[ विवेक काटजू ]: कूटनीतिक लिहाज से बीते कुछ दिन काफी अहम रहे। इस दौरान भारत और अमेरिका के बीच टू प्लस टू वार्ता का पहला दौर संपन्न हुआ। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पेंपियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस से मुलाकात की। असल में यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दिमाग की उपज है कि द्विपक्षीय वार्ता के लिए ऐसे अनूठे प्रारूप को तैयार किया जाए। यह आयोजन दर्शाता है कि दोनों देश अपने रिश्ते को वास्तविक रूप से रणनीतिक साझेदारी में बदल चुके हैं।

आमतौर पर द्विपक्षीय संबंधों के सभी पहलुओं का दारोमदार विदेश मंत्री पर होता है। जब सतत एवं सुनियोजित रूप से इसमें रक्षा मंत्री भी शामिल हो जाएं तो इसका अर्थ होता है कि दोनों देश प्रतिरक्षा एवं सुरक्षा के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विशेष ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। आज भारत और अमेरिका कई साझा खतरों के मुहाने पर हैं, विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उनके लिए ज्यादा जोखिम हैं। ऐसे में परस्पर सहयोग से दोनों को लाभ होगा। टू प्लस टू वार्ता में रक्षा के मोर्चे पर कई अहम कदम उठाए गए तो कुछ क्षेत्रीय घटनाक्रमों पर दोनों देशों का रुख-रवैया एक जैसा रहा।

दिल्ली आगमन से पहले पोंपियो कुछ घंटों के लिए इस्लामाबाद में भी रुके। उनके साथ अमेरिकी सेना प्रमुख जनरल जोसेफ डनफोर्ड भी थे। पोंपियो और डनफोर्ड ने नए प्रधानमंत्री इमरान खान और पाक सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा से मुलाकात की। इस समय अमेरिका-पाकिस्तान संबंध मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य मदद रोककर अपनी नाखुशी भी जाहिर की और फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ के जरिये उस पर दबाव भी बढ़ा दिया है।

पाकिस्तान की माली हालत इन दिनों बेहद खस्ता है। उसका विदेशी मुद्रा भंडार लगातार सिकुड़ रहा है। उसे आर्थिक मदद की दरकार है। इसके लिए वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण में जाने की तैयारी कर रहा है। आइएमएफ में अमेरिका का तगड़ा रुतबा है। उसने पहले ही संकेत दिए हैं कि वह यह गवारा नहीं करेगा कि आइएमएफ से मिली रकम से पाकिस्तान चीनी कर्ज चुकाए। ऐसे संकेतों के बावजूद अमेरिका यह चाहता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में स्थायित्व लाने में उसकी मदद करे यानी इस्लामाबाद तालिबान को अफगान सरकार के साथ शांति वार्ता के लिए तैयार करे। इस सबसे बेपरवाह तालिबान आतंक के रास्ते पर है।

इस्लामाबाद में पोंपियो ने इमरान खान सरकार से अफगानिस्तान में शांति लाने की दिशा में और अधिक प्रयास करने के लिए कहा, लेकिन तथ्य यह है कि पाकिस्तान की मदद रोकने और तीखे तेवर दिखाने के बावजूद अमेरिका ने पाकिस्तान पर शिकंजा उतना कड़ा नहीं किया जितना जरूरी था। ऐसा शायद इसलिए किया गया, क्योंकि अफगान-पाकिस्तान सीमा पर तालिबान की शरणगाहों का सफाया करने के लिए अमेरिका वहां अपनी फौज भेजने का इच्छुक नहीं है। अगर वह ऐसा कुछ करता तो दिखता कि वह पाकिस्तान पर दबाव बनाने को लेकर वास्तव में गंभीर है। चूंकि पाकिस्तान जानता है कि दुनिया की बड़ी शक्तियां उसे आर्थिक और वित्तीय दलदल में नहीं धंसने देंगी इसलिए वह अपने रवैये से पीछे नहीं हट रहा है। चूंकि पाकिस्तान परमाणु हथियारों के जखीरे पर बैठा है इसलिए शायद अमेरिका भी उसके स्थायित्व की चिंता कर रहा है।

टू प्लस टू वार्ता के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण रहा कि उसकी धुरी रक्षा क्षेत्र पर टिकी रही। खासतौर र्से ंहद-प्रशांत क्षेत्र और भारत के पश्चिम में जारी घटनाक्रम पर विचार हुआ। रक्षा क्षेत्र में भारत-अमेरिकी सहयोग द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है। अमेरिका भारत को उच्चस्तरीय हथियार देने के साथ ही उनकी तकनीक भी साझा करने को तैयार है ताकि उन्हें भारत में भी तैयार किया जा सके। इसके लिए अमेरिका चाहता है कि भारत कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर करे। ये समझौते यह सुनिश्चित करेंगे कि भारत अमेरिकी हथियारों और तकनीक की प्रणालियां दूसरे देशों को लीक नहीं करेगा। संचार क्षेत्र से जुड़ा कोमकोसा ऐसा ही एक समझौता है जिस पर काफी लंबे समय से बात चल रही थी। इस पर टू प्लस टू वार्ता के दौरान मुहर लग गई। यह समझौता भारतीय और अमेरिकी सुरक्षा बलों के बीच संचार के मोर्चे पर बेहतर तालमेल बनाएगा।

वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में दोनों देशों ने पाकिस्तान को आईना दिखाते हुए कहा कि वह सुनिश्चित करे कि दूसरे देशों में आतंक फैलाने के लिए उसकी धरती का इस्तेमाल न हो। नि:संदेह पाक के लिए यह कड़ा संदेश है, लेकिन और बेहतर स्थिति तब होती जब अमेरिकी मंत्रीद्वय अपने बयानों में भी इसका जिक्र करते। उन्होंने मुंबई आतंकी हमलों के दोषियों को सजा दिलाने की कवायद को आगे बढ़ाने के अलावा आतंक का कोई और उल्लेख नहीं किया। मुंबई हमले का जिक्र शायद इसलिए किया गया, क्योंकि उसमेंं अमेरिकी नागरिक भी मारे गए थे। अमेरिका अभी भी भारत और पाकिस्तान को लेकर संतुलन साधना दिख रहा है। अमेरिकी मंत्रियों के बयान इसी कड़ी का एक हिस्सा जान पड़ते हैैं। महाशक्तियां ऐसे ही कूटनीति के जरिये अपने राष्ट्रीय हितों को पोषित करती हैं।

संयुक्त बयान अफगानिस्तान पर भी रोशनी डालता है। इसमें अमेरिका ने अफगानिस्तान के विकास और वहां स्थायित्व लाने में भारत की अहम भूमिका का स्वागत किया। यह भी अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है। अमेरिका पाकिस्तान को यह संदेश देना चाहता है कि यदि वह अपनी अफगान नीति में बदलाव नहीं करता तो वह अफगानिस्तान में व्यापक भूमिका के लिए भारत को बढ़ावा देगा। पाकिस्तान इन शब्दों से खुश नहीं होगा, क्योंकि वह अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका नहीं चाहता। इसकी संभावना कम ही है कि पाकिस्तान अपनी अफगान नीति में बदलाव करेगा।

संयुक्त बयान में अमेरिकी मंत्रियों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में आवाजाही के लिहाज से खुला क्षेत्र बनाने की पैरवी की। कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर बयान में कहा गया कि इन्हें दूसरे देशों की संप्रभुता का सम्मान करते हुए विकसित करना चाहिए और यह तय किया जाए कि इसकी आड़ में कुछ देश कर्ज के मकड़जाल में न फंस जाएं। इसके जरिये चीन पर निशाना साधा गया जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी आक्रामक नीतियों के चलते भारत और अमेरिका के लिए चुनौती बन रहा है। साफ है कि चीन को काबू में रखने के लिए अमेरिका भारत को अपने करीब लाना चाहता है। भारत को चीन से चौकस रहने की जरूरत है, लेकिन इसके साथ ही उससे सहयोग के भी संकेत दिखाने होंगे।

रणनीतिक साझेदारों के सामने सहयोग वाले क्षेत्रों के साथ कुछ ऐसे मुद्दे भी होते हैं जहां उनके हित मेल नहीं खाते। ऐसे मामलों में दोनों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दिखानी होती हैं। ऐसा न होने पर साझेदारी दम तोड़ देती है। ईरान और रूस को लेकर अमेरिका को यह बात ध्यान रखनी चाहिए। इन दोनों देशों से भारत के व्यापक हित जुड़े हुए हैं। अमेरिका को चाहिए कि वह रूस से रक्षा खरीद और ईरान से तेल खरीद के रास्ते में अड़ंगा न लगाए।

[ लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं ]