[ डॉ. अश्विनी कुमार ]: दुनिया में कोई भी लोकतंत्र वहां के घटनाक्रम से परिभाषित होता है। विभिन्न घटनाएं ही उस लोकतंत्र को कसौटी पर कसती हैैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 28 अगस्त की तारीख तब एक निर्णायक क्षण के रूप में दर्ज हुई जब कुछ प्रतिष्ठित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। ये सभी जनहित से जुड़े अपने अभियानों के लिए जाने जाते हैं। यह प्रकरण भारतीय जनता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता एवं दृढ़ता की परख करेगा और यह देखेगा कि वे गणतंत्र के आधारभूत मूल्यों पर प्रहार करने में जुटी सरकार का कैसे प्रतिरोध करते हैं? हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपियों को जेल भेजने को मंजूरी नहीं दी, लेकिन नजरबंदी उनके लिए सीमित राहत ही है।

सच यह है कि इन सभी आरोपियों को कभी न खत्म होने वाली दमनकारी अभियोजन प्रक्रिया से गुजरना होगा। इस प्रक्रिया के शुरू होने के बाद पूरी जिंदगी इसमें खप जाती है और संबंधित व्यक्ति की गरिमा और सम्मान मुकदमेबाजी की भेंट चढ़ जाते हैं। यह इंसानियत पर किसी दाग से कम नहीं। हम इस स्थिति पर चुप नहीं बैठ सकते। पूरे देश की सामूहिक चेतना को उन लोगों के पक्ष में लामबंद होकर आवाज उठानी होगी जो सामाजिक दायित्वों को लेकर प्रतिबद्ध हैं। जीवन भर का उनका काम और गिरफ्तारी को लेकर संदिग्ध हालात इसी धारणा को मजबूत करते हैैं कि वे गलत आरोपों के शिकार हुए हैं।

अभियोजन पक्ष ने उक्त पांच लोगों की गिरफ्तारी को माओवादियों द्वारा प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने की कड़ियों से जोड़ने की कोशिश की है। इन पर भड़काऊ भाषणों के माध्यम से हिंसा भड़काने के आरोप मढ़े गए हैैं। इन भड़काऊ भाषणों का संबंध भीमा कोरेगांव मामले से है। पुणे के निकट स्थित भीमा-कोरेगांव में इस साल जनवरी में दलितों के एक आयोजन के दौरान हिंसा भड़क गई थी। इस आयोजन से पहले यलगार परिषद की एक बैठक हुई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पीबी सावंत और बंबई हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस कोलसे पाटिल का संरक्षण प्राप्त था। ये दोनों मानते हैं कि इन गिरफ्तारियों का कोई विधिक आधार नहीं है।

जस्टिस चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी कि ‘असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है’ उन अधिकारों को ही दोहराती है कि देश के लोग उन हालात का विरोध कर सकते हैं जो उन्हें उचित न लगे या जो उनकी दृष्टि में दमनकारी हो। इसी दर्शन और विचारों ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया और भारत के संवैधानिक लोकतंत्र को परिभाषित किया। इसमें जनता को संवैधानिक ढांचे के अनुरूप सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए शक्ति भी दी गई। गैरकानूनी गिरफ्तारियों और अन्याय के तमाम मामलों में हिरासत के दौरान प्रताड़ना के अनगिनत वाकये हैं। ये मामले हमारे गरिमामयी संविधान का मखौल उड़ाने के साथ ही नागरिकों को उनके आत्मसम्मान और गरिमा के अधिकार से वंचित करते हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘मानव अधिकारों के वरीयता क्रम में शीर्ष पर रखा है।’

मौजूदा सरकार के दौर में संवैधानिक मूल्यों के साथ निरंतर छेड़छाड़ अनिष्ट का ही संकेत करती है। कुछ छात्र नेताओं के खिलाफ देशद्रोह के मामले दायर करना, उल्टे-सीधे आरोपों पर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मामले चलाना, अपने लिए असहज एनजीओ के पदाधिकारियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराना और सरकार के निर्मम नियंत्रण का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन तानाशाही और औपनिवेशिक शासन का ही प्रतीक है।

पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार किए गए लोगों में सुधा भारद्वाज वकील, गौतम नवलखा पत्रकार, वरवर राव कवि, वेरनॉन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इनकी गिरफ्तारियों के मामले में अगर हम दलगत भावना से ऊपर उठकर एक राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता के अधिकार की मशाल उठाएं तो राष्ट्रीय हित की पूर्ति होगी।

एक आजाद मुल्क से यही अपेक्षा है कि वह अपने स्वतंत्रता सेनानियों के सर्वोच्च बलिदान को सार्थक सिद्ध करे ताकि हम स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। इसके लिए सतत चौकसी की जरूरत होगी। हम इतिहास के सबक की अनदेखी नहीं कर सकते जो दांते के कालजयी शब्दों में कुछ इस तरह प्रतिध्वनित होते हैं, ‘नर्क में सबसे गर्म स्थान उन लोगों के लिए आरक्षित रखा जाता है जो किसी नैतिक संकट के दौरान तटस्थता अपना लेते हैं।’ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी अपनी एक प्रसिद्ध कविता के माध्यम से भी यही कहा है, ‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।’

इतिहास साक्षी है कि सभी अधिनायकवादी आंदोलन और तानाशाही शासन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए खतरे की आड़ में ही आगे बढ़े हैं। सुरक्षा के नाम पर जिस मूल स्वतंत्रता का अतिक्रमण होता है वह कभी-कभार बिना किसी आंदोलन के अपने आप बहाल भी हो जाती है। खुद हमारे स्वतंत्रता संघर्ष की जड़ें इस विचार में निहित थीं कि एक राष्ट्र के रूप में हमें क्रांति का उद्घोष करने का अधिकार है, लेकिन हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने शांतिपूर्ण राह चुनी।

आखिर संवैधानिक लोकतांत्रिक भावनाओं से ओतप्रोत और मानव की मूल स्वतंत्रता के प्रति कटिबद्ध भारतीय राज्य अपने ही उन नागरिकों पर दमनकारी कानून लागू करके उनके साथ अन्याय कैसे कर सकता है जो सामाजिक एवं राजनीतिक असमानता के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं? इन पांच लोगों के खिलाफ अभी तक कोई दमदार साक्ष्य भी नहीं मिले हैं। इन्हें गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के सख्त प्रावधानों के तहत गिरफ्तार किया गया है। इसके तहत लगे आरोप उनकी स्वतंत्रता के लिए गंभीर साबित हो सकते हैं।

उम्मीद है कि संवैधानिक सुरक्षा के संरक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अभियोजन पक्ष के दबाव के समक्ष एहतियात के साथ सुनवाई करेगा। जिस देश में अभी भी रामप्रसाद बिस्मिल, अल्लामा इकबाल, अशफाक उल्ला खान, फिराक गोरखपुरी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और दुर्गा सहाय सरूर जैसे कवियों की पंक्तियों से राष्ट्रवाद का ज्वार जोर पकड़ता है वह किसी भी किस्म के सामाजिक या राजनीतिक अन्याय के खिलाफ शांत नहीं बैठ सकता। इस मामले में इकबाल की ये लाइनें हमेशा प्रासंगिक बनी रहेंगी,

उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो

खाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो

जिस खेत से देहकन को मयस्सर नहीं रोजी,

उस खेत के हर खोशा-ए-गंदूम को जला दो।

हमें सामाजिक एवं आर्थिक अन्याय के खिलाफ प्रेरित करने के लिए इकबाल ने दुनियाभर के गरीबों से एकजुटता का आह्वान करते हुए कहा था कि वे धनाढ्य लोगों के आलीशान महलों की दीवारें और दरवाजें हिला दें और उस खेत से गेहूं की हर एक बाली जला दें जो किसी किसान को रोजगार नहीं दे सकती।

उत्पीड़न उसी अनुपात में फैलता है जितनी उसके लिए गुंजाइश होती है। ऐसे में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर हम इस दायित्व को स्वीकार करें। यकीन मानिए कि इससे किनारा करने के बजाय इसका सामना करने में ज्यादा भलाई है।

[ लेखक कांग्रेस के नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं ]