[ संजय गुप्त ]: महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव नतीजे यही स्पष्ट कर रहे हैैं कि राजनीतिक हालात लगातार बदलते रहते हैैं। चंद माह पहले लोकसभा चुनावों में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और अमित शाह के कुशल प्रबंधन में देश के अन्य अनेक हिस्सों के साथ महाराष्ट्र और हरियाणा में भी शानदार जीत हासिल की थी, लेकिन विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में विपक्षी दल उसे चुनौती देते नजर आए। दोनों राज्यों के नतीजे भाजपा को चिंतित करने के साथ ही उसके आत्मविश्वास पर असर डालने वाले हैैं।

हरियाणा में भाजपा ने आसानी से बहुमत का जुगाड़ कर लिया

हरियाणा में तो विपक्ष ने एक तरह से भाजपा का विजय रथ ही रोक दिया। यहां भाजपा ने 75 पार का लक्ष्य तय किया था, लेकिन उसे बहुमत के लिए जरूरी 46 सीटें भी नहीं मिलीं। इसके विपरीत जो कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त दिखने के साथ मुद्दों के अभाव से जूझ रही थी उसने पिछली बार के मुकाबले दूनी सीटें हासिल कर लीं और नई बनी जननायक जनता पार्टी ने 10 सीटें हासिल कर लीं। जब यह लग रहा था कि त्रिशंकु विधानसभा के कारण हरियाणा में सरकार गठन में देरी होगी तब भाजपा ने बड़ी आसानी से बहुमत का जुगाड़ कर लिया। पहले करीब-करीब सभी निर्दलीय उसके साथ आ गए, फिर जननायक जनता पार्टी उसके साथ सरकार में शामिल होने को तैयार हो गई।

जेजेपी के सरकार में शामिल होने से स्थायित्व की गारंटी मिली

जननायक जनता पार्टी के सरकार में शामिल होने से एक ओर जहां भावी सरकार को स्थायित्व की गारंटी मिली वहीं भाजपा दागी छवि वाले विधायक गोपाल कांडा का समर्थन लेने की तोहमत से बच गई। अगर संगीन आरोपों से घिरे गोपाल कांडा के समर्थन से भाजपा सरकार बनाती तो उसके लिए अपनी छवि बचाना मुश्किल हो जाता। यह अच्छा हुआ कि भाजपा ने कांडा से दूरी बनाना बेहतर समझा। जननायक जनता पार्टी के भाजपा के साथ आने से भाजपा को जाटों की नाराजगी दूर करने में भी मदद मिलेगी, लेकिन यह सामान्य बात नहीं कि खट्टर सरकार यह समझ ही नहीं सकी कि जाट मतदाता उन्हें सत्ता से बाहर करने का मन बना चुके थे।

महाराष्ट्र में शिवसेना की सौदेबाजी से सरकार के गठन में विलंब

यह आश्चर्यजनक है कि जिस हरियाणा में सरकार बनने में देरी के आसार दिख रहे थे वहां तो सरकार का गठन पहले सुनिश्चित हो गया और जिस महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना ने आसानी से बहुमत हासिल किया वहां सरकार गठन में विलंब होता दिख रहा है। इसका कारण शिवसेना की ओर से सौदेबाजी करना है। वह ढाई-ढाई साल तक बारी-बारी से सत्ता संभालने के फार्मूले पर जोर दे रही है। चूंकि महाराष्ट्र में भाजपा उम्मीद से कम एक सौ पांच सीटें ही जीत सकी इसलिए 56 सीटें हासिल करने वाली शिवसेना उस पर अपना दबाव बढ़ा रही है। देखना है कि यह दबाव क्या गुल खिलाता है? अगर शिवसेना सौदेबाजी की अपनी ताकत का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करती है तो भाजपा से उसके संबंधों में फिर से खटास आ सकती है और उसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ सकता है।

हरियाणा और महाराष्ट्र में क्षेत्रीय और स्थानीय मसले भारी पड़े

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के केंद्र सरकार के फैसले को जोर-शोर से प्रचारित किया था। इसके अलावा उसने सीमाओं की सुरक्षा समेत राष्ट्रवाद को भी भुनाने की कोशिश की, लेकिन नतीजे बता रहे हैैं कि क्षेत्रीय और स्थानीय मसले भारी पड़े। इसके अलावा यह भी दिख रहा है कि जाति-बिरादरी से जुड़े मसलों ने भी अपना असर दिखाया। जहां हरियाणा में जाटों की नाराजगी मुद्दा बनी वहीं महाराष्ट्र में एनसीपी के शरद पवार ने मराठा कार्ड खेला। उन्होंने खुद पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को भी अपने पक्ष में भुनाने का काम किया। शायद इसी कारण एनसीपी के मुकाबले कांग्रेस पिछड़ गई।

हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सफलता में सोनिया-राहुल का योगदान अधिक नहीं

ध्यान रहे कि हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त थी। कांग्रेस हरियाणा में तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में फिर से खड़ी होती दिखी, लेकिन महाराष्ट्र में उसका प्रदर्शन फीका ही रहा। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को जो भी सफलता मिली उसमें सोनिया-राहुल का योगदान मुश्किल से ही नजर आता है। सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में गिनती की सभाएं कीं। उनके मुकाबले राहुल ने ज्यादा सभाएं कीं, लेकिन वह घिसे-पिटे मुद्दों के सहारे ही मोदी सरकार को घेरते रहे। उनके पास राफेल सौदे में गड़बड़ी और चंद उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाए जाने के वही पुराने जुमले थे जो वह लोकसभा चुनाव में उछाल चुके थे।

विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे ही कारगर रहते हैैं

पता नहीं कांग्रेस नेतृत्व अपनी कमजोरियों को कब समझेगा, लेकिन कम से कम महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों से भाजपा को तो यह समझना ही होगा कि विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे ही कारगर रहते हैैं। अगर राज्य सरकारें क्षेत्रीय मसलों को सही ढंग से हल नहीं करेंगी तो फिर राष्ट्रीय मुद्दे उनके लिए मददगार नहीं हो सकते। विधानसभा चुनावों में मतदाता यह देखता है कि राज्य सरकार ने उसकी रोजमर्रा की समस्याओं को सुलझाने के लिए क्या किया, न कि यह कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय महत्व के सवालों को किस तरह हल किया? यह एक महत्वपूर्ण पहलू है।

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को मनमाफिक जीत नहीं मिली

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को मनमाफिक जीत नहीं मिली तो इसकी एक वजह आर्थिक मंदी का माहौल भी है। हैरत नहीं कि मतदान में कमी का एक बड़ा कारण यह माहौल ही रहा हो। यह मानने के पर्याप्त कारण हैैं कि आर्थिक सुस्ती से उदासीन और निराशा मतदाताओं ने वोट डालने से गुरेज किया या फिर नोटा का इस्तेमाल किया। एक अन्य कारण उपयुक्त उम्मीदवारों का अभाव भी हो सकता है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हरियाणा में तमाम ऐसी सीटें रहीं जहां हार-जीत दो हजार वोटों के अंतर से हुई।

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा के ज्यादातर मंत्री चुनाव हारे

भाजपा को इस पर भी गौर करना चाहिए कि दोनों राज्यों में उसके ज्यादातर मंत्री चुनाव क्यों हार गए? मंत्रियों की हार जनता की नाराजगी को जाहिर करती है। भाजपा के लिए यह गनीमत रही कि इस नाराजगी के बाद भी वह दोनों राज्यों में सत्ता से बाहर नहीं हुई, लेकिन उसे मतदाताओं की उदासीनता और नाराजगी के कारणों की तह तक जाना होगा और उनका निवारण भी करना होगा।

विपक्ष का मनोबल बढ़ने से दिल्ली और झारखंड में भाजपा के लिए चुनौती बन सकतें हैं

इसी के साथ उसे चुनाव वाले राज्यों में अपनी सरकारों के कामकाज पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने विपक्ष का मनोबल बढ़ाने का काम किया है। यह मनोबल दिल्ली और झारखंड में भाजपा के लिए चुनौती बन सकता है। यह ठीक है कि कांग्रेस राजस्थान, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की जीत को लोकसभा चुनावों में नहीं भुना सकी थी, लेकिन वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगामी विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी को फिर से भुना सकती है। इसे देखते हुए भाजपा के लिए यह आवश्यक है कि वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कमर कसे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]