नई दिल्ली (संजय गुप्त)। इस वर्ष जनवरी माह में जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी संस्था के आंतरिक प्रशासन की समस्याओं को सामने रखते हुए लोकतंत्र को खतरे में बताया था तब यह स्पष्ट हुआ था कि शीर्ष अदालत में सब कुछ ठीक नहीं है। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने सारे देश का ध्यान इसलिए खींचा था, क्योंकि चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश पर यह आरोप भी लगाया था कि वह संवेदनशील मुकदमों को पसंदीदा बेंच में भेज रहे हैं। ऐसे आरोपों ने जनता को इसलिए अवाक किया, क्योंकि वह इस संस्था को निष्पक्ष संस्था के तौर पर देखने के साथ ही यह मानकर भी चलती है कि जब कहीं से न्याय नहीं मिलेगा तो सुप्रीम कोर्ट सहारा बनेगा। उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ये संकेत दिए गए कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश आपस में मिल-बैठकर समस्या हल कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट में उठापटक कायम रही। इस उठापटक के जारी रहने से यही जाहिर हो रहा कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता केवल सुप्रीम कोर्ट की कथित आंतरिक समस्याओं तक ही सीमित है और उनके एजेंडे पर ऐसा कुछ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक की व्यवस्था सुधरे। अब तो ऐसा भी लगता है कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता को सुप्रीम कोर्ट के चुनिंदा वकीलों ने भी अपने अहं की लड़ाई का हिस्सा बना लिया है। इसका संकेत इससे मिलता है कि न्यायिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात कोई नहीं कर रहा।

पिछले दिनों न्यायाधीश चेलमेश्वर ने एक साक्षात्कार में कहा कि अगर दीपक मिश्र के बाद रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया जाता तो वे आशंकाएं सच साबित होंगी जो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जताई थीं। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाया जाना समस्या का हल नहीं। ज्ञात हो कि उन दिनों कुछ राजनीतिक दल और खासकर कांग्रेस जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग लाने की कवायद कर रही थी। न्यायाधीश चेलमेश्वर के इस साक्षात्कार के बाद उनके साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले एक अन्य न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को एक चिट्ठी लिखकर कोलेजियम की सिफारिश पर केंद्र सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाए। उनका आग्रह था कि इस मामले में सरकार से सवाल पूछना चाहिए।

कोलेजियम ने फरवरी में न्यायाधीश केएम जोसेफ और इंदु मल्होत्रा को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त करने की सिफारिश की थी, लेकिन केंद्र सरकार ने न तो यह बताया कि कोलेजियम की सिफारिश मानने में देर क्यों हो रही है और न ही सिफारिश पर अपनी कोई आपत्ति प्रकट की। कोई स्पष्टीकरण न आने के चलते यह माना गया कि केंद्र सरकार केएम जोसेफ को इसलिए सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त नहीं करना चाहती, क्योंकि उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने संबंधी फैसले को उन्होंने ही खारिज किया था। समस्या केवल यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश सवाल पर सवाल कर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि कुछ वकील मुकदमों के आवंटन की व्यवस्था को लेकर अपनी मुहिम छेड़े हुए हैं। वे मुकदमा आवंटन की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए याचिकाएं भी दायर कर रहे हैं। बीते दिनों एक ऐसी ही याचिका का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह तय करने का अधिकार मुख्य न्यायाधीश को ही है कि कौन सा मामला किस बेंच को सौंपा जाएगा, लेकिन इसके बाद इसी आशय की एक और याचिका दायर कर दी गई। इसके पहले न्यायाधीश चेलमेश्वर ने ऐसी याचिका सुनने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वह नहीं चाहते कि उनके फैसले को पलट दिया जाए। ऐसा कहकर उन्होंने एक बार फिर दीपक मिश्र को निशाने पर लिया। यह रवैया इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मुकदमों के आवंटन में न्यायाधीशों की वरिष्ठता कोई आधार ही नहीं। इस फैसले के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के तो सभी जज अनुभवी होते हैं, चाहे वे हाईकोर्ट से आए हों या फिर बार से।

सुप्रीम कोर्ट के जो न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साध रहे हैं वे यह नहीं स्पष्ट कर रहे हैं कि किस तरह मुकदमों के आवंटन में मनमानी हो रही है? एक ओर वे से आंतरिक मामला बता रहे हैं और दूसरी ओर उसे सार्वजनिक भी कर रहे हैं। उनकी ओर इसे यह भी साफ नहीं किया जा रहा कि संवेदनशील मामलों से उनका क्या आशय है? वे यह भी माहौल बना रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश केंद्र सरकार के नजदीक हैं और फैसले केंद्र सरकार के मन मुताबिक दिए जा रहे हैं। विपक्ष इस माहौल का लाभ उठाने में लगा हुआ है। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की पहल से तो यही साबित होता है। क्या यह विचित्र नहीं कि विपक्षी नेताओं ने महाभियोग लाने की बातें तो कीं, लेकिन यह नहीं बताया कि किस आरोप में?

यह कोई पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच के मतभेद सामने आए हों। सुप्रीम कोर्ट में तमाम मसले ऐसे होते हैं जिनमें नैतिकता का सवाल होता है। इसे लेकर न्यायाधीशों के बीच मतभेद होते ही हैं और कई बार फैसला बहुमत के जरिये होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यह स्वाभाविक नहीं कि न्यायाधीशों के बीच के मतभेद हद से ज्यादा बढ़ जाएं। सुप्रीम कोर्ट में विवाद को देखते हुए केंद्र सरकार को न्यायिक व्यवस्था में सुधार के साथ जजों की नियुक्ति प्रणाली में बदलाव की पहल करनी चाहिए। वैसे भी कोलेजियम के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली दोषपूर्ण साबित हो चुकी है। ऐसा शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जहां जजों की नियुक्ति खुद जज ही करते हों। कोलेजियम प्रणाली के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और मेमोरेंडम आफ प्रोसिजर का मामला भी अभी अधर में है।

आवश्यक केवल यह नहीं कि केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से बनाने की पहल करे, बल्कि यह भी है कि निचली अदालतों में मुकदमों के बढ़ते बोझ को कम करने का कोई उपाय निकाले, क्योंकि इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं कि आम लोगों को समय पर न्याय न मिले। यह समय पर न्याय न मिल पाने का ही दुष्परिणाम है कि सामाजिक असंतोष के साथ-साथ उत्पीड़न-शोषण और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। अगर निचले स्तर पर न्याय आसानी से और समय पर उपलब्ध हो तो उसका सीधा लाभ समाज में बढ़ती खाई को पाटने के रूप में मिलेगा। चूंकि सुप्रीम कोर्ट में जारी उठापटक का समाधान केवल उच्चतर न्यायिक प्रणाली को ही राहत देगा इसलिए निचली अदालतों के न्यायिक ढांचे को सुधारने की पहल कहीं ज्यादा जरूरी है। ध्यान रहे कि निचली अदालतों में जहां करीब पौने तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं वहीं न्यायाधीशों के लगभग पांच हजार पद रिक्त हैं। इसके अतिरिक्त निचली अदालतों की संख्या बढ़ाने की भी जरूरत है। हैरत की बात है कि इस जरूरत की पूर्ति हो, इसके लिए मुश्किल से ही कोई जनहित याचिका लगती है और दूसरी और सुप्रीम कोर्ट की कथित समस्याओं को लेकर याचिकाओं का अंबार लगा है। अब जब यह स्पष्ट है कि निचली अदालतों के समाधान को लेकर न तो उच्च न्यायालय सक्रियता दिखा रहे हैं और न ही राज्य सरकारें तब फिर केंद्र सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना ही चाहिए।

(लेखक- दैनिक जागरण के प्रधान संपादक)