[ राजीव शुक्ला ]: जाने-माने राजनेता अरुण जेटली को इस संसार से विदा हुए एक साल हो रहा है। मैं नहीं समझता कि भारतीय राजनीति में कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने उनकी कमी महसूस न की हो। तमाम विपक्षी नेता आज यह कहते हुए मिल जाते हैं कि जेटली जी होते तो इस कोरोना काल में भी कुछ अलग रणनीति बनाते। वह उन्हें इसलिए भी याद करते हैं कि उनके जरिये अपनी बात सरकार तक पहुंचाना आसान लगता था। पूरा विपक्ष उनके साथ सहज रहता था और वह भी विपक्षी नेताओं के संपर्क में रहते थे।

जेटली उन राजनेताओं में थे जो राजनीति में कटुता के बजाय सामंजस्य बनाने में यकीन रखते थे

जेटली जी उन राजनेताओं में थे जो राजनीति में कटुता के बजाय सद्भाव और सामंजस्य बनाने में यकीन रखते थे। उन्हें कोई शत्रु की तरह नहीं मानता था। किसी भी समस्या का हल खोजने में उनकी दिलचस्पी रहती थी। वह बीच का कोई ऐसा रास्ता निकालते जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट हो जाते। सामने वाले की बात सुनकर वह अपनी धारणा बदल भी लेते थे। जब मैं संसदीय कार्यमंत्री था तो अक्सर उनसे संपर्क करना पड़ता था, क्योंकि वह विपक्ष के नेता थे और उनकी सहमति बिना सदन का काम चलाना मुश्किल था।

भाजपा के विपक्ष के दौरान जेटली ने सदन में विधेयक पारित कराने में बीच का रास्ता निकाला था

भाजपा के विपक्ष में रहते समय कभी-कभी हफ्तों तक सदन स्थगित रहता था। एक बार मैंने उनसे कहा कि ऐसा कैसे चलेगा कि विधेयक पारित ही न होने पाएं तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाला। इसमें उन्हें महारत हासिल थी। वह बोले कि दो बजे तक हमें सदन में अपनी बात कहने दो और फिर तुम अपने विधेयक लाकर पारित कराओ। मैंने ऐसा ही किया। जब विधेयकों पर उनकी पार्टी की नीतिगत आपत्ति होती थी तब मैं संबंधित विभाग के मंत्री को लेकर उनके पास चला जाता था कि आप ही उसमें जरूरी सुधार बता दो। उस समय वह आवश्यक सुझाव देकर विधेयक के पारित होने का रास्ता निकाल देते।

सहयोग करने की प्रवृत्ति जेटली में थी और अन्ना हजारे को अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा था

जब अन्ना हजारे का आंदोलन चरम पर था और संसद नहीं चल पा रही थी तो हस्तक्षेप के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख को यह जिम्मा सौंपा गया कि चूंकि वह महाराष्ट्र से हैं तो इस नाते वह अन्ना को मना पाएं। अन्ना ने पेशकश की कि यदि एक प्रस्ताव उनकी मांगों को लेकर संसद में पारित हो जाए तो वह धरना वापस ले लेंगे। उस प्रस्ताव का मसौदा विलासराव जी लाए, जिसे मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी ने मामूली सुधार के साथ सहमति दे दी। अन्ना भी राजी हो गए। अब समस्या थी कि भाजपा को कैसे मनाया जाए, जिससे सदन चले। संसदीय कार्यों के मामले में प्रणब मुखर्जी सबसे ज्यादा ध्यान देते थे। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि इस पर जेटली और सुषमा स्वराज तैयार हो जाएं तो रास्ता निकल सकता है। मैं वह प्रस्ताव लेकर जेटली जी के पास गया। उन्होंने उसमें संशोधन की बात कही। मैंने कहा कि आप ही इस प्रस्ताव को ड्राफ्ट करा दें। उन्होंने उसे अपने स्टेनोग्राफर को डिक्टेट करा दिया। मैंने पाया कि दो शब्दों के अलावा वही प्रस्ताव था। मैं उसे लेकर सुषमा स्वराज के पास गया। उन्होंने भी सहमति दे दी। मैंने इस प्रस्ताव को मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी को दिखाया तो उन्होंने उन दो शब्दों के बदलाव पर कोई आपत्ति नहीं की। इसके बाद प्रधानमंत्री के कमरे में जेटली जी और सुषमा जी को चाय पर आमंत्रित किया गया। प्रस्ताव पर सर्वसम्मति बन गई, जिसे प्रणब मुखर्जी ने सदन में पढ़ा और इस तरह संसद चलने लगी। इसी के साथ अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन वापस ले लिया। इस तरह का सहयोग करने की प्रवृत्ति जेटली जी में थी।

जीएसटी मामले पर जेटली ने छह महीने में सभी मुख्यमंत्रियों को मनाया और बीच का रास्ता निकाला

जीएसटी के मामले पर तमाम मुख्यमंत्रियों के बीच गहरे मतभेद थे, लेकिन जेटली जी ने छह महीने में सभी मुख्यमंत्रियों को मनाया और बीच का रास्ता निकाला। जब मनमोहन सरकार जीएसटी लाना चाह रही थी तो सबसे ज्यादा विरोध मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों का था। बाद में जब भाजपा सरकार इसे लाई तो विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों के विरोध को जेटली जी ने शांत कर लिया। कांग्रेस में नारायणसामी, कैप्टन अमरिंदर सिंह, बीजू जनता दल के नवीन पटनायक, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी से भी उनके अच्छे रिश्ते थे। अपने घटक दलों के नेताओं नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल से हर विषय पर सहमति लेने का काम वही करते थे।

जेटली भाजपा के प्रति निष्ठावान रहते हुए दूसरे दलों की समस्याओं का हल निकालने को तत्पर रहते थे

संसद के प्रत्येक सत्र में जेटली जी अपने ऑफिस में मारवाड़ी और पंजाबी खाने का लंच रखते थे जिसमें तमाम विपक्षी सांसद नजर आते थे। अक्सर उन्हें संसद के गलियारों में गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल, मोतीलाल वोरा, आनंद शर्मा आदि से बात करते देखा जा सकता था। अपनी पार्टी के प्रति निष्ठावान रहते हुए वह दूसरे दलों की समस्याओं का भी हल निकालने को तत्पर रहते थे।

जेटली यह मानते थे कि राजनीति व्यक्तिगत टकराव नहीं, बल्कि विचारधारा की लड़ाई है

जब वह सेंट्रल हॉल में बैठते थे तो दर्जनों पत्रकार उन्हें घेरे बैठे रहते थे। वह यह मानते थे कि राजनीति व्यक्तिगत टकराव नहीं, बल्कि विचारधारा की लड़ाई है। बीसीसीआइ में भी जब कभी विवाद हो जाते थे तो बोर्ड का अहम सदस्य होने के नाते वह हमेशा कोई न कोई हल निकाल लेते थे। क्रिकेट की उन्हें इतनी जानकारी थी कि उन्हें चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता था। राज्यों में जूनियर स्तर पर खेल रहे अच्छे खिलाड़ियों के बारे में भी उन्हें पता होता था। यदि उनकी किसी व्यक्ति के बारे में गलत धारणा बन जाती थी तो वह उससे जमकर लड़ते भी थे, भले ही कुछ हो जाए। न्यायिक क्षेत्र के लोगों से भी उनके मधुर संबंध थे।

'राजनीति में व्यक्तिगत कटुता की कोई गुंजाइश नहीं' के सिद्धांत को जेटली ने हमेशा माना

राजनीति में विचारधारा के मतभेद हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत कटुता और शत्रुता की कोई गुंजाइश नहीं, इस बात को भारत के कई नेताओं ने अपनाया जिनमें पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, इंद्र कुमार गुजराल, कर्पूरी ठाकुर, भैरोंसिंह शेखावत, कृष्णकांत, विलासराव देशमुख, शीला दीक्षित, रामकृष्ण हेगड़े प्रमुख हैं। अरुण जेटली ने भी हमेशा इसी सिद्धांत को माना।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )