नवनीत शर्मा। पद्म पुरस्कारों ने इस बार देश भर में राह बदली और नए रास्तों पर चले। नए रास्तों पर चलना रॉबर्ट फ्रॉस्ट पहले ही बता चुके हैं कि पहले से बने हुए रास्ते पर चलने में कोई आनंद नहीं होता, रोमांच नहीं होता, रहस्य को जान लेने के बाद की संतुष्टि नए रास्ते पर ही आती है। चंडीगढ़ स्थित पीजीआइ हिमाचलियों के लिए स्वास्थ्य का बड़ा केंद्र है। पद्म पुरस्कार ने वहां लंगर खिला रहे बुजुर्ग जगदीश लाल आहूजा का रुख किया तो जैसे पद्म पुरस्कार स्वयं भी सम्मानित हुआ। देश भर में ऐसे कई हीरे सम्मानित हुए, जिन्हें अब तक किसी ने देखा तक नहीं था। उसी पुरस्कार ने जब हिमाचल प्रदेश की ओर देखा तो वहां उसे एक ऐसी बेटी दिखी जिसने मंडी, हमीरपुर और बिलासपुर जिले की सीमा पर स्थित एक छोटे से गांव भांबला से बाहर निकल कर मुंबई तक अपनी जगह बनाई। कंगना रनोट। साथ ही संस्कृत के एक साधक तक पहुंच गया पद्म पुरस्कार। 

मुंबई जैसे समुंदर में हिमाचल की एक चिड़िया अगर अपना नाम अपने बलबूते बनाने में कामयाब रही तो यह गर्व का विषय है। कंगना की व्यावसायिक दक्षता तो उनकी फिल्मों से साबित हो जाती है, लेकिन वह मन में कुछ रखती हों, ऐसा नहीं है। अक्सर लोग अपनी छवि का ख्याल रखते हुए राजनीतिक मौसम देख कर ही कुछ कहते हैं। कंगना के साथ ऐसा नहीं है। अभिराज राजेंद्र मिश्र त्रिवेणी संस्कृत के पंडित हैं, गद्य और पद्य में साहित्य सृजन के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालयों के कुलगीत लिख चुके हैं। यकीनन ये परिवेश के लिए प्रेरक का काम करेंगे।

चाहे चंडीगढ़ के जगदीश लाल हों, देश भर के नए चेहरे हों, हिमाचल प्रदेश की कंगना रनोट हों और प्रोफेसर अभिराज राजेंद्र मिश्र हों, सबकी एक ही खूबी है कि इन्हें किसी राजनीतिक मौसम से कोई लेना देना नहीं है। ये संदेश हैं कि काम में इतने डूब जाओ कि पता ही ना चले, कब नाम तैरने लगा। बीते वर्षो में पद्मश्री से अलंकृत डॉ. क्षमा मैत्रेय दक्षिण भारत को छोड़ कर हिमाचल प्रदेश को कर्मभूमि बना चुकी हैं और अपनी संस्था ‘कॉर्ड’ के माध्यम से गरीबी उन्मूलन, नारी सशक्तीकरण, स्वस्थ समाज और सुशिक्षित समाज के लिए कार्य कर रही हैं।

संभव है, आने वाले समय में शिमला के सरबजीत बॉबी के संघर्ष की गाथा को भी ऐसा कोई मुकाम मिले, जिनका लंगर शिमला के कैंसर अस्पताल में जनहित का विलक्षण उदाहरण है।

इस बात से इन्कार नहीं हो सकता कि ऐसे अलंकरण मान्यता ही होते हैं। सरबजीत बॉबी के संघर्ष के दिन याद किए जाएं और इस समय उनके साथ सेल्फी लेने वाले दिनों के मध्य तुलना की जाए तो काफी कुछ समझ में आता है। इसे मान्यता देने का बड़प्पन इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज अस्पताल शिमला के बाद सबसे बड़े अस्पताल डॉ. राजेंद्र प्रसाद राजकीय मेडिकल कॉलेज टांडा को भी सीखना चाहिए, जहां एक स्वयंसेवी संस्था के लंगर पर विवाद पैदा किया गया। भला हो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री का जिन्होंने समय रहते हस्तक्षेप कर टांडा प्रशासन को खिल्ली का शिकार बनने से रोक लिया।

हिमाचल के कुछ ऐसे हीरे भी हैं, जिन्हें बीते वर्षो में पद्म पुरस्कार मिल चुके हैं। जहां कहीं अच्छा हो रहा हो, उसे प्रेरित करना ही चाहिए और जहां ना हो रहा हो, वहां नीर क्षीर निर्णय भी अपेक्षित होते हैं। ऊना में सरकारी अस्पताल के बाहर एक बच्ची सीवरेज टैंक में गिर गई, जांच में प्लंबर ही दोषी पाया गया है। उसका कहना है कि उसने ढक्कन मांगे थे, पर दिए नहीं गए। यह वही हुआ- बैंक में नकदी खुली पड़ी हो, दोषी चपरासी को बताया जाए।

कार्य संस्कृति इसीलिए महत्वपूर्ण है। इसी बहाने कुल्लू की गीता को याद करना जरूरी है, जो पोलियो की बूंदें नौनिहालों को पिलाने निकली थीं, लेकिन बर्फीले रास्ते पर खाई में गिर गईं। वह भी प्रदेश के काम आईं। सुखद यह रहा कि 26 जनवरी को उसके परिजनों को सम्मानित किया गया।

बहरहाल, अब तक देश में 4,756 पद्म सम्मान प्रदान किए जा चुके हैं, जबकि हिमाचल प्रदेश के खाते में कुल 14 यानी एक पद्म विभूषण और 13 पद्मश्री हैं। इनमें रेबीज की दवा का नया प्रोटोकोल बनाने वाले डॉ. उमेश भारती भी हैं। कंगना रनोट (महाराष्ट्र), चरणजीत सिंह (हरियाणा) और सूबेदार विजय कुमार (सेना) अलग से हैं। यह सूची बढ़ेगी अगर इसी तरह काम पुरस्कृत होता रहे। उम्मीद है कि आदम की मुश्किलें समझने और उन्हें दूर करने वाले पहचाने जाते रहेंगे। आखिर ऐसे ही तो नहीं कहा है : कैसे समझ में आएंगी आदम की मुश्किलें, उसको जो सारी उम्र खुदा में लगा रहा।

(लेखक हिमाचल प्रदेश के राज्य संपादक हैं)