[ ब्रह्मा चेलानी ]: जिहादी आतंकवाद के लगातार सिर उठाते वैश्विक दानव के खिलाफ संघर्ष में भारत और अमेरिका स्वाभाविक सहयोगी हैं। मोदी की ह्यूस्टन रैली में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी यह संकल्प दोहराया। वहां दोनों नेता सुरक्षा से जुड़े तमाम मसलों पर एक सुर में बोलते सुनाई पड़े। ऐसे परस्पर हितों को देखते हुए भारत-अमेरिका आतंक विरोधी सहयोग की कड़ी और मजबूत होनी चाहिए थी। वहीं पाकिस्तान के साथ अमेरिकी रिश्ते भी अब तक टूट जाने चाहिए थे। मगर हमें कुछ और ही दिख रहा है। मसलन ट्रंप आतंक को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान और उसके भुक्तभोगी भारत के बीच अजीबोगरीब तुलना करने पर तुले हैं। सूत्रों के मुताबिक ट्रंप ने निजी बातचीत में पीएम मोदी को पाक से संबंध सुधारने के लिए प्रेरित किया। फिर सार्वजनिक रूप से यह कहा कि दोनों देश परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और उन्हें कोई कारगर हल निकालना ही होगा।

जब ट्रंप ने मोदी की मौजूदगी में पाक पर गोलमोल जवाब दिया

कुछ दिन बाद ट्रंप ने पाकिस्तान को आतंक की धुरी मानने के बजाय ईरान को उससे कहीं बड़ा आतंकी देश बताया। यहां तक कि मोदी की मौजूदगी में भी पाक को लेकर दागे गए सीधे सवाल पर ट्रंप ने गोलमोल जवाब ही दिया। एक ऐसे देश में जहां संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 25 दुर्दांत आतंकी बसेरा बसाए हुए हैं, उस पाकिस्तान को आतंक का गढ़ मानने से ट्रंप की हिचक भारत-अमेरिका आतंक विरोधी सहयोग की सीमाओं को ही रेखांकित करती है। अमेरिका अभी भी नई दिल्ली और इस्लामाबाद की वक्त-वक्त पर पीठ थपथपाने के खेल में लगा है। वह अपनी नीतियों में इस्लामाबाद को नई दिल्ली के साथ जोड़कर देख रहा है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद कि वाशिंगटन के आर्थिक एवं भू-राजनीतिक हितों के लिहाज से अब भारत उसके लिए कहीं अधिक अहम है। पाकिस्तान के साथ अमेरिकी व्यापार महज 6.6 अरब डॉलर है वहीं भारत के साथ यह 150 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंचने जा रहा है।

अमेरिका का अफगानिस्तान में अधूरा एजेंडा

अमेरिका का अफगानिस्तान में अधूरा एजेंडा भी इस्लामाबाद से वाशिंगटन के अब तक कायम लगाव की वजह हो सकती है। मगर ऐसी कोई गलतफहमी न रखें कि अफगानिस्तान में संघर्ष समाप्त होने के बाद भी अमेरिका आतंकियों से नजदीकी जुड़ाव पर पाकिस्तान को किसी प्रकार दंडित करेगा। असल में पाक के साथ अमेरिकी सक्रियता उसे भारत की तुलना में ज्यादा लाभ की गुंजाइश देती है। चीन जैसे पाक को भारत के खिलाफ मोहरे के रूप में इस्तेमाल करता है उसे देखते हुए फायदे की यह सौगात कहीं बड़ी दिखती है।

पाक आतंक पर अमेरिका अनदेखी करता रहा

इसी कारण अमेरिका पाकिस्तान को अपनी नीति में आतंक के इस्तेमाल, परमाणु हथियारों के जखीरे, चीन से मिलने वाली मिसाइल तकनीकों और भारत को दी जा रही परमाणु धमकियों की अनदेखी करता रहा है। अगर अमेरिका को पाकिस्तानी धरती पर पनपने वाले किसी आतंकी खतरे की फिक्र होती है तो केवल उसी की जो अफगानिस्तान में उसके सुरक्षा बलों के लिए जोखिम पैदा करते हैं। उसने हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने और अफगान तालिबान को वार्ता के लिए तैयार करने को लेकर पाक पर दबाव डाला, मगर भारत को लहूलुहान करने वाले पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के मामले में अमेरिकी कार्रवाई केवल काली सूची में डालने और संयुक्त राष्ट्र में भी ऐसी कवायद कराने तक सीमित रहती है। यह सब प्रतीकात्मक ही हैं।

हाफिज सईद का भत्ता मामला एक मिसाल है

अंतरराष्ट्रीय आतंकी हाफिज सईद को एक हजार डॉलर प्रतिमाह का भत्ता दिलाने के पाकिस्तानी प्रस्ताव को मिली हालिया मंजूरी इसकी मिसाल है। सईद पर 2012 से ही घोषित एक करोड़ डॉलर का अमेरिकी इनाम भी महज दिखावटी है।

बलूच लिबरेशन आर्मी को अमेरिका ने आतंकी संगठन का दर्जा दिया

पुलवामा के कुछ दिन बाद ही अमेरिकी सहयोग से पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल कराने में मदद मिली। मगर इसके कुछ हफ्तों के भीतर ही बलूच लिबरेशन आर्मी को अमेरिका ने आतंकी संगठन का दर्जा दे दिया। इसकी आड़ में पाक को बलूचिस्तान में निर्ममतापूर्वक दमन के लिए खुली छूट मिल गई। सईद पर सख्ती को संतुलित करने के लिए अमेरिका ने पिछले साल तहरीके तालिबान के तीन वांछितों पर 1.1 करोड़ डॉलर का इनाम रखा। यहां तक कि उसने उसके तीन प्रमुखों को मौत के घाट उतार दिया और नए मुखिया को भी आतंकी घोषित कर दिया। यह विडंबना है कि दुनिया के सबसे भयावह आतंकी हमले करने वाला अफगान तालिबान अभी तक अमेरिका की आतंकियों वाली सूची में शामिल नहीं हुआ है।

अमेरिका का ईरान पर प्रतिबंध और पाक के साथ नरमी

ऐसे विरोधाभास और भी मुखर हैं। ईरान पर अमेरिका ने बेहद सख्त प्रतिबंध लगाए हुए हैं जबकि आतंक की असली धुरी पाकिस्तान के साथ वह नरमी से पेश आ रहा है। पाक की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए उसने आइएमएफ से राहत पैकेज दिलाने में मदद की। अमेरिका ने ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशन गाड्र्स कॉप्र्स और कुछ व्यक्तियों पर तो आतंकी पाबंदियां लगाईं, लेकिन आतंक की सबसे बड़ी निर्यातक पाकिस्तानी फौज या उसके किसी जनरल या खुफिया अधिकारी पर कभी ऐसे प्रतिबंध नहीं लगाए।

एफएटीएफ की बैठक में अमेरिका पाक के खिलाफ शायद ही प्रस्ताव का समर्थन करे

आइएमएफ राहत और इमरान के साथ हालिया बैठकों को देखकर लगता है कि 13-18 अक्टूबर को होने वाली फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ की बैठक में अमेरिका पाक के खिलाफ शायद ही किसी प्रस्ताव का समर्थन करे। इस अंतरराष्ट्रीय निगरानी संस्था का आकलन है कि आतंकियों को वित्तीय मदद रोकने के अधिकांश मानकों को पूरा करने में पाकिस्तान नाकाम रहा है। अमेरिका नहीं चाहता कि फिलहाल एफएटीएफ पाकिस्तान को अपनी ग्र्रे सूची से काली सूची में डाले। असल में अपने भू-राजनीतिक हितों के चलते अमेरिका बिगड़ैल पाकिस्तान को सुधारने के माकूल मौके को हाथ से निकलने दे रहा है।

अमेरिका भारत को ईरान से दूर रहने पर दबाव डाल रहा वहीं चीन को छूट दे रहा

विरोधाभासों की सूची बहुत लंबी है। एक तरफ अमेरिका भारत को हिंद-प्रशांत रणनीति में अहम मानता है, वहीं दोनों देशों के सुरक्षा हितों की दिशा भारत के पड़ोस में ही बिगड़ी हुई है। अमेरिका भारत को ईरान से दूर रहने पर दबाव डाल रहा है वहीं चीन को छूट दे रहा है। ईरान से सस्ते तेल आयात पर प्रतिबंध के चलते भारत का आयात बिल बढ़ रहा है। भारत के हाथ से चाबहार परियोजना के छिटकने का जोखिम भी बढ़ गया है, क्योंकि चीन ईरान में 280 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है।

भारत की अपनी लड़ाई है और उसे अपने दम पर ही जीतना होगा

वैश्विक स्तर पर आतंक के खिलाफ लड़ाई के राजनीतिकरण से जुड़े खतरे के प्रति आगाह करके मोदी ने सही किया। आतंक के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाली मुहिम इसीलिए नाकाम रही, क्योंकि यह भू-राजनीतिक हितों को पोषित करने का जरिया बन गई। भारत के लिए इसका सार यही है कि पाकिस्तानी आतंकवाद को खत्म करने में अमेरिका सहित कोई भी दोस्त वास्तविक रूप से मददगार नहीं होगा। यह भारत की अपनी लड़ाई है और उसे अपने दम पर ही जीतना होगा। अमेरिकी मदद की अपेक्षा भारत-पाकिस्तान रिश्तों में एक अंशभागी के रूप में वाशिंगटन के दावे को ही पुष्ट करेगी।

( लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में स्ट्रेटेजिक स्टडीज के प्रोफेसर हैं )