जागरण संपादकीय: अपना घर देखे अमेरिका, धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को उपदेश ना दें
अमेरिकी समाज में किशोरों को भी अपराध में लिप्त देखा जाता है। तब किसे दोष दें? अमेरिकी समाज में परिवार के मुखिया सामान्य तौर पर बच्चों को समय नहीं देते। आत्मनिर्भर होते ही बच्चे और संरक्षक अलग-अलग रहते हैं। बुजुर्ग एकांतवास में दुखी रहते हैं। इसके विपरीत भारत में परिवार नाम की संस्था दृढ़ एवं मजबूत है। मजबूत परिवार घर चलाने के साथ ही सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं।
हृदयनारायण दीक्षित। अमेरिकी संस्था ‘यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन फार इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ की हाल में एक रिपोर्ट आई है। इसमें भारत की धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति की आलोचना की गई है। रिपोर्ट में नफरती भाषणों, तथ्यहीन सूचनाओं और सरकारी अधिकारियों पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ उकसाने का उल्लेख है। संस्था ने मनगढ़ंत तरीके से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति को खराब बताया है। भारत ने उचित ही अमेरिकी रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया में कहा है कि ‘पक्षपातपूर्ण राजनीतिक एजेंडा चलाने के बजाय इस संगठन को मानवाधिकार के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।’
अनुच्छेद-19 के अंतर्गत भारत में विचार प्रकट करने की आजादी है। इसी तरह धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी अनुच्छेद 25-28 में है, लेकिन अमेरिकी संस्था ने इन तथ्यों पर विचार नहीं किया। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हित सुनिश्चित हैं और वे सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हैं। वे राष्ट्रपति जैसे शीर्ष पदों पर रह चुके हैं। रिपोर्ट में भारत के कुछ कानूनों को धार्मिक भेदभाव बढ़ाने वाला बताया गया है। मतांतरण, हिजाब, गोहत्या और नागरिकता संबंधी कानूनों को अल्पसंख्यकों पर प्रतिकूल प्रभावकारी बताया है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्वाभाविक रूप से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि अगर हम भी कुछ बोलें तो बुरा मत मानना। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि अमेरिकी संस्था घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करती है। उसे ऐसा एजेंडा चलाने के बजाय अमेरिकी मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर भारतीय समाज को बदनाम करना ही उनका लक्ष्य है। भारत एक संप्रभु राष्ट्र है। परस्पर संप्रभुता का सम्मान सभी राष्ट्रों का कर्तव्य है।
धार्मिक स्वतंत्रता पर 2004 में जारी एक रिपोर्ट में भी ऐसा ही कहा गया था। इस प्रकरण के मूल में अमेरिकी समाज की विश्व पर राज करने की महत्वाकांक्षा है। ऐसी अनेक संस्थाएं अमेरिका में हैं और जर्मनी में भी। यूके में भी रिलीजियस पर्सिक्यूशन एंड वर्ल्ड वाच रिपोर्ट नाम से ही ऐसी रिपोर्ट तैयार होती है। उसके लिए हाउस आफ कामंस से निर्देश भी मिलते हैं। भारत के कथित ‘माब लिंचिंग’ की चर्चा भी अमेरिकी संस्था की हालिया रिपोर्ट में है जबकि हिंसक भीड़ की ऐसी घटनाएं अमेरिका में भी घटित होती हैं। कुछ समय पहले ही एक श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन ने अश्वेत जार्ज फ्लायड की निर्मम हत्या कर दी थी। उसके परिणामस्वरूप श्वेत-अश्वेत के बीच दंगे भड़के थे। ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ नाम का अभियान चला था। काले-गोरे के भेद हिंसा तक जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि अमेरिकी समाज में अश्वेतों को घर छोड़ने को मजबूर किया गया था। आस्ट्रेलिया, अमेरिका और कनाडा में एशियाई मूल के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं।
अमेरिका अपने देश में व्याप्त हिंसा की चिंता नहीं करता। लोग सरेआम गोलियां चलाते हैं। आर्म लाइसेंस की कोई व्यवस्था नहीं है। बच्चों के हाथ में पिस्तौलें हैं। नशे की गोलियां हैं। विश्व-प्रतिष्ठित अमेरिकी भाषा विज्ञानी नोम चोम्स्की ने अमेरिकी समाज के बारे में चिंता जताई थी। हार्वर्ड एजुकेशनल रिव्यू के संपादकों ने ‘हिंसा और नौजवान’ विषय पर उनका साक्षात्कार लिया। चोम्स्की ने कहा कि ‘हिंसा के सहारे ही अमेरिकी पूंजीवाद का विकास हुआ। अमेरिकी महाद्वीप को आबाद करने वाले ब्रिटेन और यूरोप के गोरे व्यापारी यहां आए। हजारों साल से यहां रहने वाले आदिवासियों का संहार किया। जो बचे उन्हें उजाड़ स्थानों पर धकेल दिया।’
चोम्स्की ने उन आदिवासियों को ‘इंडियन’ कहा। याद रहे कि कोलंबस सहित जो लोग अमेरिका का पता लगा सके, वे दरअसल भारत का पता लगाने निकले थे। अमेरिकी समाज मूल रूप में ही हिंसा के विचार पर आधारित है। अमेरिकी समाज परस्पर लड़ता-झगड़ता एवं टूटा हुआ है। अमेरिकी समाज में ईसाई समुदाय दो भागों में विभाजित है और बहुधा टकराव देखने को मिलते हैं। अमेरिका में मानवाधिकारों का उल्लंघन सामान्य घटना है। अमेरिका खालिस्तान समर्थकों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। इसमें कनाडा भी शामिल है। आश्चर्य है कि जो देश अपनी समाज व्यवस्था दुरुस्त करने में विफल हैं, वह भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने एजेंडे पर चलाना चाहते हैं।
अधिकांश अमेरिकी श्रेष्ठता ग्रंथि के शिकार हैं। वे सारी दुनिया को मार्गदर्शन-उपदेश देना चाहते हैं। वे विचार प्रकट करने के सभी साधनों को अपनाते हैं। यूरोपीय भी उनके संगी-साथी हैं। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘भारत राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि ‘भौगोलिक अमूर्तता’ है। भारत कभी स्वतंत्र राष्ट्र नहीं हो सकता। ब्रिटिश क्राउन से अलग होने के बाद भारत के लोग जंगल में जाकर लड़ेंगे।’ उन्होंने यह भी कहा था कि, ‘एक शिक्षित वायसराय भारत में शांति व्यवस्था बनाए रख सकता है।’ चर्चिल की बात गलत निकली। भारत अपने पुरुषार्थ-पराक्रम एवं दृढ़ संकल्प से स्वतंत्र हुआ। सफल राष्ट्र साबित हुआ। संप्रति पूरा विश्व भारत की ओर देख रहा है। मूलभूत प्रश्न है कि ऐसी तथ्यहीन टीका-टिप्पणियों से कैसे बचा जाए? क्या भारत को भी प्रतिकार स्वरूप ऐसी ही संस्थाओं का विकास करना चाहिए? ऐसी टिप्पणियों का ठोस प्रतिकार आवश्यक है।
अमेरिकी समाज में किशोरों को भी अपराध में लिप्त देखा जाता है। तब किसे दोष दें? अमेरिकी समाज में परिवार के मुखिया सामान्य तौर पर बच्चों को समय नहीं देते। आत्मनिर्भर होते ही बच्चे और संरक्षक अलग-अलग रहते हैं। बुजुर्ग एकांतवास में दुखी रहते हैं। इसके विपरीत भारत में परिवार नाम की संस्था दृढ़ एवं मजबूत है। मजबूत परिवार घर चलाने के साथ ही सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। समाज प्रेमपूर्ण ढंग से चलता है। अमेरिका में ऐसा नहीं होता। दुर्भाग्य से वे भारतीय समाज के मुख्य तथ्यों पर ध्यान नहीं देते। अमेरिका ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग डेढ़ सौ साल बाद महिलाओं को मताधिकार दिया, बल्कि भारत में पहले आम चुनाव से ही महिलाओं को मतदान में समान अधिकार दिए गए। भारतवासी विश्व को एक अखंड सत्ता एवं परिवार मानते हैं। वसुधैव कुटुंबकम् भारत का संकल्प है। अमेरिका को भारत के राष्ट्रजीवन से सीखना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)