श्रीराम चौलिया : भारत ने इसी एक दिसंबर को जी-20 देशों के समूह की अध्यक्षता संभाल ली। इस जिम्मेदारी को लेकर मोदी सरकार कितनी गंभीर है, इसका पता पिछले दिनों इसे लेकर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक से भी चलता है और उन तैयारियों से भी जो देश के विभिन्न स्थानों पर हो रही हैं। जी-20 जैसे विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के संस्थान का नेतृत्व करना देश के लिए प्रतिष्ठा का विषय है। यह एक ऐतिहासिक दायित्व भी है।

जिन बहुआयामी आर्थिक और भूराजनीतिक संकटों से विश्व गुजर रहा है, उनके समाधान का भार जी-20 के कंधों पर है। मूलतः यह संस्थान बदलती विश्व व्यवस्था के संदर्भ में संकटों से लड़ने के लिए बनाया गया एक अनूठा मंच है। इसकी सफलता पर ही धरती के सभी निवासियों का कल्याण निर्भर है। जी-20 के सदस्य देशों की कुल आबादी विश्व की लगभग दो तिहाई जनसंख्या जितनी है, पर चूंकि विश्व के सभी देश और लोग एक सूत्र और जुड़ी हुई व्यवस्था में बंधे हुए हैं, लिहाजा यह मानकर चलना उचित होगा कि दुनिया की समस्त आठ अरब आबादी का जिम्मा न केवल उनकी सरकारों, बल्कि जी-20 पर भी है।

जी-20 संगठन विश्व सरकार तो नहीं है, लेकिन वैश्विक शासन और सामूहिक कार्य का एकमात्र विश्वसनीय माध्यम जरूर है। कई मामलों में संयुक्त राष्ट्र की शिथिलता और असफलता के मद्देनजर जी-20 आज अधिक प्रासंगिक बन गया है। भारत समेत ब्राजील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्किये, सऊदी अरब और अर्जेंटीना जैसी उभरती शक्तियों को जो स्थान और सम्मान संयुक्त राष्ट्र में नहीं मिल पाया है, वह जी-20 ने प्रदान किया है। बड़े विकासशील देशों को वैश्विक शासन में भागीदार बनने का अवसर जी-20 के माध्यम से ही मिला है। सदस्यता और कार्यप्रणाली में लचीलेपन के वजह से ही यह संगठन अंतरराष्ट्रीय आशाओं का केंद्रबिंदु बना हुआ है।

जी-20 की शक्ति इस गुण में है कि यह सदस्य देशों पर बाध्यकारी कानून को लागू करने वाला औपचारिक अंतरसरकारी संगठन नहीं है। जी-20 देशों का साझा बयान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव से काफी भिन्न होता है। इसके निर्णयों में सख्त अंतरराष्ट्रीय कानून और अनुपालन के निहितार्थ नहीं होते। यही कारण है कि हाल में इंडोनेशिया के बाली में संपन्न जी-20 शिखर बैठक के अंत में तमाम भूराजनीतिक मतभेदों और तनावों के बावजूद कम से कम एक संयुक्त घोषणा पत्र आया, जिस पर सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर किए।

सर्वसम्मति और बंधनमुक्त विचार-विमर्श पर आधारित जी-20 संगठन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मार्गदर्शन प्रदान करता है, लेकिन इसके निर्णयों को लागू करने के लिए ठोस तंत्र का अभाव है। एक प्रकार से यही तथ्य जी-20 की ताकत भी है और कमजोरी भी। बाली शिखर बैठक में भारतीय कूटनीति ने जी-20 की इस प्रकृति का दक्षता से उपयोग किया और विरोधी गुटों को एक मंच पर लाने में सफलता अर्जित की। अमेरिकी सरकार ने बाली संयुक्त घोषणा पत्र का श्रेय भारत की "महत्वपूर्ण भूमिका" और विरोधी खेमों में बंटे विश्व नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के "अहम रिश्तों" को दिया।

यह सच है कि मौजूदा समय में वैश्विक कूटनीति डांवाडोल है। ऐसी स्थिति में भारत सभी देशों से बीच एक सेतु का काम तो कर ही रहा है, साथ ही वैश्विक समस्याओं के निवारक का अवतार धारण करके जी-20 की लाज और दुनिया की अपेक्षाओं का संरक्षण भी कर रहा है। जी-20 को दिशा देने का अवसर हासिल करने वाले भारत ने इस संगठन में अब तक जिस सामर्थ्य और सामूहिक भावना का प्रदर्शन किया है, उससे कई गुना अधिक उसे अगले एक वर्ष के दौरान दिखानी होगी। सौभाग्यवश आज का भारत अंतरराष्ट्रीय दायित्व निभाने को आतुर है।

भारत जी-20 की मेजबानी को लेकर तत्पर है। मोदी युग में भारतीय विदेश नीति की विशेषता यह है कि भारत विश्व से यह नहीं कहता फिरता कि हमें क्या चाहिए? इसके विपरीत भारत यह दिखा रहा है कि विश्व की आवश्यकतों की पूर्ति में वह कितना योगदान देने को तैयार है? भारत ने विश्व में 'वसुधैव कुटुंबकम्' के मंत्र से अपने कर्मों द्वारा जो साख स्थापित की है, वह उसकी जी-20 की अध्यक्षता को बल देगी।

भारत के हौसले बुलंद तो हैं, पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर आगामी एक साल कठिनाइयों भरा रहेगा और यही समय भारत की जी-20 की मेजबानी का भी वर्ष है। रूस-यूक्रेन युद्ध, एशिया में चीन के आक्रामक तेवर, बढ़ती महंगाई, आर्थिक मंदी और विकासशील देशों में सामाजिक एवं राजनीतिक उथलपुथल जैसे संकटों ने जी-20 को 'एक हो जाओ या नष्ट हो जाओ' की दुविधा के सामने लाकर खड़ा कर किया है। ऐसे में जी-20 द्वारा केवल संयुक्त घोषणापत्र जारी करना एकमात्र उपाय नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने "महत्वाकांक्षी, निर्णायक और कार्रवाई-उन्मुख" जी-20 की अध्यक्षता का वादा किया है। इसे कारगर करने के लिए भारत को जी-20 के अंदर अपने विशेष सामरिक साझीदारों के साथ मिलकर कूटनीतिक मध्यस्थता और समझौते करवाने की पहल करनी होगी।

भारत 'लोकतंत्र की जननी' कहलाता है। व्यापक परामर्श तथा आम सहमति बनाना हमारे राजनीतिक चरित्र में निहित है। एक तरफ कश्मीर से लेकर अंडमान द्वीप तक जी-20 के कार्यक्रमों का आयोजन देश को विश्व कल्याण के कर्तव्य पथ पर जागरूक बनाए रखेगा तो दूसरी तरफ जी-20 के सदस्य देशों और गैर-सदस्यों के साथ सैकड़ों बैठकों का संचालन वैश्विक शासन के डगमगाते कदमों को स्थिर करेगा। स्पष्ट है कि भारत के सर्वस्पर्शी और सर्वसमावेशी व्यक्तित्व की एक बड़ी परीक्षा जी-20 की मेजबानी करते समय होगी।

मोदी सरकार ने भारत को विश्व की 'अग्रणी शक्ति' के रूप में बदलने का संकल्प लिया है। इस स्वप्न को साकार करने की यात्रा में जी-20 अध्यक्षता मील का पत्थर है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में महाशक्ति का दर्जा सिर्फ आर्थिक विकास में तेज वृद्धि या सैन्य बल में इजाफा करने मात्र से नहीं प्राप्त होता। साफ्ट पावर और वैश्विक संस्थानों के माध्यम से प्रभाव फैलाना भी उतना ही जरूरी होता है। इस लिहाज से जी-20 की मेजबानी भारत के लिए बड़ा अवसर लेकर आई है। संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर इसमें अंशदान करना भारत के पुनर्जागरण का संकेत होगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर एवं डीन हैं)