उड़ी में सेना के मुख्यालय पर सीमापार के आतंकवादियों द्वारा बर्बर आतंकी हमले के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए यह कठिन होगा कि वह सब कुछ सामान्य मानकर अपनी पुरानी स्थिति में लौट जाए। 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद उड़ी हमला पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का ताजातरीन उदाहरण है। इससे पहले मोदी के काल में हेरात, गुरदासपुर, ऊधमपुर, पठानकोट, मजार-ए-शरीफ, पंपोर और जलालाबाद में हमले हो चुके हैं। इन हमलों के बाद नई दिल्ली की वही घिसी-पिटी प्रतिक्रिया सामने आई। एक से बढ़कर एक बयान आए, लेकिन किसी ने सख्त कदम नहीं उठाया। मौजूदा प्रतिक्रिया मुंबई, संसद और लाल किले पर हुए हमलों के दौरान तब की मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं से अलग नहीं है।

सभी सरकारें पाकिस्तान द्वारा छेड़े गए छद्म युद्ध का जवाब देने के लिए तर्कसंगत, ठोस और दो टूक फैसले लेने में विफल रही हैं। इसका परिणाम है कि भारत एक मामूली पड़ोसी के हाथों आतंकी हमले का शिकार होने और लहूलुहान होने को मजबूर है। एक लापरवाह देश पाकिस्तान सोचता है कि वह इस तरह भारत को ठीक-ठाक चोट पहुंचा सकता है और भारत से बदला ले सकता है। इधर भारतीयों के सब्र का बांध टूट गया है, सरकार पर लगातार दबाव डाला जा रहा है कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए सरकार ठोस कदम उठाए ताकि पाकिस्तान से इन आतंकवादी हमलों का बदला लिया जा सके।

मोदी की अपनी विश्वसनीयता अब दांव पर है। उन्होंने इस साल की शुरुआत में पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले के बाद इस्लामाबाद से हमलावरों के बारे में खुफिया सूचनाएं साझा कीं और पाकिस्तानी जांच दल को एयरबेस में जाने की अनुमति दी। ऐसा उन्होंने पाकिस्तान का आतंक के खिलाफ सहयोग हासिल करने की उम्मीद में किया था। नवाज शरीफ के जन्मदिन और उनकी पोती की शादी में शिरकत करने के लिए अचानक हुई मोदी की लाहौर यात्र के साथ-साथ अपने पाकिस्तानी समकक्ष के साथ शॉल और साड़ी के आदान-प्रदान दर्शाते हैं कि कैसे नई दिल्ली का ध्यान मुख्य मुद्दे के बजाय गैरजरूरी बातों पर था। उड़ी हमला मोदी को आतंकवाद रोधी मोर्चे पर फिर मुस्तैद होने का एक अवसर दे रहा है। हालिया आतंकवादी हमले का वह कैसे जवाब देते हैं, इससे उनकी राजनीतिक विरासत तय होगी। अब इन मुगालतों से दूर होने की जरूरत है कि देश एक पाखंडी, आतंकवाद के निर्यातक पड़ोसी के साथ शांति की राह पर चलकर ही अमन कायम कर सकता है। हर बार जब भारत में आतंकी हमले के लिए आतंकी पाकिस्तान से आते हैं, भारतीयों के मन में एक सवाल उठने लगता है कि पाकिस्तान सीमापार से आतंकवाद प्रायोजित क्यों करता है? जवाब बिल्कुल सीधा है-भारत के खिलाफ अपारंपरिक युद्ध छेड़ना हमेशा से उसके लिए प्रभावी रहा है।

भारत जैसे बड़े और ताकतवर देश के खिलाफ इस छद्म युद्ध की लागत भी कम है। भारतीयों को एक प्रश्न पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या भारत सीमा पार से आतंकवाद फैलाने वाले पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए तैयार है? भारत के पास पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक विकल्प मौजूद हैं। इन विकल्पों का नपे-तुले और तर्कसंगत तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। रणनीतिक रूप से एक परमाणु हथियार संपन्न देश द्वारा छेड़े गए अपारंपरिक युद्ध का अपारंपरिक तरीके से ही सामना किया जा सकता है। पाकिस्तान को दबाव में लाने के लिए भारत के पास कहीं ज्यादा आर्थिक और कूटनीतिक संसाधन मौजूद हैं।1भारत 1960 की सिंधु जलसंधि से हाथ खींचकर पाकिस्तान को सबक सिखा सकता है। पाकिस्तान भारत के साथ हुए तमाम द्विपक्षीय समझौतों की लगातार अवहेलना कर रहा है। शिमला समझौते में कहा गया है कि पाकिस्तान अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवाद की अनुमति नहीं देगा, लेकिन आज सच्चाई इसके विपरीत है। जब पाकिस्तान शिमला में हुए 1972 के शांति समझौते की शर्तो को नहीं मानता है तब भारत भी सिंधु जलसंधि से पीछे हटने पर विचार कर सकता है। सिंधु जलसंधि दुनिया में सबसे एकतरफा और अनुचित जलसंधि है। यह भारत को अपने राज्य जम्मू-कश्मीर में औद्योगिक और कृषि उत्पादन के लिए नदियों के पानी का उपयोग करने के मौलिक अधिकार से वंचित करती है। इस संधि के जरिये जम्मू-कश्मीर की प्रमुख नदियों चिनाब, ङोलम और सिंधु तथा इनकी सहायक नदियों के पानी को पाकिस्तान के लिए सुरक्षित किया गया है। जम्मू-कश्मीर के दक्षिण में बहने वाली सिंधु घाटी की तीन नदियों व्यास, रावी और सतलुज के पानी पर भी भारत का सीमित अधिकार है। वास्तव में सिंधु प्रणाली की छह नदियों के कुल पानी का सिर्फ 19.48 फीसद हिस्सा ही भारत इस्तेमाल कर सकता है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान दुनिया की सबसे उदार जलसंधि का भी हमेशा दुरुपयोग करता है।

नदियों का साझा इस्तेमाल करने वाले देशों के बीच मधुर और नियम आधारित सहयोग कायम करने के लिए जरूरी है कि अधिकार और बाध्यताओं के बीच संतुलन रहे। सिंधु घाटी में पाकिस्तान बिना जवाबदेही के अधिकार चाहता है। वह उम्मीद करता है कि एक तरफ उसके जनरल भारत में आतंकवाद फैलाते रहें और दूसरी तरफ भारत सिंधु जलसंधि पर उदारता दिखाता रहे। यदि भारत पाकिस्तान को छद्म युद्ध से रोकना चाहता है तो उसे सिंधु जलसंधि के भविष्य को इस्लामाबाद की उस प्रतिबद्धता के साथ जोड़ना होगा जिसमें उसने अपनी जमीन का भारत के खिलाफ प्रयोग नहीं होने देने की बात कही है। यदि पाकिस्तान इसे पूरा नहीं करता तो भारत को इस संधि को खत्म करने पर विचार करना चाहिए। भारत के पास इस संधि में संतुलन कायम करने और इसे बेहतर बनाने का मौका है। अंतरराष्ट्रीय कानून भी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। दांव-पेंच और कूटनीतिक कौशल सैन्य विकल्पों से प्राय: ज्यादा मायने रखते हैं। इस तरह भारत बिना सेना का प्रयोग किए पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता है। पाकिस्तान को दबाव में लाने के लिए सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक विकल्पों का मिश्रित उपयोग कर भारत को पाकिस्तान के रूप में एक विफल राष्ट्र के खतरों को दूर करने के लिए गुप्त अभियान छेड़ देना चाहिए। अब सब्र त्याग कर साहस का परिचय देने की जरूरत है, क्योंकि सब्र शब्द भारत के लिए एक मजाक बन गया है।

[ लेखक ब्रह्मा चेलानी, सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सामरिक अध्ययन के प्रोफेसर हैं]