[संतोष त्रिवेदी] शहर में अब शांति की तान सुनाई पड़ रही है। इसमें बीते दिनों हुए दंगों की खास भूमिका रही। अगर ये बड़े पैमाने पर न हुए होते तो शहर में शांति स्थापित करने में व्यावहारिक दिक्कतें आतीं। अब पूरा माहौल अमन और भाईचारे की चपेट में है। घर भले ही खंडहर में तब्दील हो गए हों, चैनलों में दिन-रात ‘अमन और भाईचारे की कहानियां’ प्रसारित हो रही हैं। इससे पीड़ितों को भरोसा हुआ है कि वे जल्द ही फिर से इस ‘भाईचारे’ का ‘चारा’ बन सकते हैं। दंगों के बाद जो शांति पसरती है, वह बात उससे पहले वाली सुखशांति में कहां! जो शांति सुर्खियां न बटोर सके, वह क्या खाक किसी की जिंदगी में सुकून लाएगी।

जब होली पर नवोदित दंगाई से हुई भेंज

ऐसी ही निपट शांति के बीच बीते दिनों होली पर एक नवोदित दंगाई से भेंट हो गई। हमारे हाथ में लाल गुलाल था और उसके हाथ में क्रांतिकारी गुलेल। मैंने गुलाल भरा हाथ आगे बढ़ाया तो उसने झट से अपनी गुलेल आगे कर दी। हमने कहा, ‘हम तो बस आपको गुलाल लगाना चाहते हैं। शांति के पुजारी ठहरे। अभी-अभी शांति मार्च से लौटे हैं। सोचा, आपसे भाईचारे की बोहनी कर लूं। आपको कोई हर्ज तो नहीं?’ गुलेल सीधी करते हुए वह बोले, ‘होली तो हमने भी खेली है, पर जो ‘एडवेंचर’ गुलेल से खेलने में आता है, वह गुलाल में कहां जी! आओ हमारे खंडहर में, वहीं खेलते हैं।’

यह सुनते ही हम लहालोट हो गए। पारंपरिक तरीकों से तो बहुत दिनों से होली खेलते आ रहे हैं, पर अब उसमें कोई नयापन नहीं रहा। गुलाल को अपनी जेब के हवाले करते हुए हमने कहा, ‘जरा, इस गुलेल वाली होली के बारे में सविस्तार प्रकाश डालिए। इसके लिए क्या तैयारी करनी पड़ी?’

दंगा सुलगाने में लगती है कड़ी मेहनत

नवोदित दंगाई ने गुलेल तानते हुए बताया, ‘दंगा करना हंसी-ठट्ठा नहीं है साहब। दंगे यूं ही नहीं हो जाते। उन्हें सुलगाने में बड़ी और कड़ी मेहनत लगती है, तब कहीं जाकर सुलगते हैं। घर की छतों से पतंग ही नहीं पत्थर और पेट्रोल-बम भी चलाए जा सकते हैं। एक हाथ से पत्थर, गोली और गुलेल तो दूसरे हाथ से अफवाह चलानी पड़ती है। बिना अफवाह के गुलेल चलाने से कुछ नहीं हासिल होगा। अफवाह जितना फैलेगी, दंगा उतना ही दमदार होगा, लेकिन एक और बात यह कि दंगे को कोई नौसिखिया नहीं संभाल सकता। इसीलिए हमारे यहां बाकायदा ‘दंगा समिति’ है। उसी की देखरेख में सारा काम होता है। ‘टीम लीडर’ बयान देता है, हम काम को अंजाम देते हैं। बस्तियों को आग लगाते हैं ताकि उनका पुनर्वास हो सके। इससे सरकार को भी उदार होने का अवसर मिलता है।’ हम दंगों से बिल्कुल अंजान तो नहीं थे, पर इतने नजदीक से कभी दंगा-दर्शन का लाभ नहीं मिला था। दंगे होने के बारे में अभी सोच ही रहा था कि सामने से एक दंगाकार आते दिखाई दिए। वह किसी ‘दंगा समिति’ के अध्यक्ष हैं। उन्हीं की देखरेख में दंगे का प्रसार होता है। नवोदित दंगाई उनसे हमारा परिचय कराते हुए बोला, ‘जनाब, ये नौसिखिया दंगाई हैं। गुलाल से दंगा करने की कोशिश कर रहे थे। आप इनका थोड़ा दंगा-निर्देशन करें तो हम व्यापक परिणाम पा सकते हैं।’

पढ़े-लिखे लोग सोशल मीडिया से फेंकते हैं पत्थर

दंगाकार ने हमारा मुआयना किया। माकूल पाते ही कहने लगे, ‘तुम नए हो इसलिए कुछ टिप्स देता हूं। दंगे की सफलता के लिए ‘इधर’ और ‘उधर’ दो पक्ष होने चाहिए। दोनों पढ़े-लिखे हों तो दंगा तेजी से फैलता है। दूसरा पक्ष तैयार न हो पा रहा हो तो अपने में से ही कुछ को ‘उधर’ कर देना चाहिए। इससे माहौल बनता है। अनुभवी लोग जहां गुलेल से पत्थर फेंकते हैं वहीं पढ़े-लिखे सोशल मीडिया संभालते हैं। दंगा करने से ज्यादा भड़काने का हुनर काम आता है। जब शहर में पर्याप्त मात्रा में अशांति फैल जाए, शांति मार्च का माहौल तैयार हो जाए, तभी दंगा सफल मानो। दंगे हमारी राजनीतिक जरूरतें पूरी करते हैं। दंगागुरु को प्रणाम कर हम जैसे ही घर पहुंचे तो पत्नी ने बताया कि शहर में कोरोना आ चुका है। तब महसूस हुआ कि जान से हाथ धोने से बेहतर यही है कि अपने हाथ धो लिए जाएं।