नई दिल्ली (सुरेंद्र किशोर)। मुजफ्फरपुर बालिका गृह में रह रही लड़कियों से दुष्कर्म का मामला कितना गंभीर है, यह इससे पता चलता है कि इस शर्मनाक कांड का संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने भी ले लिया है। यह घटना सरकारी सिस्टम की विफलता का नतीजा है। ऐसी ही विफलता नब्बे के दशक में चारा घोटाला में भी सामने आई थी, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि चारा घोटाले की सीबीआइ जांच अदालत के आदेश के कारण हुई थी और उसने जांच की निगरानी भी की थी। हालांकि बालिका गृह कांड की सीबीआइ जांच बिहार सरकार की सिफारिश पर हो रही है, लेकिन इस एजेंसी के किसी दबाव में आने या फिर अन्य किसी कारण से जांच सही तरीके से न हो पाने के खतरे से बचने के लिए जांच अदालत की निगरानी में होनी चाहिए। ध्यान रहे कि देश का ध्यान आकर्षित करने वाले मामलों में आरोपितों को सजा मिलने से ही आम लोगों का सिस्टम पर भरोसा बढ़ता है। मुजफ्फरपुर बालिका गृह में घटी घटनाएं बताती हैं कि शासन तंत्र के संबंधित लोगों ने इस बालिका गृह के संचालक का उसके जघन्य कार्यों में या तो सहयोग किया या फिर इन कार्यों की जानबूझकर अनदेखी की। यहां की 44 में से 34 लड़कियों के साथ दुष्कर्म की बात सामने आई है। क्या यह संभव है कि बालिका गृह के पड़ोसी पीड़ित लड़कियों की चीख-पुकार सुन लें, लेकिन प्रशासन के कान पर जूं न रेंगे? आखिर इसे सिस्टम की विफलता नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?

अब तक की जानकारी के अनुसार मुजफ्फरपुर बालिका गृह में इसलिए अनर्थ होता रहा, क्योंकि कई सत्ताधारी नेताओं, संबंधित अफसरों, कर्मचारियों को बस एक कीमत चाहिए थी, जो उन्हें किसी न किसी रूप में मिलती गई। शायद इसी कारण बालिका गृह के संचालक की गिरफ्तारी के तत्काल बाद से ही पुलिस पर दबाव पड़ने लगा था। इस घिनौने कांड में जो लोग आरोपों के घेरे में हैं उनमें अफसर, पत्रकार, कथित समाजसेवी और सत्ताधारी नेता तक शामिल बताए जाते हैं। इस मामले में सीबीआइ जांच का नतीजा कुछ भी हो, बिहार के कुछ चर्चित मामलों की जांच में सीबीआइ की भूमिका कोई बहुत अच्छी नहीं रही। इनमें 1975 में ताकतवर केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या का मामला और 1983 में सनसनीखेज बॉबी हत्याकांड प्रमुख है।

ललित बाबू हत्याकांड में तो सीबीआइ ने अज्ञात कारणों से जांच को एक ऐसा मोड़ दे दिया कि दिवंगत मिश्र के परिजनों का भी जांच एजेंसी पर से भरोसा उठ गया। बिहार पुलिस ने ललित बाबू की हत्या में शामिल दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया था। इन लोगों ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने यह स्वीकार भी कर लिया था कि उन्होंने किस प्रभावशाली हस्ती के कहने पर हत्या की, परंतु उसके बाद जब सीबीआइ ने केस अपने हाथ लिया तो इन दोनों संदिग्धों को छोड़ दिया। बाद में एजेंसी ने आनंद मार्ग के कुछ लोगों पर केस चलाया। ऐसा तब हुआ जब ललित बाबू के भाई और पुत्र ने अदालत में कहा कि आनंद मार्गियों का ललित बाबू से कोई बैर नहीं था। 1983 में पटना के चर्चित बॉबी हत्याकांड में भी सीबीआइ की भूमिका भरोसा बढ़ाने वाली नहीं रही। आम धारणा है कि किसी दबाव में श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बॉबी की हत्या को आत्महत्या करार देकर रफा-दफा कर दिया गया। उन दिनों के एक कांग्रेसी विधायक ने तर्क दिया था कि यदि बॉबी कांड को हम रफा-दफा नहीं करवाते तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता। बिहार विधानसभा सचिवालय की महिला टाइपिस्ट बॉबी को जहर दिया गया था, जिससे 7 मई 1983 को उसकी मौत हो गई। उस समय यह चर्चा में था कि किसके कहने पर किसने उसे जहर दिया? बॉबी बिहार विधान परिषद की सभापति और कांग्रेसी नेत्री राजेश्वरी सरोज दास की गोद ली हुई बेटी थी। उसकी मौत सभापति के पटना स्थित सरकारी आवास में ही हुई थी। हड़बड़ी में लाश को दफना दिया गया। दो डॅाक्टरों से निधन के कारणों से संबंधित जाली सर्टिफिकेट भी ले लिए गए। एक डॉक्टर ने लिखा कि आंतरिक रक्तस्राव से बॉबी की मृत्यु हुई। दूसरे ने मौत का कारण अचानक हृदय गति थमना बताया। बाद में पटना के एसएसपी किशोर कुणाल ने बॉबी की लाश निकलवाकर पोस्ट मार्टम कराया। बिसरा में मेलेथियन जहर पाया गया। सभापति के आवास में रहने वाले दो युवकों को पकड़कर पुलिस ने जल्दी ही पूरे केस का रहस्योद्घाटन कर दिया। खुद राजेश्वरी सरोज दास ने अदालत में बताया कि बॉबी को कब और किसने जहर दिया था। इस कांड में प्रत्यक्ष और परोक्ष ढंग से कई छोटे -बड़े नेता संलिप्त पाए गए थे। इन नेताओं को बिहार पुलिस गिरफ्तार करने ही वाली थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने केस को सीबीआइ को सौंप दिया और उसने मामले को एक तरह से दफना दिया। उसने हत्या के इस मामले को आत्महत्या साबित किया।

माना जाता है कि बॅाबी की मौत के मामले में सीबीआइ जांच के आदेश इसीलिए दिए गए थे, क्योंकि पटना के एसएसपी किशोर कुणाल किसी दबाव में नहीं आ रहे थे। आज के लोगों को इस कांड का स्मरण नहीं होगा, लेकिन उस जमाने के लोग अच्छे से जानते हैं कि यह मामला कैसे एक स्त्री की भावनाओं से अनेक महाप्रभुओं द्वारा खेले जाने और बाद में उसे खत्म कर देने की कहानी बयान कर गया। हाल के उन मामलों को देखें जिन्हें सीबीआइ को सौंपा गया है तो भागलपुर के चर्चित सृजन घोटाले की जांच में भी यह एजेंसी तीन प्रमुख आरोपियों को गिरफ्तार नहीं कर पाई है। इसी तरह मुजफ्फरपुर के ही नवरूणा हत्याकांड में वह अपनी जांच को आगे नहीं बढ़ा पा रही है। इन मामलों के विपरीत चारा घोटाले की जांच अदालत की निगरानी में होने के कारण ही सीबीआइ तबके प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के दबाव को भी नजरअंदाज कर सकी थी। उस समय के सीबीआइ निदेशक जोगिंदर सिंह ने अपनी में किताब लिखा था कि उन्होंने प्रधानमंत्री गुजराल को लिखित आदेश करने की सलाह दी थी। इससे वह पीछे हट गए थे। इसी तरह यह भी एक तथ्य है कि चारा घोटाले की जांच करने वाले अफसर यानी सीबीआइ के संयुक्त निदेशक यूएन विश्वास पर जब-जब राजनीतिक या गैर राजनीतिक दबाव पड़ा तब-तब पटना हाईकोर्ट की निगरानी बेंच ने उनका बचाव किया। इसी कारण चारा घोटाला केस को तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सका।

इस पर हैरानी नहीं कि बिहार के लोग यह उम्मीद कर रहे हैं कि शर्मसार करने वाले मुजफ्फरपुर कांड की सीबीआइ जांच अदालत की निगरानी में हो। चूंकि मामला बहुत गंभीर है इसलिए बिहार सरकार ने भी यह अपेक्षा व्यक्त की है कि मामले की जांच अदालत की निगरानी में हो। बेहतर हो कि ऐसा होना सुनिश्चित हो। ऐसे होने पर ही यह उम्मीद बंधेगी कि मुजफ्फरपुर के महापापी बच नहीं पाएंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)