[ आरिफ मोहम्मद खान ]: पिछले कई दशक से जिहाद को लेकर एक बहस चल रही है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे संगठन जो आतंक और हिंसा की गतिविधियों में लिप्त हैं, अपने आप को मुजाहिद यानी जिहाद करने वाले कहते हैं और अपने संगठनों के लिए इस्लामी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। यह स्वाभाविक है कि दूसरे लोग उनकी बात मानकर उनकी गतिविधियों को इस्लाम से प्रेरित मान लेते हैं। ये दोनों बातें उन लोगों के लिए कष्टदायक हैं जिन्होंने इस्लामी परंपरा का अध्ययन कुरान के माध्यम से किया है जहां जिहाद का तात्पर्य अपने अहम् और स्वार्थी इच्छाओं के विरुद्ध संघर्ष है जिसे जिहादे अकबर (महान संघर्ष) कहा गया है।

कुरान देता है हथियार उठाने की इजाजत

कुरान हथियार उठाने की भी इजाजत देता है और कहता है, अनुमति दी गई है उन लोगों को जिनके विरुद्ध युद्ध किया जा रहा है, क्योंकि उनके ऊपर ज़ुल्म किया गया है और निश्चय ही अल्लाह उनकी सहायता की पूरी सामर्थ्य रखते हैं। ये वही लोग हैं जो अपने घरों से नाहक निकाले गए.. केवल इसलिए कि वह कहते हैं कि हमारा रब अल्लाह है। यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के द्वारा हटाता न रहता तो मठ और चर्च और यहूदी प्रार्थना भवन और मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है सब ढहा दिए जाते।(22.39-40)

जिन पर ज़ुल्म हो उसे इजाजत है हथियार उठाने की

कुरान की इस आयत से साफ है कि हथियार उठाने की इजाजत केवल उन लोगों को है जिन पर ज़ुल्म किया गया हो, जिन्हें उनकी आस्था के आधार पर बेघर किया गया हो। इसके साथ ही कुरान उस सनातन सिद्धांत की भी बात करता है कि समय का चक्र बदलता रहता है और अगर दुनिया में शक्ति का संतुलन बनाकर न रखा गया होता तो सभी परंपराओं के पूजा घरों जहां ईश वंदना होती है, को ध्वस्त कर दिया गया होता।

आतंक को सही ठहराया

मैंने जब तक मुस्लिम कानून की 800 वर्ष पूर्व इमाम मरगीनानी द्वारा लिखी गई पुस्तक हिदाया नहीं पढ़ी थी तो मुझे आश्चर्य होता था कि जो लोग हिंसा और आतंकवाद कर रहे हैं वे अपने आप को इस्लाम से कैसे जोड़ते हैं? यह पुस्तक आज भी देवबंद, नदवा और दूसरे मदरसों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। इस किताब को पढ़कर मैं हैरान रह गया कि इसमें हर उस बात या काम को जो आतंकी करते हैं, सही ठहराया गया है, बल्कि इससे आगे बढ़कर देवबंद के उलमा ने किताब के प्रावधानों पर जो टीका लिखी है वह तो हिदाया के अपने प्रावधानों को भी पीछे छोड़ देती है।

अशरफुल हिदाया: धर्मभ्रष्ट मुसलमान से तौबा नहीं तो कत्ल

उदाहरणतया अशरफुल हिदाया (हिदाया की टीका) में मुरतिदों (धर्मभ्रष्ट मुसलमान) के बारे यह लिखा है कि उनसे तौबा करने की मांग की जाएगी और तौबा से इन्कार की सूरत में मुरतिद को कत्ल कर दिया जाएगा। इस पर टिप्पणी करते हुए मौलाना सैयद अमीर अली और मौलाना मोहम्मद अजमतुल्ला (देवबंदी उलमा) ने लिखा है और थोड़ी मुश्किल भाषा के बावजूद मैं उन्ही के शब्दों का प्रयोग करूंगा: ‘वाजह रहे कि दौरे हाजिर में फितना कादियानियत, आगा खानियत, राफजियत, बहाइयत का यही हुक्म है, क्योंकि ये लोग भी ग़ुलाम अहमद कादियानी, आगा खान, अइम्मा असना अशरा (बारह इमाम जिनके प्रति आम तौर से सभी और खास तौर से शिया मुसलमान विशेष श्रद्धा रखते हैं) और मुहम्मद अटकी बहाई वगैरह की लफ्जन या मानवी नबुव्वत के न सिर्फ कायल हैं, बल्कि उन की इशाअत पर भी मुसिर वो मसरूफ हैं।’ (अशरफुल हिदाया खंड 7 पृष्ठ 36)

देवबंंद: शिया लोग इमामों को नबी मानते हैं

यह पढ़ने के बाद मैंने अपने एक जानने वाले देवबंदी आलिम से पूछा कि मैं स्वयं ऐसे कार्यक्रमों में जाता हूं जो इमामों की याद में मनाए जाते हैं और मैंने कभी किसी शिया को यह कहते नहीं सुना कि वह इमामों को नबी मानते हैं फिर हिदाया में यह बात क्यों लिखी है? उन्होंने जवाब दिया कि यह लोग मुंह से ऐसा नहीं कहते हैैं, लेकिन अगर वे सारे इमामों की इस्मत (शुचिता) को मानते हैं तो यह उनको नबी मानने के बराबर है।

देवबंंद: जुमे की नमाजों में बम चलाना अनुचित नहीं

अब आप गौर करें कि अगर हम देवबंंद की इस दलील को मान लें तो फिर हमारा यह दायित्व हो जाता है कि उन लोगों को जिनका उल्लेख किया गया है, धर्मभ्रष्ट मानें और फिर उनके साथ वह करें जो नुस्खा हिदाया में लिखा हुआ है। कल्पना करें कि इसके परिणाम क्या होंगे। शायद यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पाकिस्तान में जिस तरह जुमे की नमाजों में बम चलाए जाते हैं या सीरिया में यजीदी संप्रदाय पर जो ज़ुल्म हो रहे हैं वे इसी प्रकार की शिक्षा का परिणाम हैैं।

कुरान: धर्म पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं

कुरान उन आयतों से भरा पड़ा है जिनमें कहा गया है कि आस्था मन का विषय है, शरीर का नहीं। धर्म दिल से माना जाता है, शारीरिक प्रताड़ना से नहीं। कुरान स्पष्ट शब्दों में एलान करता है: धर्म के विषय में कोई जोर जबरदस्ती नहीं (2.256) या तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिये मेरा धर्म है। (109.6)

कुरान: हर एक के लिए एक कानून

इससे भी आगे बढ़कर कुरान कहता है: यदि तुम्हारा रब चाहता तो धरती में जितने लोग हैं सबके सब ईमान ले आते, फिर क्यों तुम लोगों को विवश करोगे कि वे ईमान वाले हो जाएं (10.99)। इसी के साथ कुरान कहता है: हमने तुममें से हर एक के लिए एक कानून और खुला रास्ता बनाया है। यदि अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय बना देता (5.48)

जिहाद का मकसद है मुल्क से फसाद

कुरान की इन बहुत सी आयतों को ध्यान में रखकर अब आप एक नजर उस पर डालें जो देवबंदी उलमा ने अशरफुल हिदाया में लिखा है: शरीअत में जिहाद दीने हक की तरफ बुलाने और जो उसे कुबूल न करे उससे किताल (लड़ाई) करने को कहते हैं। (खंड 7 पृष्ठ 17) इसी तरह जिहाद का जो मकसद है यानी मुल्क से फसाद, बुराइयां शिर्क (बुतों की पूजा) और कुफ्र के फितने को दूर करके अल्लाह ताला की तौहीद और अदल को कायम करना। (खंड 7 पृष्ठ 18)

बुत परस्तों को ग़ुलाम बनाना जायज है

और हमारी दलील यह है कि बुत परस्तों को ग़ुलाम बनाना जायज है इसलिए उन पर जिजया लाजिम करना भी जायज हुआ, क्योंकि ग़ुलाम बनाने और जिजया वसूल करने में से हर एक काम से उनकी हैसियत और शख्सियत को छीनना लाजिम आता है ताकि वे फसाद न करें। खंड 7 पृष्ठ 111)

देवबंद वाले अशरफुल हिदाया को शरीअत कहते हैं

यह किताब इसी तरह की बातों से भरी पड़ी है और देवबंद वाले इसे शरीअत कहते हैं। दूसरी तरफ कुरान इंसानों की रायों को नहीं, बल्कि अपनी आयतों को शरीअत कहता है। मैंने 22 मार्च 2008 में देवबंद वालों को खत लिखकर अनुरोध किया था कि आज हिदाया किसी देश का कानून नहीं है इसलिए या तो इसे पाठ्यक्रम से निकाल दें या फिर इसको मुस्लिम कानून के इतिहास के रूप में पढ़ाएं और इसे शरीअत न कहें। देवबंद ने मुझे पावती की रसीद भेजी और जवाब देने का वादा किया, लेकिन मैं आज तक उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैैं )