[ संतोष त्रिवेदी ]: सुबह उठते ही जैसे मैंने मोबाइल ऑन किया, ‘वाट्सएप’ ने दन्न से तीस संदेश उगल दिए। यह सोचकर बड़ा अपराधबोध हुआ कि बेचारे संदेश न जाने कब से अनदिखे पड़े रहे। अब इसका प्रायश्चित तो करना ही था। सो सभी संदेशों को हमने एक-एक कर पहले मोबाइल में उतारा फिर अपने दिल में। इनमें 21 संदेश तो ‘सुप्रभात’ के ही थे, वो भी एक-से-एक सुदर्शनाओं से लैस। हमें ऐसा लगा कि जैसे पृथ्वीलोक में हमारे लिए ‘अच्छे दिन’ लाने का टेंडर देवलोक की इन्हीं अप्सराओं को मिला हो! उनकी शुभकामनाओं की बाढ़ में हम थोड़ी देर डूबते-उतराते रहे। जब होश संभाला तो उन सभी का आभार व्यक्त किया जो मेरी सुबह के लिए मुझसे अधिक फिक्रमंद थे। इसके बाद तो मेरा दिन वाकई ‘अच्छा’ हो गया।

थोड़ी ही देर बाद मेरा मोबाइल फिर से ‘बीप’ मारने लगा। किसी अच्छी खबर की ‘आशंका’ तो मुझे ‘गुड मॉर्निंग’ के थोक संदेशों से ही हो गई थी और ताजा संदेश से वह सच साबित हुई। शहर के ‘लेखक उठाओ समिति’ ने मुझे अपने ‘वाट्सएप’ ग्र्रुप में उठा लिया था। एडमिन श्री साहित्य सवार जी ने मुझ पर अपना भरोसा जताते हुए बेहद महत्वपूर्ण काम सौंपा था। मुझे नियमित रूप से गिरोह में हो रही किसी भी गतिविधि में ‘बधाई’ और ‘शुभकामना’ उगलने का ‘पॉवर’ मिला था। उनके अनुसार चूंकि मैं उभरता हुआ लेखक हूं, इसलिए उन्होंने मुझे सही समय पर ‘उठा’ लिया था। मैं तो केवल इसी बात से फूलकर मटका हो रहा था कि मेरे जीते जी ‘उठने’ की क्रिया संपन्न हो रही थी, वरना अधिकांश लेखक तो मरने के बाद ही साहित्य में उठते हैं। यह आसान उपलब्धि नहीं थी। मुझे लगा, हो न हो, यह साहित्य की ‘तत्काल-सेवा’ हो।

मैं ख़ुद को बड़ा ख़ुशनसीब समझ रहा था कि मुझे इसका कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं देना होगा सिवाय समय के। वैसे भी मैं दिन भर निठल्ला पड़ा रहता हूं सो समय की अपन के पास कभी कोई कमी नहीं रही। शायद साहित्य सवार जी को हमारी इसी प्रतिभा का सुराग मिला हो और इसीलिए उन्होंने मुझे ‘लेखक उठाओ’ मिशन में शामिल कर लिया। सुबह हुए इस ‘साहित्याघात’ से उबरने की अभी कोशिश में ही था कि मेरी प्रगति का एक और रास्ता खुलता दिखा। ‘जाति बचाओ दस्ता’ ने मुझे सजातीय समझकर अपने गैंग में तुरंत प्रभाव से जोड़ लिया था। मैं यह कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरी जातीय ‘उपलब्धि’ भी कभी कुछ कमाल दिखाएगी। बहरहाल जब समय अच्छा चल रहा हो तो गुंडा भी वजीर बन जाता है। मैं तो फिर भी केवल निठल्ला था।

ग्र्रुप में जोड़ने के साथ एडमिन ने मुझे काम भी दे दिया। ग्र्रुप में प्रसारित ताजा पर्चे को देखते ही दस लोगों को शेयर करना था। इसे पढ़ने में समय बर्बाद करना मतलब गैंग की निष्ठा पर सवाल उठाना माना जाता। मेरे पास न समय की कमी थी, न निष्ठा की, सो मैंने बिना पढ़े ही अपनी संपर्क-सूची में शामिल सभी मित्रों को ‘किक’ सरीखे क्लिक से पर्चा फॉरवर्ड कर दिया।

पहली बार मैंने कोई नेक काम किया था और इस ‘नेकी’ को दरिया में डाल भी दिया था। दिन की शुरुआत से ही इतना अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा था कि मैं सब कुछ भूल-भालकर ‘वाट्सएप विश्वविद्यालय’ में भर्ती होने के मजे उठाने लगा। तभी श्रीमती जी ने रसोई से आवाज लगाई-‘शालू के पापा, सुन रहे हो? सूरज सिर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी मोबाइल में ही घुसे हो! आज नहाने-धोने का मूड नहीं है क्या? ‘एक साथ इतने ‘जेनुइन’ सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं था। झट से मोबाइल का ‘डाटा’ बंद किया और बाथरूम में घुस गया। तकरीबन आधे घंटे की अलौकिक-शांति महसूस करने के बाद बाथरूम से बाहर निकला।

नाश्ते से पहले मोबाइल पर टूट पड़ा। डाटा ऑन करते ही ‘वाट्सएप’ पर संदेशों की बरसात होने लगी। पंद्रह वीडियो और पचास ‘सुभाषित’ ग्रहण करने से मोबाइल का हाजमा तो ठीक हुआ, पर मेरा बिगड़ गया। इस बीच पता नहीं कैसे ‘राष्ट्रीय निठल्ला समिति’ के सचिव को मेरे ‘वाट्सएप’ में होने की खबर मिल गई। उन्होंने ‘हम सब एक हैं’ ग्र्रुप में मुझे अपनी संपत्ति समझकर घसीट लिया। ग्र्रुप में एक वायरल-ग्रस्त वीडियो पर गंभीर विमर्श मचा हुआ था। यह सब देखकर ख़ुद को ‘वायरल’ की आशंका होने लगी। मुझे ‘वाट्सएप’ के ‘लच्छन’ ठीक नहीं लगे। ‘न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी’ जैसे पुराने आइडिये पर अमल करते हुए मैंने मोबाइल से ‘वाट्सएप’ ही हटा दिया और पार्क में आकर घंटों ‘निठल्ला चिंतन’ करता रहा।

शाम को जैसे ही घर में कदम रखा, छोटे बेटे ने कोहराम मचा दिया। कहने लगा-पापा, मेरा होमवर्क अब आप ही करोगे। आपके मोबाइल में ‘वाट्सएप’ तक नहीं है। मैं दोस्तों से होमवर्क कैसे लूं?’ मेरे लिए यह बड़ी आफत थी। छोटी-छोटी आफतों ने आखिरकार बड़ी आफत के आगे ‘सरेंडर’ कर दिया। अब मोबाइल में ‘वाट्सएप’ है, ग्र्रुप है, सनसनी है, संदेश है। मैं भी अब निठल्ला नहीं रहा। दिन-भर संदेशों को कूड़ेदान में फेंकता रहता हूं।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]