[ संजय गुप्त ]: उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या मामले की सुनवाई एक बार फिर टाल दी। गनीमत है इस बार सुनवाई एक सप्ताह ही टली, क्योंकि पिछली बार करीब दो महीने के लिए इस आधार पर टाली गई थी कि नई पीठ का गठन किया जाना है। कोई नहीं जानता कि अभी तक यह काम क्यों नहीं हो पाया? खैर अब देखना यह है कि दस जनवरी से नई पीठ अयोध्या मामले की सुनवाई दिन-प्रतिदिन करती है या फिर तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम करती है? जो भी हो, बीते आठ साल में सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस मामले का निपटारा न हो पाना तमाम लोगों के लिए रोष और असंतोष का विषय है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि आखिर करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़े इस मामले के निपटारे को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जा रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भगवान राम देश की अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैैं। अयोध्या उनकी स्मृति का स्थल और पर्याय है। अगर राम के नाम का मंदिर उनके जन्मस्थान पर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? जो भी राजनीतिक संकीर्णता और स्वार्थ के चलते अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का विरोध कर रहे हैैं वे लोगों की भावनाओं और इस देश की अस्मिता की अनदेखी ही कर रहे हैैं, क्योंकि राम तो देश की संस्कृति के रोम-रोम में बसे हैैं।

सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामला जमीन के मालिकाना हक के विवाद के रूप में है। यह विवाद सदियों पुराना है। मुगल शासकों के समय से ही हिंदू समाज अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना के लिए संघर्ष करता रहा। तमाम प्रतिकूल हालात के बाद भी हिंदू समाज राम जन्म स्थान पर जबरन बनवाई गई बाबरी मस्जिद को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। अंग्रेज शासकों ने कभी अयोध्या विवाद का समाधान करने की कोशिश नहीं की। उलटे उन्होंने इस विवाद के बहाने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाने की कोशिश की। उम्मीद की जा रही थी कि आजादी के बाद राम जन्म स्थान पर राम मंदिर निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा जाएगा-ठीक वैसे ही जैसे गुजरात में सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करके बढ़ा गया, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक कारणों से अयोध्या मसले की अनदेखी कर दी गई। 

जब राजीव गांधी सरकार ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया तो हिंदू समाज में इसकी तीखी प्रतिक्रिया को देखते हुए अयोध्या में विवादित स्थान का ताला खुलवाने का काम किया गया। इसके बाद जब विवादित ढांचे के स्थान पर राम मंदिर बनाने का अभियान छिड़ा तो वोट बैैंक की राजनीति के चलते इस अभियान की अनदेखी की गई। इस पर भाजपा ने इस अभियान को अपना समर्थन प्रदान किया। इसका उसे राजनीतिक लाभ भी मिला, लेकिन जो लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैैं कि भाजपा चुनाव आते ही राम मंदिर मसले को उठाती है और फिर भूल जाती है उन्हें इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि भाजपा एक बार ही राम मंदिर मसले को उठाकर चुनावी लाभ ले सकी है, जब कल्याण सिंह सरकार बनी थी। 1990 के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं आ सकी। सच तो यह है कि वह लंबे समय तक दूसरे नंबर का दल भी नहीं बन सकी। यह भी किसी से छिपा नहीं कि करीब दो साल पहले भाजपा राज्य की सत्ता में लौटी तो इसमें राम मंदिर मुद्दे की भूमिका नगण्य थी। यही बात 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत पर भी लागू होती है। 

इन दिनों आरएसएस, विहिप और अन्य हिंदू संगठन अयोध्या में जल्द राम मंदिर निर्माण की मांग कर रहे हैैं, लेकिन इस पर गौर किया जाना चाहिए कि यह मांग तभी से तेज हुई है जबसे सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले की सुनवाई टाली। इसके पहले सभी और यहां तक कि शायद खुद सरकार भी यह उम्मीद कर रही थी कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले का निपटारा कर देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाहिर है इस धारणा का ठोस आधार नहीं कि जब-जब चुनाव आते हैैं तब-तब भाजपा राम मंदिर मसले को उठाती है। यह बात अवश्य है कि उसके घोषणा पत्र में राम मंदिर का जिक्र होता है।

नि:संदेह उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद राम मंदिर निर्माण के आकांक्षी लोगों का यह भरोसा बढ़ा कि अब अयोध्या विवाद के समाधान की बाधाएं दूर होंगी। ऐसे लोगों को प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान से निराशा हो सकती है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही अयोध्या विवाद को लेकर सरकार कोई पहल कर सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अगर इस चुनावी माहौल में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए कोई अध्यादेश लाया जाता है तो एक तो यह सवाल उठेगा कि जो मामला सुप्रीम कोर्ट में है उस पर अध्यादेश क्यों लाया गया और दूसरे, उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिया जाना भी तय है और इस तरह मामला वहीं का वहीं रहेगा। इससे सरकार की किरकिरी ही होगी। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट से इस मामले का निपटारा होने में भी देर हो सकती है। इसी के साथ जो राजनीतिक और सामाजिक संगठन राम मंदिर के विरोध में खड़े हैैं वे सरकार के खिलाफ हमलावर हो सकते हैैं और सामाजिक माहौल को बिगाड़ने का काम कर सकते हैैं। ऐसे में राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि न्यायपालिका के फैसले के बाद ही सरकार अयोध्या मामले में कोई कदम उठा सकती है।

अब जब उच्चतम न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा हो रही है तब बेहतर यही होगा कि जो मुस्लिम संगठन अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में हैैं उन्हें साथ लेकर आपसी सहमति से अयोध्या विवाद के हल की कोशिश की जाए। यह कोशिश इसलिए की जानी चाहिए, क्योंकि अदालत का फैसला जिस पक्ष के भी खिलाफ आएगा वह आहत होगा। इससे सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुंच सकती है। अयोध्या में राम के नाम का मंदिर तो कुछ इस तरह से बनना चाहिए जिससे समाज में सद्भाव बढ़े। इसका एक ही उपाय है आपसी सहमति से समाधान की राह निकालना।

अभी तक ऐसी कोई कोशिश इसलिए सफल नहीं हो सकी, क्योंकि कुछ राजनीतिक-गैर राजनीतिक संगठन अयोध्या विवाद के अनसुलझा रहने में ही अपना स्वार्थ देख रहे हैैं। यह तब है जब मुस्लिम समाज का एक तबका यह जानता है कि अयोध्या में बाबर के सेनापति ने मंदिर तोड़कर ही मस्जिद बनाई थी। यह न केवल इस्लामी मान्यताओं के विरुद्ध था, बल्कि हिंदुओं का अपमान भी था। मुस्लिम समाज इससे भी अवगत है कि अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के प्रमाण सामने आ चुके हैैं। अच्छा हो कि राम मंदिर के विरोध के जरिये अपनी राजनीति चमका रहे दल और संगठन यह समझें कि वे सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुंचाने के साथ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा करने का काम कर रहे हैैं। उन्हें राजनीतिक संकीर्णता से परे हटकर यह बुनियादी बात समझनी चाहिए कि राम मंदिर का विरोध न तो समाज के हित में है और न ही देश के।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]