नई दिल्ली [गुरजीत सिंह]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया यूरोपीय दौरा कई मायनों में खास रहा। इस बार परिवेश और मेलजोल की प्रक्रिया का ढांचा अलग था। राष्ट्रमंडल सम्मेलन से इतर नॉर्डिक देशों के साथ संवाद और बर्लिन में कुछ समय रुकना नई रणनीति का ही हिस्सा था। मोदी सरकार में विदेश नीति में मेलजोल को लेकर प्राथमिकताएं शुरुआत से ही तय थीं। एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस के सभी राष्ट्रप्रमुखों को आमंत्रित किया। इसके बाद अमेरिका, चीन, रूस, जापान और जर्मनी के अलावा फ्रांस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण देशों को साधने की कवायद शुरू हुई। फिर इसका दायरा और बढ़ा और कई क्षेत्रीय संगठन साथ आए। इस कड़ी में 2015 में अफ्रीका सम्मेलन और इस साल आसियान का नाम लिया जा सकता है।

अब चीन में चल रहा शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ मध्य एशिया को आपसी जुड़ाव के लिए एक नया मंत्र देगा। नॉर्डिक पहल भी इस खांचे में पूरी तरह सटीक बैठती है। बहुपक्षीय मेलजोल अब लगातार तेजी पकड़ रहा है। इसी महीने संपन्न अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा सम्मेलन और राष्ट्रमंडल बैठक में भी यह पूरी तरह झलकता है। प्रधानमंत्री के यूरोप दौरे की शुरुआत स्वीडन के साथ हुई। तमाम देश भारतीय बाजार के आकार और उसके महत्व की अनदेखी नहीं कर सकते और स्वीडन दौरे से यह बात एक बार फिर साबित हुई। स्वीडन मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया का प्रबल समर्थक है। भारत में स्वीडन का निवेश लगातार बढ़ने पर है, लेकिन व्यापार सीमित है। साथ ही वह भारतीय छात्रों को भी बड़ी तादाद में आकर्षित कर रहा है।

स्वीडिश प्रधानमंत्री स्टीफन लॉफेन भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ बहुत गर्मजोशी से पेश आए और उन्होंने भी नॉर्डिक सम्मेलन की सह-मेजबानी में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। इसमें डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड और नॉर्वे के राष्ट्र प्रमुखों ने भी शिरकत की। सम्मेलन का शीर्षक ही था ‘भारत-नॉर्डिक सम्मेलन: साझा मूल्य एवं परस्पर समृद्धि।’ यह भारत आसियान सम्मेलन की ही तरह था जिसके लिए वही प्रारूप अपनाया गया। हालांकि नॉर्डिक देशों के लिए यह बहुत अनोखा था, क्योंकि वे समूह के रूप में किसी देश के राष्ट्रप्रमुख की आगवानी नहीं करते। उन्होंने राष्ट्रपति बराक ओबामा से जरूर एक साथ मुलाकात की थी, लेकिन आसियान या ईयू की तरह नॉर्डिक देशों का कोई संगठन नहीं जो उन्हें एक मंच प्रदान करे।

मौजूदा नॉर्डिक परिषद एक संसदीय समूह है और उसके मंत्रियों की परिषद भी उसके बाल्टिक और जर्मनी में शेल्सविग होल्स्टेन के पड़ोसियों से ही संबंध बेहतर बनाने में सक्रिय रहती है। बहरहाल नॉर्डिक देशों ने भारत के साथ वैश्विक सुरक्षा, आर्थिक वृद्धि, नवाचार और जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों पर साथ मिलकर काम करने पर सहमति जताई। उन्होंने स्वीकार किया कि एक दूसरे से जुड़ी हुई दुनिया में नवाचार और डिजिटल रूपांतरण ही वृद्धि को धार देते हैं और भारत एवं नॉर्डिक देशों के बीच बढ़ते मेलजोल के मूल में यह पहलू शामिल है। इससे दुनिया में भारत की बढ़ती ताकत का अहसास हुआ। यहां यूरोपीय संघ की छाया का भी असर देखने को नहीं मिला। केवल दो नॉर्डिक देश ही यूरोपीय संघ के सदस्य हैं। तीन नाटो सदस्य हैं। इसीलिए व्यापार एवं भूमंडलीकरण में रिश्तों को परवान चढ़ाने पर सहमति बनी जो यूरोपीय संघ के मंच पर दशकों से अटकी हुई है।

भारत की बढ़ती रक्षा जरूरतों को पूरा करने पर भी बात आगे बढ़ी और अगर यह पहल सिरे चढ़ती है तो मेक इन इंडिया को बहुत प्रोत्साहन मिलेगा। खासतौर से स्वीडन ग्रिपेन लड़ाकू विमान में भारत को सहयोग देने का बहुत उत्सुक है। लंदन प्रधानमंत्री मोदी के दौरे का दूसरा पड़ाव रहा जहां उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे के साथ द्विपक्षीय वार्ता के साथ राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लिया। हाल के दौर में ब्रिटेन के साथ भारत के रिश्ते उस रफ्तार से परवान नहीं चढ़े हैं जैसी गर्मजोशी फ्रांस और जर्मनी के साथ बढ़ी है। विरासत अब वास्तविकता के लिए राह खोल रही है और ब्रेक्जिट के बाद बने हालात में ब्रिटेन ने भारत को प्राथमिक सूची में रखा हुआ है।

यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के बाद भारत के हाथ बेहतर दांव लग सकता है, लेकिन फिर भी आवाजाही और वीजा के मसले अब ब्रिटेन के स्तर पर ही तय होंगे। अब यह ब्रिटेन पर निर्भर करता है कि भारत का भरोसा जीतने के लिए वह इन मुद्दों पर कितनी तत्परता से कदम उठाकर ब्रेक्जिट के बाद अपनी संभावनाएं तलाशता है। भारत चाहता है कि पर्यटकों और छात्रों को आसानी से ब्रिटिश वीजा मिले। वहीं ब्रिटेन को लगता है कि तकनीशियनों के लिए स्पेशल विंडो से इसे सुलझाया जा सकता है। भगोड़ों और अवैध प्रवासियों से जुड़ा राजनीतिक मसला भारत के लिए कड़वाहट का सबब बन गया है। यह बात फ्रांस या जर्मनी के साथ रिश्तों के आड़े नहीं आती।

सामरिक अर्थों में ब्रिटेन अहम साझेदार है जो कई मामलों में भारत जैसी सोच ही रखता है और वैश्विक स्तर पर भारत की व्यापक भूमिका का भी पक्षधर है। हालांकि जर्मनी और फ्रांस के उलट वह भारत को खास पेशकश नहीं कर रहा। उसे चाहिए कि वह बेहतर आव्रजन, व्यापार और मेलजोल के मोर्चे पर कुछ कदम उठाकर इसकी भरपाई करे। लंदन दौरे का दूसरा भाग राष्ट्रमंडल सम्मेलन में बहुपक्षीय सहयोग में नूतन प्रयोग से जुड़ा था। अपनी भूमिका की समझ को लेकर राष्ट्रमंडल की सोच में आया बदलाव इसका खास पहलू रहा। इसके लिए ब्रिटेन के साथ ही कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों के व्यावहारिक आकलन को भी श्रेय देना होगा जो अन्य सदस्य देशों के साथ मेलजोल में अक्सर मानवीय और नैतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। साथ ही एक ताकत के रूप में भारत को मान्यता मिलना भी सम्मेलन की एक थाती रही जहां अफ्रीका, कैरेबियन और दक्षिण प्रशांत के तमाम राष्ट्रमंडल देशों ने भारत के साथ सहयोग की जो पींगें बढ़ाईं उन्हें अब बेहतर रूप से मान्यता मिली है।

ऑस्ट्रेलिया भी भारत के साथ कई मोर्चों पर सक्रिय है। राष्ट्रमंडल समूह भारत को बेहतर नजरिये से देखता है। जहां ब्रिटिश शक्ति का पराभव हो रहा है वहीं भारत के उदय को देखते हुए उसकी सक्रिय भागीदारी राष्ट्रमंडल को और ताकत देगी। यह राष्ट्रमंडल को फ्रैंकोफिन मॉडल के बजाय लूजोफोन मॉडल की ओर अग्रसर करेगा जहां पुर्तगाल की भूमिका सिकुड़ रही है तो ब्राजील का दबदबा बढ़ रहा है। दौरे का अंतिम पड़ाव बर्लिन रहा। एक साल से भी कम समय में यह मोदी और चांसलर मर्केल की तीसरी बैठक थी। यहां भूमंडलीकरण की रफ्तार तेज करने के उपायों के साथ ही अक्षय ऊर्जा और कौशल विकास में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर सार्थक चर्चा हुई।

भारत की विकास गाथा में और अधिक जर्मन निवेश की जरूरत पर भी बात हुई। यूरोपीय दौरे का लेखाजोखा यही रहा कि इसमें भारतीय रणनीति की नई शैली के दर्शन हुए जो कहीं अधिक व्यावहारिक है। भारत ने दर्शाया कि वह अपनी सहयोगी भूमिका निभाने और मुक्त व्यापार, जलवायु परिवर्तन और नवाचार जैसे वैश्विक लक्ष्यों में अपने योगदान से नहीं हिचकेगा।

(लेखक जर्मनी, इंडोनेशिया और इथियोपिया में भारत के राजदूत रहे हैं)