डा. हरबंश दीक्षित : कानून मंत्री किरन रिजिजू और सर्वोच्च न्यायालय के बीच सार्वजनिक मतभेदों के कारण देश में कुछ अरुचिकर परिस्थितियां बनती जा रही हैं। मूल विषय कोलेजियम से जुड़ा हुआ है। काफी समय से कोलेजियम सिस्टम की कार्य पद्धति और उसकी उपादेयता पर बहस होती रही है। पिछले दिनों इस बहस में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी दखल दिया। इस बहस के मूल में यह है कि हमारे सर्वशक्तिमान न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का एकाधिकार कुछ न्यायाधीशों को केवल इसलिए हो, क्योंकि वे न्यायपालिका परिवार का हिस्सा होने के कारण उनके बारे में बेहतर समझ रखते हैं या उसमें आम आदमी के नुमाइंदों की भी भागीदारी इसलिए हो, क्योंकि न्यायाधीश केवल न्यायपालिका के ही नहीं, अपितु पूरे समाज के हित-रक्षक होते हैं? लिहाजा उनकी नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार के माध्यम से आम लोगों की आकांक्षाओं तथा अपेक्षाओं को भी स्वर मिलना चाहिए।

वर्ष 1993 से पहले देश में इस तरह का कोई विवाद नहीं था। संविधान में यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। अनुच्छेद 124 और 217 में राष्ट्रपति से यह जरूर अपेक्षा की गई कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय देश के मुख्य न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वहां के राज्यपाल से भी मशविरा करें। दूसरे लोकतांत्रिक देशों में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के पास ही है।

1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में न्यायपालिका की राय को सर्वोच्चता देने की बात कही। तब नौ न्यायाधीशों की पीठ ने मत व्यक्त किया कि न्यायाधीश चूंकि न्यायिक परिवार का हिस्सा होता है इसलिए उसके बारे में जितनी समझ न्यायाधीशों को होती है, उतनी दूसरों को नहीं हो सकती। अतः उसकी नियुक्ति और स्थानांतरण से जुड़े विषयों पर न्यायपालिका को ही निर्णय लेना चाहिए। इसे अंजाम देने के लिए न्यायाधीशों के एक कोलेजियम की परिकल्पना की गई, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य वरिष्ठ न्यायधीश हों। संविधान पीठ के कुछ न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में न्यायिक स्वायत्तता और निष्पक्षता के लिए इस कदम को जरूरी बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अपने वरिष्ठ साथियों के कोलेजियम की मदद से इसे अंजाम देंगे। इस मुकदमे में चूंकि कोलेजियम के न्यायाधीशों की संख्या और सहयोगी न्यायाधीशों की भूमिका के बारे में बहुत कुछ साफ नहीं था, इसलिए इसके क्रियान्वयन में शुरू से ही व्यावहारिक दिक्कतें आने लगीं।

कोलेजियम सिस्टम की शुरुआत के साथ ही इस पर विवाद शुरू हो गया। धीरे-धीरे यह साफ होने लगा कि कोलेजियम के नाम पर मनमाने फैसले लिए जा रहे हैं। अन्य न्यायाधीशों की राय को तरजीह नहीं देने की बातें भी सामने आने लगीं, किंतु सब कुछ इतना गोपनीय था कि इस पर स्वस्थ बहस नहीं हो सकी। यह विवाद उस समय सतह पर आ गया जब वर्ष 1998 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पुंछी ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को भेज दीं और सरकार ने उन्हें रोककर कोलेजियम एवं मुख्य न्यायाधीश के संबंध में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी।

तब नौ सदस्यीय संविधान पीठ की ओर से न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने कोलेजियम व्यवस्था को विस्तार से परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि इसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठ न्यायाधीश होंगे, निर्णय यथासंभव सर्वानुमति से लिया जाए और यदि किसी नाम पर कोलेजियम के दो सदस्य असहमत हों तो उसका नाम नहीं भेजा जाए। सैद्धांतिक रूप से यह व्यवस्था अब तक कायम है, किंतु इसे अब नजरअंदाज करने के प्रकरण भी सामने आने लगे हैं।

मौजूदा कोलेजियम सिस्टम का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह गोपनीयता के अंधेरे में काम करता है। ऐसे देश में जहां पर पारदर्शिता की संस्कृति विकसित करने में न्यायपालिका की सबसे बड़ी भूमिका रही हो, उसका न्यायाधीशों की नियुक्ति जैसे महत्वपूर्ण मामले में सब कुछ गोपनीय रखने के प्रति आग्रही होना समझ से परे है।

हमारे देश में न्यायाधीशों को बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है। वे नागरिक अधिकारों के प्रहरी हैं। देश भर से चुन कर आए सांसदों द्वारा पारित कानून पर न्यायाधीश रोक लगा सकता है। देश के करोड़ों लोग अपनी परेशानी के क्षणों में अदालतों पर भरोसा करते हैं। बाढ़, सूखा और महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी आम आदमी को अदालतों ने राहत पहुंचाई है। ऐसे में न्यायाधीश अब केवल न्यायपालिका के परिवार के सदस्य मात्र नहीं हैं। वे करोड़ों लोगों के भरोसे का केंद्र भी हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति को न्यायपालिका का आंतरिक मामला नहीं माना जा सकता।

अपने लोगों को अनुशासित रखने के मामले में हमारी न्यायपालिका के नाम कोई गौरवगाथा नहीं जुड़ पाई है। दूसरों की गलतियों के लिए कठोरतम सजा देने वाले न्यायाधीशों के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज करना आसान नहीं है। प्रोविडेंट फंड घोटाले के अभियुक्तों के खिलाफ प्राथमिकी इसीलिए दर्ज नहीं हो सकी। जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ आपराधिक दुर्विनियोग के साबित आरोपों के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। जस्टिस निर्मल यादव के ऊपर तो चार्जशीट तक दाखिल हो गई, किंतु कुछ नहीं बिगड़ा। इसी तरह कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरन भी उन लोगों में से हैं, जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुष्ट आरोपों के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी।

चूंकि न्यायाधीश भी हमारे समाज का हिस्सा हैं, इसलिए अब समय आ गया है कि उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण जैसे महत्वपूर्ण मामलों को न्यायिक परिवार के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसमें अन्य को भागीदार बनाया जाए। इसके लिए कोलेजियम व्यवस्था की निर्णय प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति से पहले उनकी पृष्ठभूमि के व्यापक छानबीन की जरूरत है। इसमें अमेरिका के अनुभवों से हम सीख सकते हैं। वहां सीनेट की न्यायिक समिति देश के आम और खास लोगों से उस व्यक्ति के बारे में जानकारी मांगती है, जिसे न्यायाधीश के रूप में नामित किया जाता है। इससे लोगों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलता है। तय समय सीमा के अंदर उस पर विचार करके निर्णय होता है और इस तरह से असंदिग्ध सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने का मौका मिलता है। कोलेजियम सिस्टम भी जरूरत के मुताबिक संशोधन करके इस व्यवस्था को अपना सकता है।

(लेखक तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय के विधि संकाय में प्रोफेसर एवं डीन हैं)