शिखा गौतम। पिछले सप्ताह आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच युद्ध विराम की घोषणा के बावजूद हुए संघर्ष में सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसमें सैनिक भी शामिल हैं। दरअसल आर्मेनिया और अजरबैजान के मध्य नागोनरे-करबाख को लेकर भौगोलिक विवाद सोवियत गणराज्य के समय से ही विद्यमान है, जो एक बार फिर से चर्चा में है। यह संघर्ष जुलाई से ही शुरू हो चुका था जिसने सितंबर के आखिरी सप्ताह में युद्ध का रूप धारण कर लिया।

आर्मेनिया एवं अजरबैजान के मध्य विवाद : आज पूरी दुनिया जहां कोविड संकट से जूझ रही है, वहीं विश्व के अनेक हिस्सों में सीमा विवाद, जातीय संघर्ष एवं हिंसा की घटनाएं इस जैविक संकट के काल में भी व्यापक रूप से प्रभावी हैं। आर्मेनिया एवं अजरबैजान के मध्य विवादित नागोनरे-करबाख प्रांत को लेकर जारी हिंसा उपरोक्त संघर्ष का उपयुक्त उदहारण है। विश्व पटल पर विभिन्न राष्ट्रों के मध्य भौगोलिक विवादों को सीमा विवादों के तौर पर देखा जा सकता है। हाल के दशकों में बढ़ते सीमा विवादों ने बड़ी संख्या में जान-माल के नुकसान के साथ ही करोड़ों लोगों को विस्थापित होने के लिए भी बाध्य किया है।

72 हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ा : वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट, 2020 के अनुसार पूरी दुनिया में सीमा विवाद, आंतरिक संघर्षो एवं हिंसा के कारण 4.13 करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। इसके अतिरिक्त केवल आर्मेनिया और अजरबैजान सीमा विवाद के कारण तकरीबन 72 हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। ये आंकड़े विस्थापन के लिए युद्ध एवं उसके प्रभाव को प्रस्तुत करते हैं। इस संदर्भ में इस संघर्ष को दो परिप्रेक्ष्यों में देखना महत्वपूर्ण है। पहला, आंतरिक व्यवस्था और दूसरा, वैश्विक परिप्रेक्ष्य, जिनके आधारों पर संघर्ष के स्वरूप और प्रभावों को समझा जा सकता है।

दोनों ही राष्ट्रों के लिए सीमित एवं बहुमूल्य पेट्रोलियम उत्पाद : आर्मेनिया और अजरबैजान भौगोलिक रूप से काकेशियान क्षेत्र में हैं जो सोवियत रूस के विघटन होने के पहले तक उसके प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत आते थे। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र का महत्व प्राकृतिक ऊर्जा के स्नेतों के कारण भी महत्वपूर्ण है। जहां अजरबैजान तत्कालीन समय में मध्य एशिया और यूरोप में तेल के निर्यातक के रूप में स्थापित है, वहीं आर्मेनिया मूलत: कृषि, खनिज संसाधनों, दूरसंचार और पन-बिजली पर आधारित अर्थव्यवस्था है। दोनों ही राष्ट्रों के लिए सीमित एवं बहुमूल्य पेट्रोलियम उत्पाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान बनाए रखने की दृष्टि से जरूरी है। तत्कालीन भौगोलिक विवाद का आरंभ बिंदु 20वीं शताब्दी में परिलक्षित होता है, जब स्टालिन के द्वारा नागोनरे-करबाख प्रांत को सोवियत अजरबैजान के स्वायत्त शासन में दे दिया गया। हालांकि आर्मेनिया के निवासियों ने उस समय भी इसका विरोध किया था। वर्ष 1988 में उन्होंने इस प्रांत को सोवियत आर्मेनिया को देने की मांग की।

अशांति तथा अव्यवस्था की स्थिति को बढ़ावा : वर्ष 1991 में इस विवाद ने गंभीर रूप धारण कर लिया और आर्मेनियाई सेना ने नागोनरे-करबाख प्रांत और अजरबैजान शासित सात अन्य प्रांतों पर अधिकार स्थापित करके वहां स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। हालांकि इसे किसी भी राष्ट्र द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। काकेशियन क्षेत्र में इस विवाद ने पिछली सदी के आखिरी दशक से ही निरंतर अशांति तथा अव्यवस्था की स्थिति को बढ़ावा दिया जिसने दोनों ही राष्ट्रों को एक दूसरे के प्रति आशंकित करने एवं परस्पर विरोधी गुटों के विकास को बढ़ावा दिया।

भूतपूर्व सोवियत प्रांतों में रूसी एवं ईरानी हितों की रक्षा : इन गुटों ने ऐतिहासिक एवं भौगोलिक संदर्भो के तहत निहित हितों का ध्यान रखते हुए विकल्पों का चयन किया। एक ओर तुर्की ने धार्मिक, भौगोलिक और राजनीतिक तौर पर अजरबैजान के लोगों का पक्ष लिया, ताकि आर्मेनिया के बढ़ते प्रभाव को काकेशियान प्रांत में सीमित किया जा सके और दूसरी तरफ रूस एवं ईरान (जिनकी सीमा आर्मेनिया एवं अजरबैजान दोनों के साथ हैं) ने आर्मेनिया का साथ दिया, ताकि भूतपूर्व सोवियत प्रांतों में रूसी एवं ईरानी हितों की रक्षा की जा सके तथा अजरबैजान के ईरानी सीमा पर बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके। चूंकि ईरान की उत्तरी सीमा पर अजरबैजान का सामाजिक प्रभाव परिलक्षित होता है, लिहाजा वह उसके लिए चिंता का विषय है।

अजरबैजान द्वारा सीरियाई विद्रोहियों को आर्मेनिया के विरुद्ध इस्तेमाल : इसके अतिरिक्त तुर्की में बसे अजरी तुर्को की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता भी इस समीकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू है जिसने इस ऐतिहासिक क्षेत्रीय विवाद को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। इस प्रतिस्पर्धा में नागोनरे-करबाख और उससे जुड़े प्रांतों के लोगों को सभी राजनीतिक-भौगोलिक निर्णयों में निरपेक्ष रखा गया। तुर्की के बढ़ते दखल और अजरबैजान द्वारा सीरियाई विद्रोहियों को आर्मेनिया के विरुद्ध इस्तेमाल के कारण यहां स्थिति गंभीर हो गई है।

इस भौगोलिक विवाद के निपटारे हेतु ऑर्गेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड कॉपरेशन इन यूरोप के तहत मिंस्क ग्रुप का गठन 1992 में किया गया जिसमें रूस, अमेरिका और फ्रांस को मध्यस्थ के तौर पर रखा गया। किंतु यह संगठन अपने प्रयासों में सीमित तौर पर ही सफल हो सका। इस संगठन का कार्य मुख्य रूप से काकेशियन क्षेत्र में स्थिरता लाने का था, लेकिन इसमें शामिल देशों ने अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए पक्षपात रहित विवाद निपटारे के लक्ष्य को कहीं पीछे छोड़ दिया। बढ़ते क्षेत्रीय विवादों के दौर में राष्ट्रों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रयोग कर आपसी समझौते से इनका हल करने का प्रसास करना चाहिए। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इनका समाधान तलाशने की कोशिश होनी चाहिए।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]