राजीव सचान

उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव परिणाम सामने आने के बाद से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम और चुनाव आयोग के खिलाफ शुरू हुआ रुदन अब तक जारी है। यह रुदन एक दिसंबर को उसी समय शुरू हो गया था जब यह स्पष्ट होने लगा था कि अन्य दलों के मुकाबले भाजपा बढ़त हासिल करती दिख रही है। शाम होते-होते इस रुदन ने और जोर पकड़ लिया और वह कर्कश विलाप में बदल गया। भाजपा की जीत में ईवीएम की भूमिका को संदिग्ध करार देकर विलाप करने वालों को उस समय और बल मिला जब सहारनपुर की निर्दलीय प्रत्याशी शबाना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर आ गया। इसमें वह यह कह रही थीं कि अरे, उन्हें जीरो वोट कैसे मिले? आखिर उनका खुद का और उनके घर वालों के वोट कहां गए? शबाना के इस वीडियो को ईवीएम में गड़बड़ी के पुख्ता सुबूत के तौर पर पेश किया जाने लगा। इस शरारती वीडियो को जिन लोगों ने सच करार देकर ईवीएम और चुनाव आयोग को जीभर कर कोसा उनमें कई जाने-माने लोगों के साथ-साथ वकील प्रशांत भूषण भी शामिल थे। कांग्रेस, सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी के कई नेता एवं समर्थक भी इस वीडियो को सच की तरह पेश कर रहे थे। अगले दिन जब यह खबर आई कि शबाना को तो 87 वोट मिले हैैं और शून्य वोट मिलने का उनका दावा निरा खोखला है तो उनके फर्जी वीडियो के बहाने ईवीएम के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों ने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा।


शबाना के झूठ की पोल खुल जाने के बावजूद सोशल मीडिया और मीडिया में इस तरह की खबरें आती रहीं कि ईवीएम ने भाजपा को लाभ पहुंचाया है। इन खबरों को आधार प्रदान किया अखिलेश, मायावती और राजबब्बर सरीखे नेताओं के उन बयानों ने जिनके जरिये यह कहने की कोशिश की जा रही थी कि निकाय चुनावों में जहां ईवीएम से मतदान हुआ वहां तो भाजपा ने बढ़त हासिल की, लेकिन जहां बैलट पेपर से मतदान हुआ वहां उसका प्रदर्शन फीका रहा। चूंकि ऐसे बयान अखिलेश और मायावती ने दिए इसलिए मीडिया ने बगैर कोई छानबीन किए उन्हें प्रमुखता प्रदान की। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता के बीच यह संदेश गया कि हो न हो, ईवीएम ने गुपचुप तौर पर भाजपा का भला किया है। इसके बाद सोशल मीडिया और विशेष रूप से ट्विटर पर यह कहने की होड़ मच गई कि जब तक ईवीएम है तब तक भाजपा को चिंता करने की जरूरत नहीं। इसी के साथ भाजपा और चुनाव आयोग के बीच साठगांठ को रेखांकित किया जाने लगा। इस क्रम में यहां तक कहा गया कि चुनाव आयोग धृतराष्ट्र बना हुआ है। तीन दिसंबर को ट्विटर पर ‘ईवीएम है तो बीजेपी है’ को जमकर ट्रेंड किया गया। किसी ने और यहां तक कि मीडिया के एक बड़े हिस्से ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर इस आरोप में कितनी सत्यता है कि जहां ईवीएम से मतदान हुआ वहां तो भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन जहां बैलट पेपर से मतदान हुआ वहां वह पिछड़ गई। एक तरह से कौआ कान ले गया वाली उक्ति खुशी-खुशी चरितार्थ की गई और वह भी तब जब उत्तर प्रदेश चुनाव आयोग की वेबसाइट पर चुनाव नतीजों का सारा कच्चा-चिट्ठा आ गया था। चुनाव आयोग के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैैं कि जहां ईवीएम से वोट पड़े वहां भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहा, लेकिन वे इसकी भी पुष्टि करते हैैं कि जहां बैलट पेपर से मतदान हुआ वहां भाजपा के साथ-साथ सपा, बसपा और कांग्रेस का प्रदर्शन भी फीका रहा। बतौर उदाहरण ईवीएम से हुए निगम पार्षदों के चुनाव में यदि जीते भाजपा प्रत्याशियों का प्रतिशत करीब 45 रहा और सपा, बसपा एवं कांग्रेस का क्रमश: 15, 11 और 8 तो बैलट पेपर से हुए पालिका सदस्यों के चुनाव में जहां भाजपा के जीते प्रत्याशियों का प्रतिशत 17 रहा तो सपा, बसपा और कांग्रेस के जीते प्रत्याशियों का प्रतिशत क्रमश: 9, 5 और 3 रहा। ठीक ऐसी ही स्थिति पंचायत सदस्यों की जीत के प्रतिशत की रही।
आंकड़ों से यह साफ है कि जहां ईवीएम से मतदान हुआ वहां भाजपा की तरह सपा, बसपा और कांग्रेस के जीते प्रत्याशियों का भी प्रतिशत अधिक रहा और जहां बैलट पेपर से मतदान हुआ वहां भाजपा की तरह बाकी दलों के जीते प्रत्याशियों का भी प्रतिशत कम रहा। इस तथ्य को बड़ी चतुराई और सफाई से छिपाया गया और ऐसा माहौल बनाया गया कि बैलट पेपर से हुए मतदान में भाजपा के मुकाबले अन्य दलों का प्रदर्शन बेहतर रहा और इस तरह यह साबित हो गया कि ईवीएम ने भाजपा को लाभ पहुंचाया। ईवीएम विरोधी शरारत भरे दुष्प्रचार की पोल इस तथ्य से भी खुलती है कि बैलट पेपर से हुए मतदान वाले पालिका और पंचायत चुनाव में जहां भाजपा के जमानत जब्त होने वाले प्रत्याशियों का प्रतिशत 38 है वहीं सपा, बसपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों का क्रमश: 52, 73 और 87, लेकिन भूले से भी इसका उल्लेख न तो अखिलेश ने किया और न मायावती ने और न ही उनके साथियों ने। कोई भी समझ सकता है कि अगर बैलट पेपर से हुए मतदान की हकीकत बयान की जाती तो ईवीएम को भाजपा की मदद करने वाली कथित करामाती मशीन करार देने में मुश्किल पेश आती। ईवीएम के खिलाफ तथ्यों को छिपाकर छेड़ा गया यह पहला अभियान नहीं। उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव के दौरान ही मेरठ में ईवीएम में कथित गड़बड़ी बताने वाला एक वीडियो सामने आया था। हालांकि यह वीडियो यही दर्शाता था कि कोई भी बटन दबाने पर भाजपा के चुनाव निशान के साथ-साथ नोटा निशान के समक्ष भी लाइट जलती थी, लेकिन सनसनी फैलाने के लिए यह प्रचारित किया गया कि भईया कोई भी बटन दबाओ, वोट तो भाजपा के खाते में ही जा रहा है।
ईवीएम के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए कुछ राजनीतिक दल किस हद तक जाने को तैयार हैैं, इसका एक उदाहरण तब भी मिला था जब आम आदमी पार्टी की ओर से दिल्ली विधानसभा का एक दिन का सत्र बुलाया गया था। इस एक दिन के सत्र में एक नकली ईवीएम के जरिये बेहद भोंडे ढंग से यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि इस मशीन को हैक कर मनचाहे चुनाव नतीजे हासिल करना बायें हाथ का खेल है। ईवीएम हैक करने का तमाशा बीटेक डिग्री वाले एक विधायक ने किया था। बाद में यह विधायक चुनाव आयोग की चुनौती को स्वीकार करने से पीछे हट गया था। ईवीएम में कोई खामी हो तो उसे उजागर करने में हर्ज नहीं, लेकिन तथ्यों को छिपाकर या तोड़-मरोड़कर अथवा छल-छद्म का सहारा लेकर उसके खिलाफ माहौल बनाना निकृष्ट राजनीति के अलावा और कुछ नहीं।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]