कौशल किशोर। आज टिड्डियों के हमले से भारत और पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देश परेशान हैं। इस वजह से खरीफ फसलों को भारी नुकसान की आशंका है। दरअसल किसान फसलों को ऐसे ही दुश्मनों से बचाने हेतु कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं। छिड़काव किए गए रसायनों में से केवल एक प्रतिशत ही ठीक लक्ष्य साधने के काम आता है। शेष भूमि, जल स्नेत और वातावरण में पहुंच कर प्रकृति को ही प्रदूषित करते हैं। आज एक बड़ी चिंता का विषय यह है कि दुनिया भर में कम से कम पच्चीस लाख लोग सालाना कीटनाशकों के जहर से प्रभावित होते हैं। इनमें से सवा दो लाख लोगों की मौत की रिपोर्ट सुर्खियों में है।

भारत में कृषि, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे संवेदनशील विषयों पर काम करने वाले विशेषज्ञ व कार्यकर्ता घरेलू बाजार में उपलब्ध 66 प्रकार के ऐसे कीटनाशकों के खिलाफ एक दशक से सक्रिय हैं, जो कई अन्य देशों में पहले से प्रतिबंधित हैं। कृषि मंत्रलय ने हाल ही में इन 66 कीटनाशकों में से 27 को प्रतिबंधित करने के लिए अधिसूचना जारी की है, जो इस लिहाज से बड़ी जीत है। खर-पतवार और कीट-पतंग भी जैव विविधता के ही अंग हैं। कीटनाशकों के बिना कृषि क्षेत्र में उत्पादन अपरिहार्य प्रतीत होता है।

आज टिड्डियों के हमले की विकराल समस्या हमारे सामने है। इन टिड्डियों का एक दल आसमान में एक वर्ग किमी जगह घेरता है। इसमें शामिल करीब पांच करोड़ टिड्डियों के दैनिक आहार की मात्रा कई टन होती है। दुनिया भर में खेती की स्थानीय परंपरा में कीटनाशकों के इस्तेमाल का विवरण मिलता है। लेकिन बीसवीं शताब्दी के अंत तक अमेरिका ने कीटनाशकों की खपत 35 फीसद तक कम कर उल्लेखनीय काम किया। यूरोप में कीटनाशकों के खपत में बीते चार दशकों में ऐसा ही परिवर्तन देखने को मिलता है। चीन में वर्ष 1983 से डीडीटी, एचसीएच समेत कई अन्य कीटनाशकों का उपयोग प्रतिबंधित है। इसके बावजूद आज वहां पांच लाख लोग प्रति वर्ष कीटनाशकों के जहर से दुष्प्रभावित होते हैं, जिनमें से एक लाख लोग मौत का शिकार भी होते हैं।

भारत में कीटनाशकों के उत्पादन और उपयोग पर नजर डालने से हैरानी होती है। अमेरिका, जापान और चीन के बाद भारत कीटनाशकों का चौथा बड़ा सप्लायर है। विश्व में भारतीय कीटनाशक उद्योग का बारहवां स्थान है। यहां कीटनाशकों के उत्पादन की क्षमता एक लाख चालीस हजार टन सालाना है। वास्तव में यह बाजार निर्यात पर आधारित है। भारत से व्यापक मात्र में कीटनाशक ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, नीदरलैंड्स, दक्षिण अफ्रीका, बांग्लादेश और मलेशिया जैसे देशों को निर्यात किया जाता है। कुछ हर्बल पेस्टीसाइड जैसे उत्पादों का निर्यात सर्वाधिक है। भारत में प्रति हेक्टेयर कीटनाशकों की खपत दुनिया भर में सबसे कम है। हालांकि यह तेजी से बढ़ रहा है जिसमें जैविक उत्पादों का इस्तेमाल भी शामिल है। परंतु यहां ऐसे कीटनाशकों का उपयोग भी धड़ल्ले से होता है, जिसे बंद करना ही जीवन के लिए बेहतर है। इस व्यापार के विश्लेषण से आधुनिक सभ्यता और भदेस संस्कृतियों के बीच का समीकरण उजागर होता है।

कीटनाशकों के इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तन के बीच का संबंध भी स्पष्ट है। अरब की मरुभूमि में चक्रवाती तूफान और भारी बारिश की खबरें बीते दो वर्षो में सुíखयों में रही हैं। इसी का परिणाम है कि मध्य पूर्व के देशों से लेकर अफ्रीका और एशिया के कई देशों में टिड्डियों का आतंक फैलने लगा। गत वर्ष यमन के लोगों ने इन टिड्डियों के हमले को अवसर के रूप में स्वीकार किया और व्यापक स्तर पर हाई प्रोटीन डाइट के तौर पर इसका इस्तेमाल होने लगा। पाकिस्तान के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विभाग के नौकरशाह मोहम्मद खुर्शीद एवं कृषि अनुसंधान परिषद के विशेषज्ञ जौहर अली ने यमन के प्रयोग से प्रेरणा लेकर टिड्डियों का इस्तेमाल चिकन फीड के तौर पर करने के लिए एक अभियान चलाया। मीडिया में इसकी सफलता का विश्लेषण सरहदों की सीमाओं में कैद नहीं रह गया। फिर पाकिस्तान की सरकार पंद्रह रुपये प्रति किलो की दर से टिड्डियों को खरीदने की योजना पेश की। आपदाओं की जुगलबंदी के बीच इस तरह के अभियान से टिड्डियों के हमले को रोकने के लिए जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं रही।

देखा जाए तो कृषि संस्कृति आधुनिक सभ्यता की तरह चमकदार तो नहीं है, परंतु जहां तक टिकाऊ होने की बात है तो इसका कोई जोड़ नहीं है। हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के आधुनिक दौर में जीन परिवíधत बीजों के उपयोग और रासायनिक उर्वरकों की दुकानदारी में इजाफा हुआ है। बेहद खतरनाक रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल में वृद्धि भी इसी की एक कड़ी है। इससे कई वर्गो के बीच के संबंधों की पोल भी खुली है। साथ ही लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में छिपी बौद्धिक निष्ठुरता भी जाहिर हुई है। इन सभी बातों को ध्यान में रख कर आगे बढ़ना आसान तो नहीं है, पर नामुमकिन भी नहीं है।