तरुण गुप्त। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की अप्रत्याशित घोषणा के बाद संसद से भी ये कानून निरस्त हो गए। अब ऐसे में सबसे अधिक उत्सुकता इसी बिंदु पर केंद्रित है कि कानूनों के विरोध में जारी धरना-प्रदर्शन कब समाप्त होगा? दुखद है कि इस प्रश्न का उत्तर अस्पष्ट है। जहां सरकार ने साल भर के बाद अपने कदम पीछे खींचकर हमें हतप्रभ किया, वहीं अराजकता से भरा धरना-प्रदर्शन निरंतर व्यथित कर रहा है। स्तब्धता और अड़ियल रवैया संभवत: हमारे सार्वजनिक जीवन में आम हो गए हैं। सभी संबंधित पक्षों को अपनी बात समझाने में अक्षमता को लेकर प्रधानमंत्री क्षमा मांग चुके हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र मे फैसलों का सही होना ही पर्याप्त नहीं, वरन उनकी स्वीकार्यता भी आवश्यक होती है।

रद हुए तीनों कृषि कानूनों की विशेषताओं और लोकतांत्रिक ढांचे में निर्णय प्रक्रिया से जुड़े जटिल विमर्श के बीच ऐसा प्रतीत होता है कि हम वस्तुस्थिति पर व्यापक दृष्टि नहीं डाल पा रहे। ऐसे में कुछ आधारभूत प्रश्न विचारणीय हैं। भारत जैसे प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र में जनता प्रत्यक्ष रूप से नीति-निर्धारण नहीं करती, अपितु अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो वांछित नीतियों को आकार देते हैं। इस पूरे प्रकरण में यह भावना क्षीण होती नजर आई। नि:संदेह नागरिकों की सहभागिता मात्र मतदान तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। गतिशील एवं सक्रिय समुदाय चुनावों की अवधि के बीच निष्क्रिय नहीं रह सकते। यूं तो असहमति का अधिकार किसी भी लोकतंत्र में एक अभिन्न एवं अंतर्निहित पहलू है, परंतु विरोध-प्रदर्शन के रूप-स्वरूप और प्रकृति पर भी विचार किया जाना चाहिए? हम सभी साक्षी हैं कि कृषि कानून विरोधी धरना-प्रदर्शनों में किस प्रकार सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई।

गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व पर कितना अनियंत्रित, उपद्रवी और अराजक व्यवहार किया गया। सड़कें घेरकर मार्ग बाधित करने से जनता को असुविधा एवं देश को भारी आर्थिक हानि हुई। अतिवादी दृष्टिकोण और आक्रामक रवैये ने छिटपुट हिंसा भड़काने और लोगों की जिंदगियां लीलने में अपनी भूमिका निभाई। यह मुहिम इतनी अतिरेकपूर्ण हो गई कि उसने न केवल संसद को विधिसम्मत पारित कानून वापस लेने के लिए बाध्य किया, अपितु संविधान में वर्णित विधि निर्माण की प्रक्रिया को ही चुनौती देने का दुस्साहस किया।

आश्चर्यजनक रूप से कुछ किसान नेताओं, कतिपय विद्वान बुद्धिजीवियों और हमारे विपक्षी नेताओं ने यह दावा किया कि इसमें सभ्य-शालीन विरोध-प्रदर्शन की मर्यादा भंग नहीं हुई। वे कृषि कानूनों की वापसी को लोकतंत्र की जीत के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। यह तो तय है कि लोकतंत्र को लेकर उनकी और हमारी परिभाषा भिन्न है। हमारे शब्दकोश में ऐसे विरोध-प्रदर्शन अराजकता की श्रेणी में आते हैं। इससे आर्थिक-सामाजिक सुधारों के भविष्य और आक्रामक दबाव समूहों की प्रतिक्रिया जैसे दो बिंदुओं को लेकर आने वाले समय में भारत के रवैये पर नागरिकों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अनिश्चितता का भाव बढ़ेगा। हम भलीभांति अवगत हैं कि हमारे देश को कृषि के अतिरिक्त भूमि, श्रम, पूंजी, कराधान और न्यायिक क्षेत्र में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है। वर्ष 2015 में भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस लेने के बाद यह दूसरा अवसर है, जहां लोकप्रिय जनादेश के साथ चुनकर आई सरकार को दबाव में पीछे हटना पड़ा।

निष्क्रियता या जड़ता अमूमन प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा होती है। क्या हमें ऐसी स्थिति स्वीकार्य हो सकती है जहां कार्यपालिका आमूलचूल परिवर्तनकारी पहल करने से हिचकने लगे? क्या लोकलुभावनवाद की वेदी पर आवश्यक विधायी और कार्यकारी निर्णयों की बलि दी जानी चाहिए? क्रांतिकारी सुधार कई बार यथास्थितिवादी वर्ग को ही परेशान करते हैं। ऐसे में उनका विरोध करना स्वाभाविक है। भले विरोध-प्रदर्शन का अधिकार अपरिहार्य है, परंतु इस मामले में क्या अवरोध पहुंचाने और तोड़फोड़ करने को सामान्य चलन के रूप में स्वीकार किया जाएगा?

क्या यह प्रकरण भविष्य के असंतुष्ट एवं असहमत वर्गो को अराजक एवं उग्र दबाव समूहों के रूप में लामबंद होने के लिए प्रेरित नहीं करेगा? स्मरण रहे कि हमें साध्य के साथ साधन की पवित्रता भी सुनिश्चित करनी होगी। परिपक्व लोकतंत्र वास्तव में विरोध-प्रदर्शन के गैर-आंदोलनकारी स्वरूप से ही संचालित होते हैं। किसान नेता और विपक्ष सरकार को तमाम आरोपों के साथ दोषी ठहरा सकते हैं। शिक्षित मध्य वर्ग का भी शिकायतों का अपना पुलिंदा है। वे राज्य पर कर्तव्य की पूर्ति न करने का आरोप लगाते हैं। एक साल के बाद भी आखिर सड़कें प्रदर्शनकारियों से खाली क्यों नहीं कराई जा सकी हैं? आवाजाही करने वालों और करदाताओं के अधिकारों की कौन सुध लेगा?

सरकार इस पर भी दबाव में आ गई कि पराली जलाने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं कराई जाएगी। यानी ऐसे कानून को भी रद कर दिया गया जिसके अंतर्गत कभी-कभार ही शिकायतें दर्ज की गई हों और उनमें कड़ी कार्रवाई तो कभी हुई ही नहीं। इससे उस कुप्रथा को और मजबूती मिलेगी जो सांस लेने के हमारे अधिकार पर आघात करती है। स्पष्ट है कि हमारा शिक्षित मध्य वर्ग प्रत्येक स्तर पर अपनी उपेक्षा से त्रस्त है। किसी भी नागरिक समाज की आत्मा उसके मध्य वर्ग में ही निहित होती है। कोई भी राष्ट्र अपनी आत्मा की अनदेखी कर उन्नति नहीं कर सकता। इस कृषि कानून विरोधी आंदोलन ने प्रदर्शनकारियों और करदाता मध्य वर्ग के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। असंतुष्टों की ऐसी मनमानी और उसके समक्ष कार्यपालिका के आत्मसमर्पण से नागरिक समाज क्षुब्ध होने के साथ ही आक्रोशित भी है।

शांति और सौहार्द की भावना के साथ संवाद से ही इस खाई को पाटा जा सकता है। हमारे प्रधानमंत्री क्षमा मांग चुके हैं। क्या प्रदर्शनकारियों से भी आत्ममंथन की अपेक्षा की जा सकती है? वास्तव में अब यही आवश्यक है कि सरकार अविलंब कुछ निर्णायक कदम उठाए और प्रदर्शनकारी तत्काल बिना शर्त धरना प्रदर्शन पर विराम लगाएं।