नई दिल्ली, मक्खन लाल। गणतंत्र दिवस और राष्ट्रीय महत्व के ऐसे ही अन्य अवसरों पर हम यह अवलोकन करते हैं कि भारत विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के पथ पर कितना आगे बढ़ा और हम कहां पिछड़ गए? जब 1947 में हमें स्वतंत्रता मिली तब जहां हम अच्छी सुई या ब्लेड तक नहीं बना सकते थे वहीं आज अंतरिक्ष तक पहुंच चुके हैं। जिन लोगों ने आजादी के समय भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर शंका व्यक्त की थी, उन्हें अब यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि भारतीय लोकतंत्र न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि समय के साथ बहुत ही शक्तिशाली बनकर भी उभरा है। प्रौद्योगिकी में आज हम बहुत आगे जा चुके हैं तो जल्द ही ब्रिटेन को पछाड़कर विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले हैं। ये सब मामूली प्रगति नहीं हैं। इन सब उपलब्धियों के पीछे समय के साथ बदलाव की भी भूमिका है।

भारतीय जीवन को प्रभावित करने वाले प्रत्येक क्षेत्र में हुए बदलावों ने प्रगति की आधारशिला रखी है, लेकिन जब हम अपने न्यायिक तंत्र की ओर निगाह डालते हैं तो निराशा होती है। कार्यपालिका और न्यायपालिका, दोनों ही शासन-प्रशासन के ऐसे अंग हैं जिनसे आम जनता को रोज ही दो-चार होना पड़ता है। कार्यपालिका और यहां तक कि विधायिका की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के खिलाफ जनता अपनी असहमति व्यक्त करती है। यह रोष कार्यपालिका और विधायिका में बदलाव को सुनिश्चित करता रहा है। इस बदलाव में कई बार न्यायपालिका ने भी अपना सहयोग दिया, लेकिन लोगों को यह नहीं पता कि न्यायपालिका की खामियों के लिए किसके पास जाएं? लोग न्याय की आशा में न्यायपालिका की शरण में जाते हैं और कई बार दशकों तक सिर्फ इंतजार करते ही रह जाते हैं। कुछ तो इस इंतजार में परलोक भी सिधार जाते हैं।

आज केवल उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में लंबित मुकदमों को ही देखें तो उनकी संख्या लाखों में दिखती है। अगर जिला और अधीनस्थ अदालतों में भी लंबित मुकदमों की गिनती कर लें तो यह संख्या करोड़ों में पहुंच जाती है। यह बहुत सुखद स्थिति नहीं है। लोगों को समय पर न्याय न मिल पाना भारतीय लोकतंत्र एवं गणतंत्र की एक बड़ी खामी है। संविधान सभा में न्यायपालिका को सर्वोच्च सम्मान और स्वतंत्रता देते हुए जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, राधाकृष्णन, भीमराव आंबेडकर अदि ने जो उद्गार व्यक्त किए थे उनका सारांश यही था कि हमारे न्यायाधीश न केवल उच्च कोटि वाले, वरन सर्वोत्तम बौद्धिक क्षमता और न्याय प्रक्रिया में तटस्थ और किसी से न डरने वाले होंगे। वे न्याय देने में न केवल शीघ्रता, बल्कि निष्पक्षता का परिचय भी देंगे। वे भारतीय परंपरा की उस गरिमा को कायम रखेंगे जिसमें न्यायाधीश को ईश्वर का अंश माना गया है। हालांकि कार्यपालिका की ओर से न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिश पंडित नेहरू के समय से ही शुरू हो गई थी, लेकिन जब कभी उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के हिसाब से नियुक्तियां करनी चाहीं तो वह सफल नहीं हो पाए। इसकी वजह थी तत्कालीन न्यायाधीशों का उदात्त चरित्र और अपने साथियों के प्रति मान-सम्मान का भाव। जब भी किसी न्यायाधीश की वरिष्ठता की अनदेखी कर किसी अन्य न्यायाधीश को आगे बढ़ने की पहल हुई, सभी ने एक स्वर में उसका विरोध किया।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति, केशवानंद भारती बनाम भारत सरकार आदि में लिए गए निर्णयों में न्यायिक गरिमा का प्रदर्शन होता है। ये निर्णय देशव्यापी प्रभाव वाले थे। तत्कालीन न्यायाधीश निर्णय देते समय आगे बढ़ने की चिंता या प्रलोभन से मुक्त थे, लेकिन यह सब इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के कुछ वर्षो के बाद लुप्त होता गया। प्रधान न्यायाधीश सर्वमित्र सीकरी के सेवानिवृत्त होने के बाद 25 अप्रैल, 1973 को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों के वरिष्ठता क्रम को दरकिनार करते हुए चौथे नंबर के जज अजित नाथ रे को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। इसके चलते तीनों वरिष्ठ जज जेएम सेलट, केएस हेगड़े और एआर ग्रोवर के पास अपने मान-सम्मान की रक्षा के लिए त्यागपत्र देने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचा था। उन्होंने यही किया। यह वही समय था जब प्रधानमंत्री के सहयोगियों ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात करनी शुरू की।

सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल में एएन रे ने एक भी निर्णय सरकार के खिलाफ नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब उन्होंने और उनके तीन साथियों ने जबलपुर केस नाम से चर्चित बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में फैसला दिया कि आपातकाल रहने तक भारतीय नागरिकों के मूल अधिकार निरस्त रहेंगे। संविधान में यह निहित होने के बावजूद ऐसा फैसला आया कि इसे किसी भी प्रकार से न तो निरस्त किया जा सकता है न ही संशोधित किया जा सकता है। इन चारों के इतर जस्टिस हंसराज खन्ना का मत था कि मौलिक अधिकार जीवन की तरह ईश्वरीय देन है जिसे किसी भी तरह खत्म नहीं किया जा सकता। इस निर्णय के कारण जस्टिस खन्ना को मुख्य न्यायाधीश के पद से वंचित होना पड़ा। स्पष्ट है कि आपातकाल न केवल भारतीय लोकतंत्र, बल्कि गणतंत्र के लिए भी एक दाग है। आपातकाल के बाद मुख्य न्यायाधीश यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ ने 22 अप्रैल, 1978 को फिक्की की सभा में कहा कि मुझे अफसोस है कि मैं इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि पद से इस्तीफा देकर देश को बता सकूं कि वास्तविक कानून क्या है?

आपातकाल के उपरांत बदलाव के क्रम में यह अपेक्षा की जाती थी कि न्यायपालिका में भी बुनियादी बदलाव देखने को मिलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1990 के दशक में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका से छीन लिया और कोलेजियम व्यवस्था का निर्माण किया। इससे न्यायाधीशों की नियुक्ति में विधायिका और कार्यपालिका की कहीं कोई भूमिका नहीं रह गई। यह जो उम्मीद बनी थी कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से एक नई पारदर्शी व्यवस्था बनेगी वह इसलिए दम तोड़ गई, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। इसके खारिज होने के बाद फिर से न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति कर रहे हैं। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता, लेकिन भारत में ऐसा ही हो रहा है। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध तो है ही, संविधान की भावना के भी प्रतिकूल है। संविधान हमारे गणतंत्र का मूल आधार है। यह कहना ठीक नहीं होगा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था संविधानसम्मत है अथवा यह व्यवस्था भारत के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बनी है।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक निदेशक रहे हैं)