[ सूर्यकुमार पांडेय ]: हम ठहरे जनम-जनम के धुरंधर फोकटलाल। रस्ते का माल सस्ते में मिल रहा हो, तो एक के बदले दस उठा लाते हैं। हमारी इस नैसर्गिक प्रवृत्ति को बाजार भी बखूबी समझता है। वह सस्ते माल को पहले महंगा बताता है, फिर उस पर डिस्काउंट का आकर्षक ऑफर देता है। इसीलिए हम जहां कहीं पर भी ‘सेल’ लिखा हुआ पाते हैं, हमारे कदम अनायास ही उस तरफ बढ़ जाया करते हैं। हमें ‘बाइ वन-गेट वन फ्री’ का सम्मोहन अपनी ओर जिस तीव्रता से खींचता है, उसके सम्मुख विराट चुंबकीय शक्ति भी मात खा जाती है। हमें देखते ही दुकानदार कहता है, ‘यह वाला पैकेट ले लो बाबूजी! एक पर एक फ्री का ऑफर चल रहा है।’ हमें जरूरत एक पैकेट की होती है, लेकिन हम चार पैकेट खरीद लेते हैं।

डिस्काउंट के आकर्षक ऑफर लगा रहे हैं उपभोक्ताओं को चूना

इस तरह बाजार हमें चूना लगा रहा होता है, लेकिन हम तो ठहरे जन्मजात डिस्काउंटखाऊ! हमें मुफ्त का चूना भी लग रहा हो, तो सहर्ष लगवा लेते हैं। इससे हमें आत्मिक संतोष की सहज प्राप्ति होती है। चूना ही सही, फ्री में कुछ तो लग रहा है।

मुफ्त के फोकटलाल को धीरे से चूना भी लगता

हम जैसे फोकटलाल, सब्जी वाले से आधा किलो आलू भी खरीदते हैं तो फ्री का थोड़ा सा हरा धनिया और हरी मिर्च अवश्य ले लिया करते हैं। वह तो सब्जी बेचने वाले चतुर होते हैं जो हमारी इस आदत को पहचानते हैं और घटतौली करके अपनी भरपाई कर लिया करते हैं। हम हमेशा ही मुफ्तखोरी की तलाश में रहा करते हैं। मुफ्त का अखबार पढ़ते हैं। मुफ्त की बिजली-पानी चाहते हैं। जो कोई भी हमें यह दे देता है, हम उसकी जय-जयकार बिना सोचे-समझे कर देते हैं। मोबाइल के लिए भी वही स्कीम चुनते हैं जिसमें लाइफटाइम अनलिमिटेड वैल्यू मिले। साथ में यदि मुफ्त का नेट और फ्री एसएमएस मिले तो सोने पर सुहागा हो जाता है।

मुफ्तखोरों की जमात को वही अच्छे लगते हैं जो मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करते हैं

मैंने मुफ्तखोरों की एक ऐसी जमात भी देखी है जो किसी विवाह समारोह में जाती है तो सौ रुपये का व्यवहार देकर सपरिवार, जिसमें एक अदद पत्नी और कम से कम तीन बच्चे तो होते ही हैं, पांच सौ वाली प्लेट खाने की जुगाड़ में मिलती पाई जाती है। मेला, महोत्सव, फेस्ट और प्रदर्शनी के लिए टिकट खरीद कर देखने में हमें आनंद नहीं आता। हमारा पहला प्रयास यही रहता है कि कहीं से फ्री के पास का इंतजाम हो जाए। ऐसे पास को हम अपना स्टेट्स सिंबल समझते हैं। हम वे लोग हैं जो सेवा तो चाहते हैं, लेकिन वह भी फ्री-फोकटिया वाली। हम सेवाकर की दर देखकर ही बिलबिलाने लग जाते हैं। हमें वही भले लगते हैं जो मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करते हैं।

‘फ्रीभोग्या वसुंधरा’ कभी मुफ्तखोरों से खाली नहीं रही

अपनी यह ‘फ्रीभोग्या वसुंधरा’ कभी मुफ्तखोरों से खाली नहीं रही है। आपको अपने इर्दगिर्द एक से बढ़कर एक पैदाइशी फोकटलाल मिल जाएंगे। उनका मानना होता है कि पैसे बेवकूफ लोग खर्च करते हैं, समझदार व्यक्ति सदैव फ्री के जुगाड़ में रहते हैं। अब ऐसों को भला कौन समझाए कि डॉक्टर फ्री में दवाएं नहीं लिखते। यदि फ्री का पर्चा लिख भी दें, तो ऐसी दवा लिखेंगे, जो किसी खास केमिस्ट की शॉप पर ही मिलेगी और वह शॉप भी वही होगी, जहां से डॉक्टर साहब के अंतर्संबंध होंगे। वकील साहब भी फ्री में सलाह नहीं देते। अगर देंगे भी तो अदालत में तारीख पर तारीख लगती रहेगी। वैसे भी नि:शुल्क सेवा वाला टाइम कब का लद गया।

लोग फ्री-फोकट की सुविधाएं लेना चाहते हैं, लेकिन देना नहीं चाहते

यह सुविधाशुल्क का दौर है। मुझे दुर्योग से पुलिस थाने जाना पड़ा। मैंने वहां देखा कि उस थाने के लोग खाली हाथ पकड़कर लाए गए मुजरिमों से सीधे मुंह बात नहीं कर रहे थे। मेरे एक साथी, जो सरकारी अफसर हैं, अक्सर कहा करते हैं, ‘अगर हम लोग सिफारिश वालों के काम करने लग जाएंगे तो फिर खाएंगे क्या और खिलाएंगे क्या?’ कुल मिलाकर हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हम हमेशा अपने लिए फ्री-फोकट की सुविधाएं चाहते हैं। अपनी बेटियों की शादियां फ्री में करने में विश्वास करते हैं, लेकिन बेटे के विवाह के मामले में फोकटलाल के स्थान पर चीकटलाल बन जाते हैं।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]