डा. एके वर्मा। लोकसभा चुनाव अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। चुनाव में मतदाता अपनी वैचारिक अभिरुचि के अनुसार प्रत्याशियों को वोट देते हैं। ऐसे में कहना मुश्किल है कि चुनाव प्रचार से कितने लोग अपना मन बदलते हैं, लेकिन मतदाताओं का एक छोटा समूह अनिर्णय की स्थिति में होता है, जो चुनाव प्रचार से प्रभावित होता है और चुनाव परिणामों पर कुछ हद तक असर भी डालता है। जनीतिक शब्दावली में मतदाताओं के इस वर्ग को ‘फ्लोटिंग वोटर्स’ कहा जाता है। जहां तक इस चुनाव प्रचार की कुछ विशेष प्रवृत्तियों पर गौर किया जाए तो यह चुनाव अभियान मोदी केंद्रित रहा।

प्रधानमंत्री मोदी ने नेतृत्व की इतनी बड़ी लकीर खींची कि इस समय कोई नेता उनके आसपास भी नहीं ठहरता। मोदी ने अथक परिश्रम कर नई-नई रणनीतियां अपनाईं। विपक्ष और प्रेस की शिकायत रही है कि दस वर्षों में मोदी ने उनसे बात नहीं की। शायद यह सही हो, लेकिन मोदी ने जनता से सतत संवाद किया। यह अपनी तरह का एक रिकार्ड होगा कि 2014 से प्रधानमंत्री ने प्रतिमाह ‘मन की बात’ कार्यक्रम द्वारा लगभग 110 बार जनता से संवाद किया, जिसमें उन्होंने कभी राजनीति या दल की बात नहीं की। वे युवा जो आज 18-28 आयु वर्ग में हैं, वे विगत दस वर्षों से मोदी से जुड़े हुए हैं। यह ऐसा मतदाता वर्ग है, जिस पर विपरीत चुनाव प्रचार का असर नहीं पड़ेगा।

विपक्षी मोर्चे आइएनडीआइए से आशा थी कि शायद वह योग्य नेतृत्व दे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। विपक्ष की यह ऐतिहासिक भूल रही, जिसका खामियाजा उसे उठाना पड़ेगा। इस चुनाव प्रचार का दूसरा पहलू आरोप-प्रत्यारोप तक सिमटकर रह गया। जहां विपक्ष मोदी हटाओ एजेंडे पर केंद्रित होकर प्रधानमंत्री पर हमलावर रहा और जनता को डराने की कोशिश करता रहा कि मोदी लोकतंत्र खत्म कर देंगे, संविधान बदल देंगे, आरक्षण समाप्त कर देंगे  सतारूढ़ दल ने भी प्रतिक्रियास्वरूप कांग्रेस और विपक्षी दलों पर आरोप लगाए कि वे हिंदू स्त्रियों का मंगलसूत्र तक छीन लेंगे, पंथ-मजहब के आधार पर संपत्ति का बंटवारा करेंगे, दलितों और पिछड़ा वर्ग का आरक्षण छीनकर मुस्लिमों को देंगे। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से प्रत्येक मतदाता चिंतित हो गया। इससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बल मिला, जो लोकतंत्र के लिए किसी ‘रेड अलर्ट’ से कम नहीं।

प्रचार का तीसरा पहलू भाजपाई सांसदों से मतदाता की नाराजगी के रूप में दिखा, लेकिन मतदाता मोदी को पुनः प्रधानमंत्री देखना चाहता है। ऐसे में उसे इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा कि प्रत्याशी कौन है। उसे मोदी को वोट देना है। यह चुनाव वास्तव में प्रधानमंत्री का चुनाव है। प्रचार को ऐसा बनाने में विपक्ष की भी भूमिका रही, क्योंकि उसने केवल मोदी को अपनी आलोचना, उपहास और आरोप का लक्ष्य बनाया। देश में बड़ों के सम्मान करने की एक परंपरा और संस्कार रहा है। मोदी के लिए विपक्षी नेताओं विशेषकर राहुल गांधी ने जिस प्रकार तू-तड़ाक वाली भाषा का इस्तेमाल करने से लेकर उन्हें अपशब्द कहे, उनके कपड़ों तक पर कटाक्ष किया, उसे जनता ने पसंद नहीं किया। जिस परिश्रम, समर्पण तथा स्वच्छ राजनीतिक जीवन का प्रतिमान प्रधानमंत्री मोदी ने स्थापित किया, उसे जनता ने सराहा है।

चौथी प्रवृत्ति के मूल में मोदी का अबकी बार चार सौ पार का आह्वान दिखा। इससे लोगों में विशेष उत्साह नजर आया। जबसे मोदी भाजपाई राजनीति के शीर्ष पर उभरे हैं, तबसे उन्होंने समावेशी राजनीति द्वारा पार्टी के जनाधार में बहुत विस्तार किया है। उन्होंने देश में वर्गीय राजनीति की शुरुआत की। मोदी ने महिला, सीमांत किसानों, गरीब-शोषित-वंचित एवं युवा, इन चार वर्गों को चिह्नित कर उनके कल्याण एवं सशक्तीकरण पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने जातीय समीकरणों की उपेक्षा किए बिना उसे वर्गीय राजनीति से जोड़ा। अधिकांश विश्लेषक चुनाव परिणामों का आकलन जातीय गणित द्वारा करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यह चुनाव स्वयं जनता मोदी के लिए लड़ रही है।

पांचवां पहलू यह रहा कि चुनाव प्रचार में विपक्ष कोई गंभीर ‘राष्ट्रीय नैरेटिव’ नहीं गढ़ पाया। चुनावी रैलियों में प्रत्याशी या स्टार प्रचारक महत्वपूर्ण और प्रभावी विचार रखते नहीं दिखे। विपक्ष नहीं बता पाया कि आइएनडीआइए सत्ता में आया तो उसकी वैकल्पिक नीतियां क्या होंगी? यदि विपक्ष अपनी नीतियां बताता, जनता को समझाता कि वे सत्ताधारी दल की नीतियों से कैसे बेहतर हैं और मोदी सरकार को प्रतिरक्षात्मक बनाता तो यह कहीं बेहतर होता। चुनावी विमर्श निराशाजनक रहा और अंततः सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चपेट में आ गया।

राजनीति की दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती की भूमिका संदिग्ध दिखी। तीसरे दौर के बाद वह अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी आकाश आनंद को ‘अपरिपक्वता’ के कारण किनारे किए जाने का ठोस कारण नहीं दे सकीं। इससे न केवल बसपा का चुनाव प्रचार पटरी से उतर गया, बल्कि बसपा कार्यकर्ता मायावती के इरादों पर भी संदेह करने लगे। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी चुनाव के दौरान ही नरेश उत्तम पटेल को हटाकर श्यामलाल पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। चुनाव में सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन भी किया, पर अखिलेश यह नहीं समझा पाए कि ‘यूपी के दो लड़के’ वाले असफल सपा-कांग्रेस गठजोड़ की पुनरावृत्ति उन्होंने क्यों की? जिस पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में 2.3 प्रतिशत वोट मिले, उसे उन्होंने 17 लोकसभा सीटें लड़ने के लिए दे दीं।

चुनाव प्रचार में इंटरनेट मीडिया की भी सशक्त भूमिका रही। इंटरनेट मीडिया अब गांव-देहात तक पहुंच चुका है। तमाम दिग्गज इस मंच पर खासे सक्रिय रहते हैं। उनकी सक्रियता ने भी जनता के मतदान व्यवहार को भाजपा के पक्ष में प्रभावित किया। चुनाव प्रचार में यह भी देखने को मिला कि ‘राम-मंदिर’ वैसा मुद्दा नहीं बन पाया, जैसा उसे लेकर आरंभ में उम्मीद लगाई गई थी। चूंकि मंदिर बन गया, प्राण-प्रतिष्ठा हो गई, अपार जनसमूह रामलला के दर्शन से आह्लादित एवं अभिभूत है, इसलिए अब वह मुद्दा क्यों बने? हालांकि जनमानस पर उसका प्रभाव कितना गहरा हुआ है, अभी इसका अनुमान लगाना कठिन है। संभव है कि चुनाव प्रचार के दौरान नेपथ्य में रहने वाला यह मुद्दा अन्य सभी मुद्दों पर बहुत भारी पड़े।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)