[ गिरीश्वर मिश्र ]: इसमें कोई संदेह नहीं कि बदलते वैश्विक समीकरण में भारतवर्ष के लिए आत्मनिर्भर होना सबसे अच्छा विकल्प है। इस प्रकार का शुभ संकल्प देश के गौरव और क्षमता की वृद्धि के लिए सर्वथा स्वागतयोग्य है। इस आत्मनिर्भरता की पुकार है कि भारत सुसंगठित सामाजिक संरचना के रूप में एक जीवंत इकाई बने। देश एक प्राणवान सत्ता है-एक जीवित प्राणी। इस रूप में देश का एक व्यक्तित्व है। कोई भी देश वहां के निवासियों के समुच्चय से बनता है। सिर्फ लोगों के इकट्ठा होने मात्र से देश नहीं बन जाता। जीवंतता का एक प्रखर रूप वैदिक काल में मिलता है जो भारत के ज्ञात इतिहास का उषा काल कहा जाता है।

अथर्ववेद: यह धरती मां है और हम सब उसकी संतान हैं

यजुर्वेद संकल्प लेता है-वयं राष्ट्रे जागृयाम: अर्थात हम सब अग्रसर होकर राष्ट्र को जागृत करें। अथर्ववेद की घोषणा है उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावत यानी उत्तम प्रजा जनों से राष्ट्र उत्तम रहता है। वैदिक युग में अनेक भाषा बोलने और अनेक धर्मों को मानने वाले थे, परंतु सभी मिलकर मातृभूमि को शक्ति देते थे और उसकी समृद्धि करते थे। उनके मन में यह भावना थी कि यह धरती मां है और हम सब उसकी संतान हैं-माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:। अथर्ववेद में विचार, संकल्प, चित्त सबमें समान होने का आह्वान है।

राम राज्य: सभी जन धर्मानुकूल आचरण करते हैं और बिना राग द्वेष के सुख पूर्वक रहते हैं

सजीव देश की परिकल्पना लोक मंगल के आख्याता गोस्वामी तुलसीदास ने राम राज्य के रूप में की थी, जिसमें सभी जन धर्मानुकूल आचरण करते हैं और बिना राग द्वेष के सुख पूर्वक रहते हैं। आधुनिक भारत में बंकिम बाबू ने 1876 में वंदे मातरम गीत में सुजलाम, सुफलाम, मलयजशीतलाम शस्यश्यामलाम मातरम द्वारा देश की जीवंत संकल्पना प्रस्तुत की थी। इसी प्रकार महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में अंग्रेजी दासता से मुक्त स्वतंत्र भारत का एक स्वप्न खींचा था और उसके लिए अपने को र्अिपत कर दिया था। वे अपने ऊपर राज्य करने की, स्वायत्त जीवन की बात कर रहे थे।

आजादी के बाद बढ़ी गरीबी-अमीरी की खाई, गांधीजी की सोच व्यवहार में नहीं आ सकी

यह अलग बात है कि स्वतंत्र होने पर शासन का अर्थ हमने प्राय: वही लगाया जो अंग्रेजों के व्यवहार में था। बापू ने जन भागीदारी, स्वावलंबन, विकेंद्रीकृत शासन और शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि के क्षेत्र में जिस तरह के बदलावों के बारे में सोचा था वह व्यवहार में नहीं आ सका। हमारी अपनी सोच की भारतीय परिपाटी नहीं बन सकी। गरीबी-अमीरी की खाई बढ़ती गई और विकसित देशों को छू लेने की मृग मरीचिका ने और बदलती वैश्विक परिस्थिति ने हमें कई घाव दिए।

आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है देश को जीवंत बनाया जाए

आज जब हम आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं तो उसके लिए जरूरी होगा कि देश को जीवंत बनाया जाए। जीवंत होने की स्थिति में जन आकांक्षाओं और समस्याओं का समाधान शीघ्रता से होगा और चुनौतियों का सामना गुणवत्तापूर्ण ढंग से किया जाएगा। उसमें अपेक्षित लचीलापन और प्रतिरोध की क्षमता भी होगी। वह निष्क्रिय या स्पंदनहीन नहीं होगा। यदि आर्थिक दृष्टि से देखें तो जीवन स्तर, औद्योगिक उत्पादन, व्यापार में लाभ, निर्यात, सकल घरेलू उत्पाद तथा रोजगार की उपलब्धता आदि इसके ज्ञापक हो सकते हैं। स्पष्ट ही राजनीतिक नेतृत्व की बड़ी भूमिका है।

वर्तमान नेतृत्व ने गरीबों को सीधे उनके खाते में सहायता राशि पहुंचाकर की महत्वपूर्ण पहल

वर्तमान नेतृत्व ने जीएसटी लागू कर, गरीबों को सीधे उनके खाते में सहायता राशि पहुंचाने की व्यवस्था कर और उनके लिए सस्ते भवन के निर्माण कर महत्वपूर्ण पहल की है, परंतु सामाजिक सुरक्षा का कवच कई मोर्चों पर कमजोर भी हुआ है। जब हम भौतिक पक्ष पर विचार करते हैं तो अनेक ऐसे पक्ष सामने आते हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सुविधाओं और उपायों को देखें या फिर महिलाओं, बच्चों और वृद्धों के लिए आवश्यक व्यवस्था को देखें तो अनेक कठिनाइयां दिखती हैं। सामान्य जनों के दैनिक जीवन में जरूरी नागरिक सुविधाओं को सुगमता से उपलब्ध कराना अभी भी टेढ़ी खीर है।

शिक्षा संस्थाओं की संख्या में तो वृद्धि हुई, पर गुणवत्ता के साथ समझौता करते गए

बौद्धिक या मानसिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा संस्थाओं की संख्या में तो वृद्धि हुई, पर गुणवत्ता के साथ हम समझौता करते गए। शिक्षा की विषय वस्तु और पद्धति को लेकर अभी तक यह स्पष्टता नहीं आ सकी है कि हम अपने देश के लिए किस तरह का समाज चाहते हैं और किन मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं? उच्च शिक्षा बिना विचारे अधिकांशत: पश्चिमी देशों के मॉडल पर फल-फूल रही है और विदेशों में जो हो रहा है उसकी छाया में उसी की प्रतिलिपि तैयार करने में जुटी है। वह बहुलांश में भारत से अपरिचय को बढ़ाने में मदद दे रही है, क्योंकि भारत को अस्वीकार करना या न जानना उसके मूल में है। ज्ञान का सांस्कृतिक अनुबंधन जानते हुए भी हम यहां के समाज और ज्ञान को हीन मानते हुए विदेशी ज्ञान जाल की पकड़ को ही सुदृढ़ किए हुए हैं। यह पूरी प्रक्रिया मौलिकता और सृजनशीलता के विरुद्ध जा रही है।

शिक्षा को मूल्यपरक बनाना होगा, जरूरी सुधारों की गति धीमी है

जब तक शिक्षा को निजी और सामाजिक विकास के लिए भारतीय संदर्भ में प्रासंगिक और मूल्यपरक नहीं बनाएंगे तब तक बात नहीं बन सकेगी। राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि से विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की कार्य प्रणाली और उसकी कार्यक्षमता को लेकर अनेक मोर्चों पर असंतुष्टि जाहिर होती है। जरूरी सुधारों की गति धीमी है और जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं। सामाजिक स्तर पर जिस समावेशी दृष्टि की जरूरत है उसमें पिछड़ने के कारण विभिन्न दल देशहित को भुलाते हुए तात्कालिक लाभ की सोचने लगते हैं। इससे देशहित पृष्ठभूमि में तिरोहित होने लगता है।

जरूरत है नकारात्मकता से बचें और आशावादी दृष्टिकोण को अपनाएं

आज जरूरत है कि हम क्षुद्र स्वार्थ, आलस्य, अलगाव, नकारात्मकता, प्रतिक्रियावादिता और भाग्यवादिता जैसे मनोभावों से बचें और आशावादी दृष्टि के साथ नवाचार, भरोसे वाले, ऊर्जस्वित और भविष्योन्मुख दृष्टिकोण को अपनाएं जिससे सशक्तीकरण और उत्पादकता में वृद्धि हो। तभी जीवन संतुष्टि बढे़गी और देश की उन्नति होगी। ऐसा जीवंत भारत ही आत्मनिर्भर हो सकेगा।

( लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं )