[प्रशांत मिश्र]। रैना बीती जाए... आरडी बर्मन का यह गाना अरुण जेटली जी को बहुत प्रिय था। सुना है हाल के दिनों में वह कई बार इस गाने को सुनते रहे थे। यह सच है कि तीन-चार महीने पहले तक बीमारी को हराकर जीवन के मैदान में फिर से उतरने को लेकर विश्वस्त अरुण जी को हाल के दिनों में आभास होने लगा था कि अब जीवन की डोर छोटी हो रही है। और इसीलिए अपनों से, खास दोस्तों से मिलते तो भविष्य के लिए कुछ-कुछ संदेश जरूर देते थे। दोस्तों को यही बोलकर गए थे कि मित्र मंडली चलती रहनी चाहिए। जितना संभव हो एक दूसरे की मदद करते रहना चाहिए। एक दूसरे के साथ खड़े होना चाहिए। लेकिन अगर कोई यह समझ बैठे कि वह हार गए थे या भयभीत थे तो बिल्कुल गलत होगा।

जिम्मेदारी मिलती गई उसमें खुद को साबित करते गए
दरअसल जितना मैं समझ पाया वह न तो किसी भी परिस्थिति से डरने वाले थे और न ही धैर्य खोने वाले। वह तो डटकर मुकाबला करने वाले थे। छात्र राजनीति से लेकर केंद्र सरकार में मंत्री बनने तक उन्होंने कभी अधीरता नहीं दिखाई। जो जिम्मेदारी मिलती गई उसमें खुद को साबित करते गए। बीमारी के बाद मौत ने उन्हें जरूर हर किसी से ओझल कर दिया है, लेकिन जीवन और राजनीति को लेकर उनकी सोच और प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहेगी। अरुण जी को जानने-पहचानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी और इस नाते उनके हर पहलू पर काफी बातें होती रही हैं। मैं तो इतना कह सकता हूं कि एक इंसान के रूप में उनका जाना समाज के लिए बहुत बड़ी रिक्तता पैदा कर गया है। कहा जाता है कि अच्छे इंसान की पहचान इससे हो सकती है कि उनके घरेलू सहायक कितने लंबे वक्त से टिके हैं। सभी जानते हैं कि उनके घर का न तो कभी कोई सेवक बदला, और न ही दोस्त, बल्कि संख्या बढ़ती ही चली गई।

अरुण जेटली के दोस्त हर दल में थे
उनका यही गुण उन्हें राजनीति में भी अलग खड़ा करता है। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद वह भाजपा के संभवत: अकेले ऐसे नेता माने जा सकते हैं जिनके दोस्त हर दल में थे। विचारधारा से परे हटकर उनके बीच लंबी बातचीत हो सकती थी। एक दूसरे के हमराज बन सकते थे। बिहार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। सभी जानते हैं कि बिहार में भाजपा और जदयू के बीच जितना लंबा गठबंधन रहा है उतने ही दोनों दलों के बीच तनाव के पल भी रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अरुण जेटली के संबंधों में इस कारण कोई बाधा नहीं आई। मगर उतना ही ध्यान इसका भी रहा कि राजनीतिक विचारधारा और सांगठनिक कर्तव्य की राह में संबंध आड़े न आएं। यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम ऊपर रखने की बात आई तो नीतीश के साथ अच्छे संबंधों ने उन्हें नहीं जकड़ा। भाजपा और जदयू अलग-अलग हो गए तब भी संबंध नहीं बिगड़े। कर्तव्यपरायणता की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी।

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जब पत्रकार ने जेटली से पूछे तीखे सवाल
मुझे याद आता है कि नोटबंदी के बाद मीडिया के एक मित्र ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अरुण जी से बहुत तीखे सवाल किए थे। बाद में पत्रकार की पत्नी के अलावा भी कई साथियों ने जब कहा कि सवाल बहुत तीखे थे तो वह पत्रकार अरुण जी के पास पहुंचे। उनसे पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि ऐसे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए थे तो उन्होंने तपाक से कहा-अरे भाई, तुम्हें यही पूछना चाहिए था। दोस्ती की जगह दूसरी है और काम की जगह दूसरी। यही उनकी बड़ी खूबी थी। उनकी दोस्ती सामने वाले को बांधती नहीं थी, बल्कि उन्मुक्त करती थी। उनका बड़ा राजनीतिक और सामाजिक कद भी कभी किसी को छोटा महसूस नहीं करने देता था, बल्कि ऊपर उठने को प्रेरित करता था।

जब एक पदाधिकारी का शक जेटली पर गया 
दरअसल उनके आसपास हमेशा ऐसा माहौल होता था कि कभी भी आपसी मनभेद न पैदा हो सके। मुझे याद है कि भाजपा संगठन के एक बड़े नेता के बारे में एक खबर छपी थी जिसमें यह लिखा गया था कि वह अमेरिका में घूम रहे हैं। किसी कारणवश उस पर खूब चर्चा हुई थी। खबर लिखने वाले जेटली के भी मित्र थे और उक्त पदाधिकारी के भी। जाहिर तौर पदाधिकारी का शक जेटली के ऊपर गया था। उन्होंने तत्काल आमना- सामना कर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई थी।

वाजपेयी जी ने जेटली को दिए बड़े-बड़े मंत्रालय
मौजूदा दौर के नेताओं से उन्हें एक और बात जुदा करती थी और वह था धैर्य। बात 1999 की है। मीडिया के एक मित्र की शादी थी। तब जेटली सूचना प्रसारण विभाग में राज्यमंत्री बनाए गए थे। मैंने जब उनसे कहा कि वाजपेयी जी ने उन्हें क्षमता से कम दिया है तो वह कंधे पर धौल लगाते हुए बोले-सब ठीक है। इसमें कोई बात नहीं है और न ही मुझे आकांक्षा है। उनकी क्षमता को पहचानते हुए ही वाजपेयी जी ने बाद में उन्हें बड़े-बड़े मंत्रालय दिए थे। एक ऐसे इंसान का जाना समाज में रिक्तता पैदा कर गया है।

नरेंद्र मोदी ने जेटली को बनाया गुजरात का प्रभारी
रही बात भाजपा की तो लंबे अरसे तक उनकी भरपाई नहीं हो पाएगी। उन्हें संकटमोचक के रूप में ही जाना जाता रहा है। टेबल पर गेम जीतना उन्हें अच्छी तरह आता था और यही कारण है कि गुजरात में लोकप्रिय और अजेय रहे नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें ही लगातार गुजरात का प्रभारी बनाए रखना चाहा। उनकी आलोचना करने वाले यह कहते हैं कि वह खुद कभी नहीं जीत पाए। लेकिन पार्टी के अंदर इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि जीतने का मंत्र उनके पास था। वह अर्जुन नहीं बन पाए लेकिन द्रोणाचार्य के गुण थे। 2019 लोकसभा चुनाव अभियान में भी प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उन्हीं के पास थी। 

प्रवक्ताओं को भाजपा का पक्ष रखने का देते थे मंत्र 
नेतृत्व और निर्णय क्षमता को केंद्रित कर चुनाव लड़ने के प्रबल समर्थक रहे जेटली ने 2014 से प्रेसिडेंशियल फॉर्म ऑफ इलेक्शन यानी राष्ट्रपति शैली वाले चुनाव की बात शुरू कर दी थी। बीमारी के कारण वह शुरुआती कुछ दिनों के बाद कार्यालय आने में भी असमर्थ थे, लेकिन कर्मठता इतनी थी कि वह अस्पताल या घर बुलाकर भी प्रवक्ताओं को भाजपा का पक्ष रखने का मंत्र दिया करते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भी उनकी समझ पर इतना भरोसा था कि जब 2014 में महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लेना था तो शाह ने घोषणा करने से पहले जेटली से सलाह ली थी। उस वक्त भी जेटली अस्पताल में भर्ती थे।

भाजपा को भी खलेगी जेटली की कमी
संगठन बहुत बड़ा होता है, लेकिन उसे बड़ा बनाने में व्यक्तियों का हाथ होता है। आज भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है, दोबारा बहुमत के साथ सरकार में आने का रिकार्ड है तो इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष व गृहमंत्री अमित शाह को जाता है। लेकिन इससे पहले भाजपा को खासकर बुद्धिजीवियों के बीच स्वीकार्य बनाने वालों में एक नाम जेटली भी थे। उनकी कमी भाजपा को भी खलेगी और समाज में अच्छी बातें करने वाले, अच्छी सोच को बढ़ाने वाले लोगों को भी खलेगी।


(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)

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