जन्म और अयोध्या से संबंधित वर्णनों को सिरे से नकारते हुए कहा गया, ‘आज की अयोध्या प्राचीन अयोध्या नहीं है। उसे तो अफगाानिस्तान में ढूंढा जाना चाहिए। राम के जन्म का तो कोई प्रमाण ही नहीं है और जहां बाबरी मस्जिद खड़ी है वह तो जन्मस्थान हो ही नहीं सकता।’

सभी साक्ष्यों के आलोक में साबित होता है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ- कोर्ट

इन इतिहासकारों ने समस्त मौखिक परंपरा, विशाल साहित्य भंडार और धार्मिक मान्यताओं को सिरे से खारिज किया। स्वाभाविक रूप से इसका साक्ष्यों समेत विरोध किया गया, लेकिन फिलहाल तो यही देखा जाना चाहिए कि न्यायालय ने क्या कहा है? उसने कहा है कि सभी साक्ष्यों के आलोक में यह निर्विवाद रूप से साबित होता है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ और इस तथ्य को मुस्लिम पक्षकारों ने भी माना।

साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि राम का जन्म वहीं हुआ जहां बाबरी मस्जिद थी

साक्ष्यों से यह भी सिद्ध होता है कि राम का जन्म वहीं हुआ जहां बाबरी मस्जिद थी। इस पुस्तिका के दूसरे भाग में राम कथा एवं राम की प्राचीनता के बारे में लिखा गया, ‘राम का पंथ 13वीं शताब्दी से लोकप्रिय हुआ। उसने रामानंदी संप्रदाय के क्रमिक उदय और हिंदी में राम कथा की रचना के साथ जोर पकड़ा। 15वीं और 16वीं शताब्दी में भी रामानंदी अयोध्या में बड़े पैमाने पर नहीं बसे थे। राम के पंथ की तुलना में शैववाद अधिक महत्वपूर्ण था। केवल 18 वीं शताब्दी से हम रामानंदी साधुओं को बड़े पैमाने पर बसते हळ्ए पाते हैं।’ हालांकि तमाम साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाणों से यही सिद्ध हुआ कि राम पंथ की प्राचीनता सहस्त्राब्दियों पुरानी है, न कि 15-16वीं शताब्दी की। उक्त पुस्तिका के तीसरे भाग में इस विवाद से संबंधित सभी पुरातात्विक साक्ष्यों को भी नकारा गया।

इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने दी गलत जानकारी

इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने न केवल मस्जिद में प्रयुक्त कसौटी स्तंभों के बारे में गलत जानकारी दी, वरन ख्याति प्राप्त पुरातत्वविद प्रो. ब्रजबासी लाल द्वारा किए गए उत्खनन में मिले साक्ष्यों को भी यह कहकर नकार दिया कि ये सब गढ़े गए हैैं। मस्जिद के पिछले हिस्से के उत्खनन में मिले मंदिर के स्तंभों के आधारों को भी झुठलाने की कोशिश की गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर हुए उत्खनन की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए गए। ये विद्वान यह भूल गए कि उत्खनन उच्च न्यायालय के आदेश पर एवं न्यायाधीशों की निगरानी में हुआ और उसकी वीडियो रिकार्डिंग भी की गई। इसके बावजूद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी से जुड़े इतिहासकारों ने किसी भी साक्ष्य को प्रामाणिक मानने से इन्कार कर दिया।

उत्खनन में मिले पत्थरों के स्तंभों से यही लगता है कि वे मंदिर हैं

उत्खनन में मिले 85 स्तंभों के आधार के बारे में कहा गया कि ये सभी भिन्न आकार के हैैं और एक क्रम में नहीं हैं साथ ही भार वहन नहीं करते। ये आधार लकड़ी के खंभे होने का समर्थन करते हैं न कि पत्थर के, लेकिन उच्चतम न्यायलय ने इन सभी दलीलों को मानने से इन्कार किया और यह माना कि स्तंभों के आधार एक क्रम में हैं और वे भारी-भरकम इमारत के आधार थे। उसने यह भी माना कि बाबरी मस्जिद में इस्तेमाल पत्थरों के स्तंभों से यही लगता है कि वे किसी मंदिर के ही हैं।

इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की गलती को सुप्रीम कोर्ट ने सुधारी

इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किए गए उत्खनन में मिले गोलाकार मंदिर के साक्ष्य को भी यह कह कर नकारा कि यह तो मकबरे का भी हो सकता है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह अकल्पनीय है कि स्पष्ट विशेषताओं के बावजूद आपत्तिकर्ता इसे एक मुस्लिम मकबरे के रूप में पहचान कर रहे हैं। यह एक मकबरे के लिए बहुत छोटी संरचना है, क्योंकि इसके अंदर केवल 4.4 वर्ग फीट ही जगह है। समग्र दृष्टिकोण में हमें इसके मंदिर होने में संदेह करने का कोई कारण नहीं मिलता है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इतिहासकारों और पुरातत्वविदों कोे आईना दिखाया

आज मुझे वे दिन याद आ रहे हैैं जब अयोध्या विवाद चरम पर था और मैैं अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुरातत्व विभाग का उप निदेशक था। मैंने अपने साथियों से कहा था कि जो रास्ता हम ले रहे हैं उससे अपयश ही मिलेगा, क्योंकि पुरातात्विक साक्ष्यों को पूर्वाग्रह से नहीं देखा जा सकता। इस सलाह के लिए मुझे उपेक्षा, उपहास और प्रताड़ना मिली, लेकिन आज इस पर संतोष है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले ने उन इतिहासकारों और पुरातत्वविदों कोे आईना दिखाया जो साक्ष्यों से खुलकर खेल रहे थे।

( लेखक इतिहासकार हैैं )