[रमेश कुमार दुबे]। भारत के वित्तीय क्षेत्र को देखें तो ऐसा लगेगा कि घोटाले ही सुधार का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसका सबसे सटीक उदाहरण है प्रतिभूति घोटाला। इस घोटाले के बाद भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी का गठन हुआ। इसी तरह पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (PMC) बैंक घोटाले के बाद सहकारी बैंकों में सुधार की कवायद शुरू हुई। घोटाले के बाद गठित वित्त मंत्रालय की समिति ने सहकारी बैंकों पर से दोहरे नियंत्रण वाली मौजूदा व्यवस्था को समाप्त कर इन बैंकों को रिजर्व बैंक की सीधी निगरानी में रखने का सुझाव दिया था। समिति की सिफारिशों को अमलीजामा पहनाने के लिए कैबिनेट ने सहकारी बैंकों को रिजर्व बैंक की निगरानी में लाने संबंधी प्रस्ताव पारित किया।

कोऑपरेटिव बैंक भी रिजर्व बैंक की निगरानी में

इस प्रस्ताव पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद देश में बैंकिंग नियम (संशोधन) अध्यादेश लागू हो गया है। इसके जरिये अब सरकारी बैंकों की तरह देश भर के कोऑपरेटिव बैंक भी रिजर्व बैंक की निगरानी में आ जाएंगे। इस अध्यादेश का उद्देश्य बेहतर गवर्नेंस और निगरानी सुनिश्चित करके जमाकर्ताओं के हितों की सुरक्षा करना है। अध्यादेश का यह दूरगामी उद्देश्य है कि सहकारी बैंकों की कार्यप्रणाली में बदलाव लाया जाए ताकि वे व्यवस्थित बैंकिंग प्रणाली अपनाएं। इस संशोधन से राज्य सहकारी कानूनों के तहत सहकारी समितियों के राज्य पंजीयकों के मौजूदा अधिकारों में कोई कमी नहीं आएगी। कृषि विकास के लिए दीर्घकालिक वित्त मुहैया कराने वाली प्राथमिक कृषि ऋण समितियां भी इसके दायरे में नहीं आएंगी।

सहकारी बैंकों में घोटाले आए सामने

अब तक सहकारी बैंकों को लाइसेंस तो बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के तहत रिजर्व बैंक ही देता है, लेकिन उनके प्रबंधन, चुनाव और दूसरी प्रशासनिक गतिविधियां राज्यों के रजिस्ट्रार कोऑपरेटिव सोसाइटी के पास होती थीं। सहकारी बैंकों के नकद रिजर्व, तरलता जैसे वित्तीय मामलों को रिजर्व बैंक की कोऑपरेटिव बैंक सुपरवाइजरी टीम देखती थी। चूंकि सहकारी बैंक छोटे कर्ज बांटते हैं इसलिए यह टीम कम सक्रिय रहती है जिससे गड़बड़ियों का समय पर पता नहीं चल पाता था। नियामक के रूप में यही दोहरा नियंत्रण सहकारी बैंकों के लिए घातक साबित हुआ। चूंकि सहकारी बैंकों को स्थानीय राजनीति में सक्रिय लोगों के बीच से चुनकर आया एक संचालक मंडल प्रशासित करता है इसीलिए वहां भ्रष्टाचार के भरपूर मौके निकले। पिछले कुछ वर्षों से कई सहकारी बैंकों में घोटाले सामने आए। इसमें माधवपुरा मर्केंटाइल घोटाला, जम्मू-कश्मीर सहकारी बैंक घोटाला खूब र्चिचत रहे।

वित्तीय समावेश में सहकारी बैंकों की महत्तवपूर्ण भूमिका

हाल में पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक घोटाला हुआ जिससे उपभोक्ताओं में अफरा- तफरी का माहौल बना। बाद में रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप से हालात सुधरे। देश के वित्तीय समावेश में सहकारी बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सहकारी बैंकों का गठन लघु बचत और निवेश करने वालों की सुरक्षा देने के लिए किया गया था। देश में 1482 शहरी सहकारी बैंक और 58 बहुराज्यीय सहकारी बैंक हैं जिनके पास 8.6 करोड़ जमाकर्ताओं के 4.85 लाख करोड़ रुपये की राशि जमा है।

संविधान में किया गया था 111वां संशोधन

अध्यादेश लागू होने के बाद जनता में यह संदेश जाएगा कि उनका पैसा सुरक्षित है। रिजर्व बैंक यह तय करेगा कि सहकारी बैंकों का पैसा किस क्षेत्र के लिए आवंटित किया जाए। इससे पहले मोदी सरकार ने सहकारी समितियों को सरकारी चंगुल से आजाद करने के लिए संविधान में 111वां संशोधन किया था। इससे सहकारी समितियां बनाना देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन गया। सहकारी संस्थाओं में नियमित चुनाव और आरक्षण का प्रावधान होने से देश भर में कार्यरत तकरीबन छह लाख सहकारी समितियों को राजनीति और नौकरशाही के दखल से मुक्त करने की कारगर पहल की गई थी।

किसी न किसी रूप में पहुंची सहकारी समितियां

आज भले ही सहकारी बैंक घोटालों का पर्याय बन गए हों, लेकिन देश के वित्तीय समावेश और कृषि क्रांति लाने में इनकी उल्लेखनीय भूमिका रही है। देश के तकरीबन सभी गांवों तक सहकारी समितियां किसी न किसी रूप में पहुंच चुकी हैं। डेयरी, चीनी, उर्वरक, हैंडलूम, गृह निर्माण जैसे क्षेत्रों में सहकारिता की मजबूत पकड़ है। सहकारी बैंकों की दुर्दशा की असली वजह यह है कि नेताओं ने इन्हें अपनी राजनीति चमकाने का जरिया बना लिया। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक में सहकारी बैंक नेताओं के लिए उर्वर राजनीतिक जमीन मुहैया कराते रहे हैं। इसीलिए इन बैंकों के निदेशक मंडल में जगह बनाने के लिए मारामारी मची रहती है।

सहकारी संस्थानों पर कब्जे की राजनीति

कमोबेश यही हालात अन्य कई राज्यों में है। चूंकि सहकारी बैंक राजनीति से जुड़ गए इसलिए देश की राजनीति में जैसे-जैसे मूल्यों का पतन हुआ उसका प्रभाव सहकारिता पर भी पड़ा। सहकारी संस्थानों पर कब्जे को लेकर राजनीतिक जोड़-तोड़ और हिंसक संघर्ष शुरू हो गए। इससे सहकारिता में भ्रष्टाचार का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इसका असर आम जनता पर भी पड़ा। लोग अब सहकारी समितियों और बैंकों के कर्ज को दान मानने लगे। इससे इन संस्थाओं की र्आिथक स्थिति गिरी और वे पूरी तरह सरकारी मदद पर निर्भर हो गईं।राज्य सरकारों ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया। वे सहकारी संस्थाओं के चुनाव कराने के बजाय अपने लोगों और पसंदीदा नौकरशाहों को प्रशासक बनाकर उन्हें अपने कब्जे में करने लगीं।

मोदी सरकार हर स्तर पर तकनीक रूपी चौकीदार बैठाने के बाद अब संस्थानों की ढांचागत कमजोरियों को दूर करने में जुटी है। दूसरे शब्दों में भ्रष्टाचार की हर जड़ पर हमला हो रहा है। सहकारी बैंकों को रिजर्व बैंक की सीधी निगरानी में लाकर सरकार ने इस क्षेत्र को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने की एक कारगर पहल की है। इससे भले ही नेताओं की राजनीति पर बट्टा लगे, लेकिन सहकारी बैंकों पर करोड़ों ग्राहकों के भरोसे में बढ़ोतरी होना तय है।

 

(लेखक केंद्रीय सचिवालय सेवा के अधिकारी हैं)